Vihan Ki Aahat By Vandana Bajpai
विहान की
आहट (कहानी संग्रह)
कथाकार :
वंदना बाजपायी
भावना
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
प्रथम
संस्करण: 2025
मूल्य: 250.00
पुस्तक क्रमांक
: 167
“इस
प्रस्तुति का उद्देश्य सम्माननीय पाठकों को पुस्तक की विषयवस्तु एवं कथाकार की भाषा
शैली इत्यादि से सरल भाषा में परिचय कराते
हुए अपने विचार रखना तथा पाठक को पुनः पुस्तकों के करीब लाने का और साहित्य से जोड़ने
का एक अदना सा प्रयास मात्र है।“
“विहान की आहट” वंदना बाजपायी जी की नवीनतम कृति है। विहान से तात्पर्य है भोर अथवा सुबह, कहीं कहीं शाब्दिक अर्थ सूरज की पहली किरण भी पढ़ने में आता है किन्तु मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में आज भी प्रातः काल को “भियाने” कहा जाता है जो की निश्चय ही विहान का शाब्दिक अपभ्रंश ही है, वैसे विहान मूलतः संस्कृत शब्द है जो की वि एवम हान दो शब्दों के योग से बनता है तथा इसे उज्जवलता एवम प्रगति के सकारात्मक प्रतीक के रूप में भी लेते हैं। पुस्तक का ब्लैक एंड वाइट कवर अपने नाम को सार्थकता प्रदान करता है तथा यूं प्रतीत होता है मानो प्रकाश अंधकार को लीलता चला जा रहा है। नई कोंपलें आ रहीं हैं एवं पक्षी अंधकार से बाहर आने को बेताब हैं वहीं पथिक पगडंडी पर आगे उजाले की ओर बढ़ रहा है और एक नई रोशनी का उदय हो रहा है।
वंदना
जी की कहानियाँ हमेशा की तरह इस बार भी
कुछ गहरे संदेश देती तथा अंधेरे से उजाले की ओर ले जाती प्रतीत होती हैं। वंदना जी
की कहानियों में सदा ही एक सकरात्मकता
दिखलाई पड़ती है जो बात मैंने उनकी पिछली पुस्तक “वो फोन कॉल” में भी ऑब्जर्व की
थी। साथ ही यह बात भी काबिले गौर है की प्रस्तुत
संग्रह की प्रत्येक कहानी एक से बढ़कर एक है, कुल 9 ही कहानियाँ हैं। कोई भी कहानी कहीं भी किसी मायने में कमतर नहीं
है, फिर बात चाहे विषयवस्तु की हो अथवा सुंदर
शैली एवं विचारों के सम्प्रेषण की, वाक्यों की सुंदरता हो अथवा सहज सरल बोधगम्य
भाषा।
संग्रह
की शीर्षक कथा "विहान की आहट" अपने शीर्षक को बखूबी चरितार्थ करती है तथा
विषय एवं वंदना जी के लेखन को देखते हुए वंदना जी से इस विषय पर कहानी को विस्तार देते
हुए उपन्यास लेखन का अनुरोध।
कथानक
लीक से हट कर एक ऐसी युवती के अंतरद्वंद की बात रखता है जिसके पति का असमय निधन कैन्सर
से हो गया किंतु भविष्य में बच्चे को जन्म देने हेतु सुरक्षित रखवाए
गए पति के स्पर्म को क्या वह गर्भधारण
हेतु ले एवं अपने बच्चे को जन्म दे, अथवा पुनर्विवाह कर एक नया जीवन आरंभ करे जैसा
की उसकी माँ तथा सास की ख्वाहिश है। इन सब दबावों के बीच उस की मानसिक कशमकश, जीवन में एक दोराहे पर आ खड़े होंने जैसी स्थिति को बेहद खूबसूरती से उकेरा है। वैज्ञानिक
दृष्टिकोण का भी पूरा पूरा ध्यान कथानक में रखा गया है। जहां विषय नया है एवम इस
प्रकार का अंतर्द्वंद्व हो जाना बेहद स्वाभाविक प्रतीत होता है, उस अंतरद्वंद को लेखिका के नारी मन ने बखूबी समझा है एवम नायिका के मन के भावों का मनोविश्लेषण कर
अत्यंत भावनात्मक एवम मनोवैज्ञानिक तरीके से प्रस्तुत किया है। अंत में नारी मन की
दृढ़ता को दर्शाते हुए नायिका द्वारा लिया गया निर्णय नारी शक्ति को बखूबी दर्शाता
है जो अचंभित तो नहीं करता किंतु वर्तमान सामाजिक मूल्यों में क्या नायिका का जीवन,
सुरक्षित रखे गए स्पर्म के द्वारा संतान को जन्म देकर सहज होगा क्या समाज उसे
उन्ही अर्थों में स्वीकार कर लेगा जैसा की उसके पति के जीवित होने की दशा में होता
अथवा इसे एक नाजायज संतान मानेगा यह प्रश्न अवश्य पीछे चिंतन हेतु छोड़ जाता है।
यदि
