DEHARI KE IDHAR UDHAR BY RAMESH KHATRI
देहरी के
इधर उधर
विधा :
कहानी संग्रह
द्वारा :
रमेश खत्री
मोनिका
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
द्वितीय
संस्करण : 2021
मूल्य : 300.00
पाठकीय
प्रतिक्रिया क्रमांक : 173
मूलतः मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के निवासी रमेश खत्री जी जिन्होंने
शासकीय सेवा से अवकाश के पश्चात जयपुर को अपनी साहित्यिक कर्म भूमि हेतु चुना एवं
वर्तमान में न सिर्फ लेखन अपितु प्रकाशन, सम्पादन, समालोचना हेतु प्रमुखता से पहचाने जाते
हैं।
साहित्यिक क्षेत्र में उभरती प्रतिभाओं को आगे लाना उनके प्रकाशन
समूह का प्रमुख उद्देश्य है। बात करे उनके लेखन कर्म की तो उनके विभिन्न साहित्यिक
कृतियाँ यथा “साक्षात्कार”,”महायात्रा”
, “ढलान के उस तरफ”,
“इक्कीस कहानियां” आदि प्रकाशित हुए
हैं वही कहानी संग्रह “घर की तलाश” आलोचना ग्रंथ “आलोचना का अरण्य” व आलोचना का
जनपक्ष हैं। उपन्यास “यह रास्ता कहीं नहीं जाता”, “इस मोड़ से आगे” भी काफी चर्चा
में रहे एवं सुधि पाठकों द्वारा उन्हें उत्तम
प्रतिसाद प्राप्त हुआ।
साहित्य की विभिन्न इकाइयों में उनका सक्रिय योगदान निरंतर बना हुआ
है और उनके श्रेष्ट साहित्यिक योगदान को साहित्य जगत ने विभिन्न अवसरों पर
सम्मानित किया है।
प्रस्तुत कहानी संग्रह “देहरी के इधर उधर” उनकी अत्यंत
भावपूर्ण 13 कहानियों का संग्रह है जिसमें
प्रत्येक कहानी एक सुंदर भाव के संग अपना पक्ष रखती है एवं पाठक को अपना बना ले
जाती है। उनकी शैली पर यदि गौर करें तो लेखन में कथानक का विस्तार भावप्रधान है न
की घटना प्रधान। यही कारण है की उनकी कहानियाँ अत्यंत सरल विषय एवं कथानक के बाद
भी अपना प्रभाव पाठक पर छोड़ती हैं।
यहाँ हम
उनके कहानी संग्रह की कहानियों पर क्रमश :बात करेंगे। बात सबसे पहले कहानी “भोर के
इंतजार में” की, किस्मत के लेख और वक्त के
कारण बदले हुए हालात में उत्तपन्न हताशा के ऊपर सकारात्मक सोच से विजय पाने के
प्रयासों को दर्शाती छोटी किन्तु अर्थपूर्ण कहानी है। इस नारी विमर्श केंद्रित
कहानी को उसके चुनिंदा वाक्य संयोजन हेतु निश्चय ही पढ़ा जाना चाहिए। वहीं कहानी "चौराहे पर" विजातीय प्रेम
विवाह, वह भी तथाकथित छोटी जाति के युवक से किस तरह की
मुश्किलें लेकर आता है और उसकी परिणीति या कहें की वास्तविकता के धरातल पर आते ही
कैसे सुनहले सपनों के महल ढह जाते हैं, इस
सम्पूर्ण घटनाक्रम को सहजता से कथानक में संजोया है अंत कुछ जल्दबाजी में समेटा
हुआ सा लगता है जबकि प्रारंभ अर्थात प्रेम की शुरुआत वाले दृश्य परिस्थितिजन्य
अनुकूलता संग बहुत आराम से आगे बढ़ते हैं।
कथानक का मूल अवश्य ही
सोचने पर विवश करता है किंतु दांपत्य संबंधों के विषय में निर्णय लेते समय एक
सकारात्मक सोच की सर्वाधिक आवश्यकता सदैव विद्यमान रहना चाहिए उसी तारतम्य में
यहां भी अंत सकारात्मक दृष्टिकोण से भी
विचारित किया जाना चाहिए था।
कहानी की
वर्तनी संबंधित भूलें भी सुधार हेतु ध्यान आकृष्ट करती हैं ।
संग्रह
की अगली कहानी “दरकती दीवारें” एक बहुत खूबसूरत समझाइश देती कहानी है जहां बेटों के बेगाने हो जाने पर दामाद द्वारा अपने श्वसुर
के प्रति अपने पुत्रवत दायित्व का परिचय दिया जाता है वहीं स्वयं उसकी पत्नि
अर्थात
बुजुर्गवार की बेटी का कुबूलनामा की क्या वह अपने श्वसुर अर्थात इस
सज्जन युवक के पिता के प्रति यही भाव दर्शा पाती, निश्चय ही कइयों की आंखे खोलने वाला है। वहीं यह
सोच भी दर्शाती है की दामाद द्वारा पत्नी के पिता के प्रति किए गये कार्य जब पत्नी
द्वारा सराहे जाते हैं तो पत्नी की वही भावना पति के माता पिता के प्रति न होने के
पीछे उत्तरदायी सदा पुरुष को ही क्यों
बनाया जाता है?
