Main Aur Meri Kahaniyan By Dr Pradeep Upadhyay
मैं
और मेरी कहानियां
द्वारा:
डॉ. प्रदीप उपाध्याय
विधा:
कहानी संग्रह
साहित्यभूमि
द्वारा प्रकाशित
प्रथम
संस्करण : 2023
मूल्य
: 395.00
पाठकीय प्रतिक्रिया क्रमांक : 157
डॉक्टर प्रदीप उपाध्याय, साहित्य जगत में जाना पहचान नाम, वहीं मध्यप्रदेश की ऐसी जानी मानी साहित्यिक हस्ती जो साहित्य को पूर्ण समर्पित होने के पूर्व मध्यप्रदेश शासन में उच्च प्रशासनिक पदों पर रहे और क्योंकि उन्होंने सिक्के के दोनो ही पहलू अर्थात प्रशासनिक व्यवस्था एवम आम जन का पक्ष भी देखा हुआ है अतः इसका समेकित प्रभाव भी उनके लेखन में बखूबी नजर आता है, तथा वे उन बिंदुओं पर निर्णयात्मक स्थिति में होते हैं जहां अन्य लेखक बंधु तजुर्बे अथवा विशिष्ट क्षेत्र की जानकारी के अभाव में स्पष्टता नहीं रख पाते या फिर उस स्थल पर कुछ कहने से पहले ही कन्नी काट लेते हैं । उनकी अधिकतर कहानियां उनके प्रकृति प्रेम एवम मूक प्राणियों के प्रति उनके स्नेह को दर्शाती हैं साथ ही कहानियों के विषय भी आम जन के जन जीवन के रोजमर्रा के घटनाक्रम के बीच से ही उत्तपन्न हुए हैं तात्पर्य यह की उनकी कहानियों में कहीं भी उनके द्वारा किसी विशिष्ट विषय की तलाश कर उस पर विचारण कर कहानी का सृजन किया गया हो ऐसा प्रतीत नही होता। उनकी कहानी तो बस उन भावों का शाब्दिक जामा है जो किसी घटना , विषय, अथवा वस्तु को देख या महसूस कर उनके अंदर कहीं उत्तपन्न हुए एवम उन्हें उद्वेलित कर गए।
आगे
बात करे गर उनके प्रस्तुत कहानी संग्रह " मैं और मेरी कहानियां" की तो
शीर्षक ही उनकी सरलता एवम सहजता का परिचय देता है अन्यथा हालिया दौर में अपनी कृति
को स्वयं ही श्रेष्ठ, चुनिंदा ,अथवा विशेष प्रत्यय के साथ प्रस्तुत करने
की लालसा से बचना तो मुश्किल ही दिख रहा है अर्थात बहुत आम हो गया है और बखूबी
बगैर किसी संकोच अथवा आपत्ति के चलन में भी है ।
संग्रह
की पहली कहानी "बंद हो चुकी खिड़की" ढलती उम्र में बचपन के प्यार अथवा
आकर्षण की खुशबू तलाशती भावनाओं की बात है, किंतु शीर्षक, कथानक की भावना से
मेल बैठाता नहीं लगा। गर खिड़की बंद ही हो चुकी होती तो इतना सब सोचा ही न
जाता। कहते हैं ना कहीं न कहीं चिंगारी दबी हुई है तभी तो धुआं दिख रहा है। मेरी
नजर में इस प्यार को क्या नाम दूं जैसा कुछ अनाम सा रिश्ता है जिस के बारे में न
कभी कहा गया, न पूछा गया या
कहें की इस प्रेम के बीज न तो समाप्त ही हुए न ही पौध बन सके। बचपन के आकर्षण से
प्रौढ़ावस्था की आखरी अथवा वृद्धावस्था की पहली सीढ़ी पर फिर मुलाकात दिल में जो हलचल
कर गई उसका सुंदर मासूम सा चित्रण है किंतु बीच में पिता की असमय मृत्यु का वाकया
कुछ अधिक विस्तृत हो गया जो की मूल भाव से भटकता हुआ लगा।
वहीं
कहानी "अंतिम दायित्व" पुश्तैनी मकान एवम उसमें बने मंदिर में स्थापित प्रभु मूरत के पूजन को लेकर वृद्धावस्था में दूसरी तमाम परेशानियों के बीच ग्रह स्वामी की एक अहम परेशानी बन कर खड़ी हुई थी जिसका निवारण भी सुंदर
तरीके से कर दिया। लेखक का आकलन एवम घटनाओं तथा भावनाओं को देखने तथा समझने का
