KHALI PILI BAKVAS BY DR. PRADEEP UPADHYAY

 

खाली पीली बकवास

विधा : व्यंग्य संग्रह

द्वारा: डॉ. प्रदीप उपाध्याय

New World Publication द्वारा प्रकाशित

प्रथम संस्करण : 2024

मूल्य : 225

पाठकीय प्रतिक्रिया क्रमांक : 163 


डॉक्टर प्रदीप उपाध्याय,  अपने चुभते हुए निर्भीक व्यंग्य लेखन हेतु प्रमुखता से  जाने जाते हैं। बात यदि करी जाए व्यंग्य लेखन या फिर व्यंग्य विधा की तो अत्यंत आसान शब्दों में कहा जा सकता है की साहित्य की वह शैली जिसमें किसी भी विषय व्यक्ति अथवा स्थिति की आलोचना अथवा उसका कोई स्याह पक्ष अतिशयोक्ति अथवा विरोधाभास का प्रयोग करते हुए सहज हास्यात्मक रूप में , किसी की भावनाओं को आहात किये बगैर लेखक का अपना विशिष्ट दृष्टिकोण अथवा विचार रखने हेतु किया जाता है। लेखक के यह  विचार   आम जन की भावना को भी प्रदर्शित कर सकते हैं । उपाध्याय जी की कहानियों में उनके द्वारा सृजित व्यंग्य में यही तमाम बारीकियों से युक्त  लेखन देखने को मिलता है उनके व्यंग्य बहुधा राजनीति अथवा राजनीति से प्रभावित अन्य विषयों पर केंद्रित होते हैं। बगैर किसी पार्टी ,समुदाय अथवा व्यक्ति विशेष को संबोधित किये वे अपनी बात अत्यंत पैनेपन से से कह जाते हैं वहीं  दूसरी प्रमुख बात उनके व्यंग्य लेखन में उनके कहन की संक्षिप्तता, सरल वाक्य तथा सहज भाषा शैली है। अच्छा खास प्रशासनिक अनुभव उनके लेखन को और अधिक तार्किकता प्रदान करता है।  उनके  अधिकतर व्यंग्य अक्सर चर्चा में रहे राजनीतिक किस्से ही होते हैं जिनसे आम आदमी सहज ही जुड़ा राहत है। उनके व्यंग्य आम जन के विचारों की अभिव्यक्ति ही हैं।


 “खाली पीली  बकवास” उपाध्याय जी के ऐसे ही कुछ चुनिंदा व्यंग्य लेखों का संग्रह है। प्रत्येक व्यंग्य रचना को मेरे द्वारा  बहुत इत्मीनान से पढ़ा गया है किन्तु विभिन्न रचनाओं के विषय में बहुत विस्तार से लिख कर पाठक की कथानक के प्रति उत्सुकता एवं रोमांच को कहीं भी काम नहीं किया गया है किन्तु प्रत्येक कहानी के विषय में ,   उसके कथानक अथवा विशिष्टता के विषय में  अवश्य ही बताया गया है , जो निश्चय ही आपको उस रचना को पढ़ने हेतु मानस बनाने में सहयोगी होगा।   

 “लड़ते झगड़ते नौटंकीबाज बच्चे”, हालिया राजनीति में अलग अलग खेमों में बटे  तथाकथित राजनेताओं पर कटाक्ष करती रचना है (राजनेता एवम राजनीति की परिभाषा  भी  न जानने वाले बाहुबलियों और जुगाड़ू लोगों के समूह, समय समय पर बदलते रहते हैं जिन्हें हमारी अर्थात आम जन की नियति से क्या ही लेना देना।)

राजनीति पर व्यंग्य  से इतर  कुछ सामाजिक व्यवस्था पर किए गए तीक्ष्ण कटाक्ष भी काबिले गौर हैं एक स्थान पर वे लिखते हैं की "घर भी घर कहां रहे वे तो ईंट पत्थर के मकान हो गए हैं। मकान में रहने वाले भी तो भीतर तक ईंट पत्थर हो गए हैं। ( पृष्ट 27 “समय समय का फेर”) 