बात करे शीर्षक संबद्धता की तो नायिका का निर्णय जिसे उसके लिए वह एक नए सवेरे के
रूप में देखती है सारी वर्जनाओं और कुंठाओं को छोड़ कर तथा अपने भविष्य में उठने
वाले असंख्य सवालों को सामना करने को तैयार होती है जो पूर्णतः शीर्षक की सार्थकता
दर्शाता है।
एक
परिवार द्वारा मूक प्राणी (पशु) को घर का सदस्य बना लेने और परिवार के सदस्यों का उस
से जुड़ाव होने की कहानी है “सिम्मोंमयी ”। कथानक गाय पालने से प्रारंभ होकर उस के
साथ परिवार के सदस्यों के भावनात्मक लगाव को और स्नेह को दर्शाता है। पालतू
जानवरों के प्रेम में जहां इंसान अपने सब गम भुला बैठता है वहीं उन पालतू मूक
प्राणियों की अस्वस्थता की दशा कैसे
परिवार के सदस्यों को तोड़ कर रख देती है यह भी बखूबी दर्शाता है। अत्यंत मार्मिक
एवम भावनात्मक चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
पुस्तक
के पढ़ते पढ़ते ही खबर आई की “कथा रंग कहानी प्रतियोगिता-2023" की
सर्वश्रेष्ठ कहानी वंदना वाजपेई की "ज्योति"
को चुना गया है। जिसे पुरस्कार स्वरूप 11 हजार रुपए का
"शिवम कपूर स्मृति प्रेमचंद कथा सम्मान" से अलंकृत किया जाएगा। निश्चय ही यह कहानी
इस सम्मान की हकदार है। मैने पढ़ना शुरू किया तो लगा मैं खुद को ही पढ़ रहा हूँ (मेरे पाठक मेरे कैंसर ग्रस्त होने से तो अवगत हैं ही ) और
मेरे भावों को वंदना जी ने शब्द दे दिए हैं। केंसर के डिटेक्ट होने की अवस्था उस दौर में मानसिकता और उस की प्रारंभिक मुश्किलात यथा क्या
ट्रीटमेंट होगा, कैसे होगा, परिवार का क्या होगा जैसे ही अनगिनत विचार,
फिर परिवार के सदस्यों की मनोदशा, आदि।
बायोप्सी
की रिपोर्ट लेकर घर तक पहुचना कितना कठिन था मुझे आज भी याद है और फिर सब कुछ
सामान्य दिखाने के उत्तरदायित्व भी। सच कहूं मैं इस कहानी को पहली बार में पूरा
नहीं पढ़ सका, हिम्मत ही नहीं हुई इतनी अधिक
वास्तविकता से हर बात लिखी गई है की सब कुछ जिस पर
बीतता है शायद वह भी ऐसे खूबसूरती से अपनी परेशानी
शब्दों में न ढाल सके। प्रारंभ में लगा
शायद पूरी न पढ़ सकूँ फिर हिम्मत जुटा कर पूरी कहानी पढ़ी। वंदना जी का लेखन जैसा की
मेरे लिए नया नहीं है उनकी कविताएं कहानियां पहले भी पढ़ी हैं ,उनकी विशेषता है वे कथानक के
माध्यम से पाठक को उस धरातल पर ला खड़ा करती हैं जहां पात्र और पाठक एक
हो जाते हैं सो सहज ही कह सकता हूँ की एक गंभीर विषय पर लिखी गई
अत्यंत मार्मिक एवं वास्तविकता के अत्यंत करीब कहानी है।
“की
बोर्ड पर नायिका”, समाज में नारी की
वास्तविक स्थिति पर तीखा तंज है जहां बातें भले ही कितनी ही प्रगतिशीलता की क्यू
ना की जाएँ जमीनी सच्चाई इस कथानक के द्वारा दर्शाई गई है। घर हो या बाहर स्त्री
के दर्जे में कोई विशेष अंतर आया हो, दिखता तो नहीं है। कहानी
एक महिला की घुटन की, भीतर ही भीतर खत्म होने की है ,जिसकी
क्षमताओं को, प्रतिभा को, मात्र महिला
होने के कारण पीछे धकेल दिया जाता है अथवा समाप्त कर दिया जाता है कभी व्याह के
आवरण में तो कभी पारिवारिक जिम्मेवारियों की आढ़ में। यह हक की लड़ाई है यह कहानी
है स्त्री द्वारा आगे बढ़ कर अपना हक पाने
की और उस संदर्भ में किए जा रहे प्रयासों की उसके संघर्षों की, पेश आती मुश्किलों की जहां उसका वास्ता जिन मुश्किलों से हो रहा है उन्हें
भी बखूबी दर्शाया गया है।
“गांव के दिन बहुर गए भैया”, स्त्री शिक्षा पर केंद्रित होते
हुए, आज भी नारी शिक्षा में कैसी कैसी मुश्किलात् पेश आती है और कैसे अनचाहे ही लपेटे में आ जाती है लड़कियों
की शिक्षा। तो वहीं गांव में किसानों की भी कुछ
समस्यायों की ओर ध्यानाकृष्ट किया गया है यथा बारिश पानी की मुश्किल या फिर