नजरिया अद्भुत है एवं इस कहानी में एक वृद्ध की मनोदशा को जिस तरीके से आंक कर
लिखा है वह अद्वितीय है।
कृषि
क्षेत्र में लगन एवं नवाचार को बहुत ही सुंदर तरीके से कथानक में ढाला है। विशेष
रूप से अपने लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में सतत प्रयासों को पूर्ण निष्ठा से करते जाने का सुंदर संदेश दिया है
कहानी" रुक जाना नहीं " में।
कहानी
“क्या खोया क्या पाया” , आपसी सामंजस्य की
कमी और अहम के टकराव के
चलते बिखरते रिश्तों की कहानी है। पूर्व
पत्नी से मुलाकात का दृश्य कुछ और अधिक खुलता तो बेहतर होता। कहानी का लब्बोलुआब
वही है की समय बीत जाने पर चाह कर भी टूटे
हुए रिश्ते जोड़ पाना संभव नहीं हो पाता।
कहानी
"गांव वापसी" के चंद वाक्य कुछ सोचने को मजबूर करते हैं - " गरीबी का कोई वर्ण नहीं होता। बस दुनिया
में अमीरों का एक वर्ग होता है और दूसरा वर्ग गरीबों का। लेकिन इस बात को लेकर राजनीति के ठेकेदारों को कौन समझा सका है। इसी संदर्भ में आगे
भी वर्ण व्यवस्था और भेदभाव को लेकर सुंदर विचार रखे
हैं , लिखते हैं की -
जब
तक जातिवादी व्यवस्था समाप्त नहीं हो जाती, यह भेदभाव मिटना मुश्किल है। जाति ही उपजातियों में बटी हुई है और उनमें ही आपसी भेदभाव
है। पहले यह भेद तो मिट जाए। वैसे ज्यादा दुखद स्थिति अमीर गरीब के भेदभाव की है।
जब तक आर्थिक विषमता विद्यमान है तक तक सामाजिक विषमता दूर करना संभव नहीं है।
कहानी
ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी वातावरण की तुलना में विद्यमान आपसी भाई चारे को
दर्शाती है।
कहानी
"स्वाभिमान की रक्षा" वृद्धावस्था, पुश्तैनी जायजाद
न छोड़ने का मोह और सबसे बढ़कर स्वाभिमान को लेकर अच्छा ताना बाना बुना
गया है। किंतु अंततोगत्वा परिस्थितिवश इंसान कैसे टूटता है और समझौता करने को विवश
होता है यह बात कहीं न कहीं भीतर तक झकझोरती है की क्या स्वाभिमान वाकई स्व-अभिमान
जैसा कुछ बच सका । कहानी “पिघलते रिश्ते”
कहानी है करीबियों द्वारा स्वार्थ वश रिश्तों को निभाने की। कहानी एक बाहरी व्यक्ति द्वारा निःस्वार्थ सेवा
एवम बुजुर्गों के प्रति आदर भावना दर्शाती है साथ ही वृद्धाश्रम में रह रहे लोगों की मनःस्थिति पर भी
ध्यान आकृष्ट करती है। कहानी “अकेलापन”, तथाकथित प्रगतिशील
समांज में व्याप्त उन्हीं रूढ़िवादी मान्यताओं को रेखांकित करती है की एक लड़की और
लड़का कभी दोस्त नहीं हो सकते। ये रिश्ते हमेशा से ही शक के दायरे में रहते आए हैं
फिर भले ही वे सक्षम हो समर्थ हो किसी पर निर्भर हैं या नहीं इस से समाज को कोई
विशेष फर्क नहीं पड़ता। इसी कहानी की निम्न पंक्तियां समाज की खोखली मान्यताओं को
करारा प्रहार करती हैं
"
वैसे भी सभी अपनी अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं अपने निर्णय खुद
ले रहे हैं किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है .........।
कहानी
“तेरहवीं का लड्डू” में एक केंसर पेशेंट के माध्यम से जिंदादिली के साथ साथ
मार्मिकता का पक्ष भी अत्यंत सुंदर तरीके
से उकेरा गया है। शीर्षक के द्वारा यूं तो कथानक का कुछ आभास हो जाता है किंतु मूल