“देहरी
के इधर उधर”, यू तो एक निम्नवर्गीय
कामकाजी महिला की कहानी है जिसका पति नकारा तो है ही पुरुष होने के
दंभ के चलते अन्यथा भी घर के सामान्य कामकाज में कोई सहयोग नहीं करता। फिर बच्चों
की जिम्मेवारी हो अथवा दैनिक गृह कार्य। कथानक सरल होते हुए भी गंभीर प्रश्न विचारण
हेतु अपने पीछे छोड़ता है। शब्द भावों को सहज प्रकट करते हुए अपनी उपस्थिति बखूबी
दर्ज करवाते हैं ।
एक
वास्तविक ऐतिहासिक प्रसंग है कहानी “इंतजार”, जयपुर के महाराजा जगत सिंह और मशहूर
नृत्यांगना रसकपूर के प्रेम के किस्से आज
भी बहुधा सुने जाते है। इसी ऐतिहासिक प्रेम कहानी से इस कहानी का कथानक बनता है । महाराज का
नृत्यांगना के प्रेम में खो जाना , नृत्यांगना का ही राजा के नाम पर शासन का कार्य
करने लगना जो की दरबारियों को स्वाभाविक रूप से नागवार गुजरता है , और कुछ ऐसे ही
राजनैतिक दाँवपेंचों के साथ कहानी आगे बढ़ती है।
कहानी
"खुद को खोजते हुए" एक अनछुए विषय की ओर ले जाती है। आम तौर पर हमने सिक्के का सिर्फ एक पहलू ही देखा था जहां
शादी के बाद लड़की दूसरे पक्ष पर दोषारोपण करती दिखलाई जाती थी किंतु इस कहानी में
लेखक ने लड़की द्वारा ससुराल में पहुंचने के बाद अपने व्यवहार के द्वारा किस तरह
से सम्पूर्ण माहौल को अपने विरुद्ध कर लिया यह स्वयं उस लड़की अथवा कहें नववधू के
मुख से ही कहलवाया गया है। जो काफी हद तक सत्य नहीं तो उसके अत्यंत करीब
प्रतीत होता है। दांपत्य संबंधों में किस तरह से दूरियां आ जाती हैं और वह भी मात्र इस वजह से की लड़की शादी के
बाद अपने मायके से अपना लगाव इतना अधिक रखती है की वह ससुराल के संबंधों को
प्रभावित कर देता है ।
कहानी “मन
के बंधन” मुख्यत: वात्सल्य रस से ओत
प्रोत है किंतु संग में चंद छोटे मोटे विषय भी मिला लिए हैं जो कथानक को आगे
बढ़ाने के साथ ही कुछ नए भाव एवम विचार दे जाते हैं। वहीं
कहानी “मैने
जीना सीख लिया है” , सुंदरता से
कही गई भावनात्मक जुड़ाव की कहानी हैं जहां पिया गए
परदेस और पीछे ब्याहता अपने फर्ज निबाहती उस का इंतजार करने को विवश है। किंतु ऐसे रिश्तों में सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव ही
तो रह जाता है और फिर जब यही दूरियां भावनात्मक रिश्तों में भी पसर जाए तो संबंधों में शायद कुछ भी
नहीं बचता जिसे आगे जीवन के लंबे सफर पर ढोकर ले जाया
जा सके और तब तो शायद यही बेहतर होता है कि ऐसे मृतप्राय रिश्ते को वहीं छोड़
नई मंजिल कि ओर बढ़ा जाए । संग्रह में विशेष तौर पर कुछ कहानियाँ देखने में आई जो दाम्पत्य
संबंधों में उपजी दरार एवं बाद में परिवार के बिखराव पर केंद्रित हैं। कहानी “साक्षात्कार”
भी कुछ कुछ उसी कथानक को मूल भाव में लेकर चलती है जैसे की कहानी "खुद को
खोजते हुए" में, नायिका
द्वारा विवाह के बाद पति एवम ससुराल को भुलाकर अपने मायके तथा मायके वालों में ही खोए