चिकित्सालय अथवा कॉलेज की या फिर शहर को जोड़ते रास्तों की या फिर सबसे खास, किसानों
की जमीनों का सरकार द्वारा अधिग्रहण जिसका
फलसफा हर कोई अपनी तरह से बताता है जहां हर किसी की उम्मीदें भी जुदा जुदा हैं। इसी
संदर्भ में, मायके से विदा होती बेटी द्वारा अपने पीछे धान उछालने
की परंपरा पर कितनी सुंदर किन्तु तीखी बात लिखी गई है जो सहज ही गंभीरता से सोचने
को विवश करती है कि “अम्मा कहती हैं की बेटियां चावल उछालने के बाद पलटकर नहीं
देखती ,तब कहां समझती थी की पलटकर न देखने को
अभिशप्त बेटियां अपना हिस्सा ही नहीं छोड़ती दुख दर्द की हिस्सेदारी से भी मायके
को मुक्त कर देती हैं”। मोबाइल से जुड़े लाभ हानि पर भी
तार्किक चर्चा की गई है।
कहानी
“अगल बगल”में बात है एक गृहस्वामिनी की सहृदयता की जो की अपनी पड़ोसन की बातों में
आकर अपनी निजी सहायिका पर अविश्वास करने लगती है और अपने सहृदयता, परोपकार,
दयावान और मानवीय मदद करने वाले मूल स्वभाव का गुण कहीं भुला बैठती
है, किंतु सच जानने के बाद वह अपनी भूल सुधारती है फिर भी अंत में उसे हल्की सी चुभन या शायद अपने निर्णय पर कुछ पुनर्विचार
जैसा करने की आवश्यकता महसूस अवश्य होती है जिसे वह अनदेखा कर अपनी खूबी बरकरार रखती
है।
“ख़ुड़पैची
अम्मा” का शीर्षक यदि “विरासत” भी होता तो भी उतना ही प्रभावित करता या संभवतः
कथानक से अधिक करीबी रिश्ता जोड़ता। कहानी
यूं तो सास बहु की नोंक झोंक से जुड़ी है
किन्तु वहाँ देखने में आती है विरासत
संस्कारों की, विरासत कुछ अनमोल सीखों की जो जीवन की खट्टी मीठी नोकझोंक और उम्र
के दबाव के बावजूद अम्मा अपनी बिटिया सी प्यारी बहु को सौंप गई, और बहु ने तो शायद
उनसे भी आगे बढ़ कर सब कुछ संभाल लिया। हर कदम एक सीख है जमीन से जोड़ते गीत भी
हैं वहीं अम्मा की मीठी झिड़कियां भी हैं जिन्हें
आज कल के बच्चे (बहुएं) या तो सुनना नही चाहेंगे या फिर बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे।
अंतर्मन को छू जाने वाला कथानक जिसे वंदना जी ने अपनी सुंदर शैली में बहुत ही
प्रभावी बना दिया। शीर्षक से प्रतीत होता था मानो कोई झगड़ेल औरत का किस्सा होगा किंतु ज्यों ज्यों आगे बढ़ते
गए उस अम्मा के पात्र से प्यार होता गया। बहु का वसीयत वाली चिट्ठी छुपा जाना आज बेहद
मामूली कारणों से टूटते परिवारों के लिए एक बड़ा संदेश हैं।
सभी
कहानियों में लेखिका अपने पात्रों के अंतर्मन की पीड़ा,
उनका दर्द जो केवल उनके पात्रों का है, उनके मन मस्तिष्क में
चलती किंकर्तव्यविमूढ़ता वाली स्थितियां, एक सहज उपजी ऊहापोह
से जनित तनाव, जैसी पात्र
की नितांत निजि भावनाएं पाठकों के सामने समग्रता में
प्रस्तुत कर देती हैं उनके वर्णन करने का अंदाज इतना
रोचक और पठनीय है कि पाठक स्वयं उस से जुड़ता चला जाता है और स्वयं
को पात्र से जोड़ कर सभी घटनाक्रम को स्वयं अनुभव करने लगता है। जो की किसी भी
लेखक की सबसे बड़ी विशेषता है जो उसे अन्य से ऊपर ला खड़ा करती है। अपनी प्रत्येक
नवीन रचना के संग वंदना जी नई ऊँचाइयाँ प्राप्त कर रहीं हैं एवं साहित्यजगत में
लेखन के नए मानक स्थापित कर रहीं हैं। प्रत्येक कहानी में सहज प्रवाह को बनाए रखते
हुए कुछ सुंदर पंक्तियाँ भी लेखिका द्वारा दी गई हैं जो कथानक में सुंदरता बढ़ाती हैं,
एक बानगी देखें “सृजन अपना विस्तार स्वयम ही खोज लेता है”।प्रस्तुत आलेख के विस्तार
को देखते हुए अन्य पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत नहीं कर रहा हूँ सिवाय इसके कि एक पठनीय एवं
संग्रहणीय पुस्तक है जिसे पूर्ण गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिए।
अतुल्य
9131948450
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