कथानक एवम भाव तो संपूर्ण कहानी पढ़ कर
ही प्राप्त होते हैं। चित्रण इतना प्रभावी है की
कहानी अपने अंत तक जाते जाते कई दफे थोड़ा दहलाती है कुछ सहमाती है और कही कही
आंखों की कोर भी भिगा जाती है। एक अच्छी
कहानी।
कहानी
“कुर्सी” और “लौट आए जब अपने जहां में” शैली के द्वारा कुछ कुछ संस्मरण का आभास देती
हैं। इनमें लेखक का प्रकृति प्रेम , पूर्वजों के प्रति आदर एवम लगाव तथा अपने
पैतृक स्थान से जुड़ाव सहज ही लक्षित होता है।
उपाध्याय
जी की शैली की एक खासियत तो यह भी है की उनकी कहानी, कहानी जैसी ना लग कर बस अपनी
सी बात लगती है मानो आप किसी मित्र संग गुफ्तगू में हों ,
वे अत्यन्त सहजता से आपको अपने पात्रों से ऐसे जोड़ देते हैं कि वे
आपको अपने ही या फिर अपने बीच के ही लगने लगते हैं। कहानी “वह लड़का” भी ऐसे ही एक
सरल व्यक्ति की कहानी है जिसे पढ़ते हुए आप सहज ही उस से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस
करने लगेंगे।
प्रकृति
प्रेम उनकी अमूमन हर रचना में दिखलाई पड़ता है और “प्रायश्चित” इस का अपवाद नहीं
है। उनकी रचनाओं से यह भी अहसास होता है की निश्चय ही यह प्रकृति प्रेम अपने
पूर्वजों के आशीर्वाद प्राप्त हुआ है जिसे वे बखूबी सहेजे हैं एवम समृद्ध भी कर
रहे हैं ।
कहानी
“अपनी सीमा” किसान की जमीन की नपती को मूल में लेकर शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार ,
वर्तमान सामाजिक परिस्थितियाँ छलबाजियों का हर तरफ व्याप्त शिकंजा और
किसानों का दर्द बहुत विस्तार से सामने रख देती है। विस्तार से तात्पर्य यहाँ शब्द
विस्तार न होकर समस्याओं के चिंतन एवं निराकरण को समझा जाना चाहिए।
पालतू
मूक प्राणियों से लगाव और उन के बगैर
जीवन में उतर आए सूनेपन को बखूबी शब्दों में ढाला है "सिमरन" में । किंतु
मूक पशु पक्षियों एवम घरेलू प्राणियों के प्रति प्रेम रखने वाले ही इस रचना का भाव
समझ कर उसकी गहराई अनुभव कर सकेंगे। बाकियों के लिए तो बस एक सुंदर कहानी ही है जो
एक फीमेल पेट डॉग को लेकर लिखी गई है।
प्रस्तुत
कहानी संग्रह की अमूमन सभी कहानियों के विषय में मैने यहां लिखा है फिर भी ऐसी
कहानियां जो छूट गई वो भी मात्र मेरे आलस्यवश ही है किंतु अच्छा भी है की पाठक स्वयं पढ़ कर उन पर अपने विचार बनाएं।
संग्रह
की और भी कहानियाँ जैसे वह स्त्री , छटते बादल , प्रतीक्षा आदि भी सुंदर भाव के
संग सृजित की गई हैं एवं बखूबी अपना संदेश पहुचाती हैं।
आम
तौर पर किसी भी पुस्तक की समीक्षात्मक टिप्पणी देना अपेक्षाकृत सरल कार्य है जहां समग्र रूप में
लेखन तथा प्रस्तुत कृति की शैली भाव इत्यादि के
विषय में लिखा जा सकता है किंतु जब बतौर पाठक आप अपनी प्रतिक्रिया
किसी पुस्तक के विषय में देने जाते हैं तो निश्चय ही थोड़ा विस्तार तो
हो ही जाता है , सारी
कहानियां पढ़ने के पश्चात जब पुस्तक को समग्र रूप से
देखा तो सहज प्रतिक्रिया यही थी की एक अच्छा कहानी संग्रह है जहां स्वस्थ मनोरंजन
के साथ साथ कुछ विचारों की खुराक भी मिलती है जिसे पूर्ण गंभीरता के साथ
पढ़ा जाना चाहिए ।
अतुल्य
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