रहना, धीरे धीरे कैसे एक खाई दोनो के बीच तथा दांपत्य
संबंधों को खोखला कर देता है यह मालूम ही तब चलता है जब संबंध कहीं न कहीं टूटने
की कगार पर पहुंच चुके हैं। खत्री जी की शैली की एक विशेषता है की वे मूल भाव को
ज्यादा मंथन करते हैं एवम पात्रों तथा घटनाओं के मार्फत कहानी को सिर्फ आवश्यक गति
ही देते हैं संभवतः यही कारण है जो उनकी कहानियों में सुंदर भावनात्मक पंक्तियां
बहुतायत में देखी जा सकती हैं जो की कथानक की पृष्ठभूमि को और अधिक सुदृढ़ करती
हैं ।
कहानी “सुनीता
की चिंता छोड़ दो”, यूँ तो कहानी ही
है पर मैं इसे कहानी न कह कर मात्र एक संदेश के रूप में देखता हूँ जहां सुंदर भूमिका
के साथ यह सदविचार दिया गया हैं कि क्यू ना हर समर्थ व्यक्ति किसी एक कमजोर बच्चे का पढ़ाई का बोझ उठा ले। शुरुआती भूमिका
विस्तार से है जबकि मूल विषय प्रारंभ होते ही अंत पा गया जो थोड़ा असहज करता है।
वहीं
कहानी “उन्माद के क्षणों में” एक अच्छा विचार सामने रखती है है की क्यू व्यक्ति
उसी भाव में नहीं बना रह सकता वैसा ही भोला पन, वैसी ही सरलता, वैसा ही जोश, जो उन्माद के नितांत व्यक्तिगत पलों में दो
शरीरों के बीच पसरा हुआ होता है जबकि इन पलों से बाहर आते ही वही प्रौढता,
परिपक्व व्यवहार, ईर्ष्या और इगो जैसी बुराइयाँ
पुनः फिर आ बैठती हैं। इस विषय पर पहले भी बहुत कुछ कलिखा जा चुका है किन्तु
वास्तविकता अभी भी कल्पनाओ से बहुत दूर है ।
शैली के मुताबिक मूल विषय तक आने के पहले पृष्ट भूमि काफी विस्तृत की गई है
तथा उस से कहानी के मूल भाव का कोई इशारा
भी उस के सम्मुख आ जाने तक नहीं मिलता ।
कहानी “वापस लौट आना”, फिर एक बार उसी मूल भाव को लेकर आगे बढ़ती है जिस पर इसी संग्रह की दो कहानियां और हैं अर्थात शादी के बाद भी लड़की का मायके की ओर अधिक या कहें की सम्पूर्ण झुकाव एवं
ध्यान तथा माता पिता का लड़की के घर में दखल जो आगे जाकर उस घर को सिर्फ तोड़ने का
ही कार्य करता है, इस बार भी वही हुआ
किंतु कहानी में शीर्ष सोच का बिंदु वह आता है जब ऐसे
ही बिखरे हुए परिवार की बेटी अपनी माँ से पिता के पास जाने की इजाजत चाहती है। उस
बिन्दु पर कही न कहीं उस मां को शायद अपना मायका अपने पापा याद आते हैं जिनके कारण
उसका खुद का घर बिखर गया और वह इस डर से ग्रस्त हो जाती है की कही लड़की अर्थात
उसकी बेटी अपने पिता के प्रति ही न समर्पित हो जाए, उसी के समान और वह उसे कहती है
लौट आना। अच्छा भाव एवम संदेश है।
उक्त
वर्णित कहानियों के अलावा भी जो कहानियाँ हैं जिनका उल्लेख यहाँ रह गया है वे भी
कमतर नहीं है और समग्र रूप से कहें तो प्रत्येक कहानी अपने आप में कुछ न कुछ ऐसा
समेटे हुए है जो आप को बांध कर रखता है।
अतुल्य
9131948450
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