यह भी देखें कि "इस जन्म में अपनी रीढ़ को ज्यादा एंगल नहीं दे पाए तो खडूस ही कहलाए,जो  लोग 90 अंश से 360 अंश  तक का कोण बनाने की कुव्वत रखते हैं वे ही असल में सफलतम इंसान हैं (“अगले जन्म मोहे चमचा ही कीजे”) 

राजनीति में ही क्यों चंद लोगों को भविष्य दिखता है और क्यों इसी के द्वारा जनसेवा होती है सभी जानते हैं पर लेखक का इस विषय पर अंदाज बयां देखें " आपने तो बहुत सेवा कर ली अब तो आपकी सात पुश्तों को खाने कमाने की जरूरत नहीं रही .....   ( “मन रे  तू कहे न धीर धरे” ) 

वहीं वर्तमान आभासी दुनिया के आभासी रिश्तों की आढ़ में आभासी संबंधों पर करारी चोट करती हुई रचना है "इन रिश्तों को क्या नाम दूं " तो एक और तीखी एवम सटीक वार करती रचना जिसे अत्यंत व्यापक रूप में देखा व समझा जाना चाहिएवह  है " तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना " 

राजनैतिक दावपेंचों और आमजन को भरमाने वाले उन राजनेताओं के लोक लुभावन कृत्यों की बखिया उधेड़ती है रचना " तुम सुदामा हो सुदामा ही रहोगे",तो वहीं दलों के स्वार्थ सिद्धि एवम सत्ता प्राप्ति की होड़ में लगे गुटों के ऊपर सटीक व्यंग्य है "मिक्स वेज”।

“अब हमारे सपनों को यूं न तोड़ो” के द्वारा आज के राजनीतिक दलों/ सरकारों द्वारा अपने वोट बैंक को बढ़ाने एवं  स्थिर रखने के प्रयासों में बढ़ते हुए  फ्रीबीज के चलन को केंद्र में रखते हुए उस समय का खाका खींचा है जब ये सब सुविधाएं किन्हीं कारणों से  बंद हो जाएंगी लेकिन तब तक आम जनता नित्थली और पूरी तरह से आराम पसंद हो चुकी होगी तब वह कैसे आर्तनाद करेंगे। साधा हुआ तीखा व्यंग्य है ।

चुनावी मौसम में वोट की याचना के साथ आन खड़े हुए याचक के मन की बात रखती हुई रचना है “तेरे दर पे आया हूँ ”। नियम के चलते याचना और सत्ता लोलुपता के कारण वादे करने को विवश।

दल बदलुओं और बिकाऊ लोगों के कारण या फिर अन्य बहुत से कारणों के चलते  पार्टी के अंदर वरिष्ठ जन को जब उनका वांक्षित पावर हाउस नही मिलता टिकट कट जाती  है अथवा मंत्री पद नही मिलता तब ऐसे वरिष्ठ पार्टीजन के उदगार  बखूबी उकेरे गए हैं प्रस्तुत संग्रह की रचना “:बागी की बगावत और उनके सपने” में।

ऐसे ही विभिन्न मुद्दों पर तीखी तीखी व्यंग्य रचनाएं संकलित हैं जिनमें प्रत्येक विशेष है चूंकि वह कोई न कोई विशेष विषय स्वयं में समेटे हुए है एवं जिन्हें पड़ कर आप अचंभित होते हैं , इस नए पहलू पर सोचने को विवश होते हैं और बेसाख्ता कह उठते हैं की अरे ,  इस तरह से तो हमने सोचा  ही नहीं।

व्यवस्था राजनीति या फिर सामाजिक मुद्दे,और उन विषयों पर डॉ. उपाध्याय का लेख, स्वतः ही विषय को एक भिन्न दिशा देते हुए गंभीर चिंतन को प्रेरित करता है।

विषय कुछ भी हो तार्किक एवं सटीक व्यंग्य पढ़ने हेतु गुजर जाइए इस पुस्तक के प्रत्येक सफे से जहां मनोरंजन के संग संग चिंतन भी अद्वितीय है 

अतुल्य

9131948450

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