Andhere Mein Se By Dalip kumar Pandey

 

अंधेरे में से 

द्वारा : दिलीप कुमार पांडेय

विधा :काव्य

आस्था प्रकाशन द्वारा प्रकाशित

प्रथम संस्करण :2023

मूल्य: 295

पृष्ट :  127

समीक्षा क्रमांक : 145                                                        


दिलीप कुमार पांडेय जी की प्रस्तुति “अंधेरे में से” मेरे लिए उनसे परिचय करवाती उनकी पहली ही कृति है जबकि इस के पूर्व “उम्मीद की लौ” भी प्रकाशित हो चुकी है। जिसका पढ़ा जाना शेष है ।  

काबिले तारीफ बात है यह है कि पंजाब के फगवाड़ा शहर से इतनी अच्छी हिंदी की रचना जिसमें दिल्ली और पंजाब की बोली का अहसास भी न हो, जब तक पुस्तक पढ़ी न थी, मुझे सच कहूं तो यकीन नहीं था। क्योंकि मैंने भी तकरीबन चार  वर्ष पंजाब राज्य के शहर होशियारपुर में बिताए हैं अतः वहां की हिंदी के स्तर से बखूबी वाकिफ हूं। हालांकि दिलीप जी की शैली पर कालजयी कवि गजानन माधव “मुक्तिबोध” की शैली की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है किन्तु दिलीप जी की की कृतियों में भाव भिन्नता है, पुस्तक का शीर्षक भी उनकी प्रसिद्ध कृति “अंधेरे मे” से मिलता हुआ होने से कुछ भ्रमित कर गया तथापि इतनी शुद्ध हिंदी के लेखन एवं त्रुटि रहित प्रकाशन हेतु लेखक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।

वर्तमान परिवेश, चहुं ओर व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार एवं राजनीति एवं सफेदपोश दानवों के कृत्यों द्वारा उनका भी मन एक आम आदमी सा व्यथित है एवं उनकी अमूमन प्रत्येक रचना में वह व्यथा एवं कुछ न कर पाने की विवशता स्पष्ट परिलक्षित हो रही है।


ऐसा कोई भी विषय जो उन्हें कहीं न कहीं छू गया अथवा कोई बात जो उन्हें खटक गई वही उनकी रचना में शब्द रूप में अभिव्यक्त हुई है। 

उनकी रचना को  कविता कहना उचित नहीं प्रतीत होता, यह  तो एक आम इंसान के भावों की सुंदर अभिव्यक्ति है जिसे किसी भी प्रकार से विशिष्ट अथवा आकर्षक बनाने का प्रयास नहीं किया गया है। मात्र विचारों के झंझावात को शब्द दिए गए हैं, एवं विशिष्टता यह भी की कहीं भी अपनी भावना अथवा अपने उग्र भाव के लिए किसी भी प्रकार का स्पष्टीकरण नहीं दिखता। 

निश्चय ही शुरुआत की चंद  रचनाओं में कुछ बहुत आकर्षक नहीं मिला किंतु आगे जाकर जब उनके भावों के साथ तालमेल बैठ गया तब उनकी रचनाओं की गहराई तक पहुंच कर उस का आनंद प्राप्त कर सका।

मेरी समीक्षाएं नियमित रूप से पढ़ने वाले मेरे सुधि पाठक मित्र जानते ही हैं की मैं समीक्षा को समग्र रूप में लिखने में विश्वास रखता हूँ न कि किसी विशिष्ट रचना पर केंद्रित । संग्रह की किसी कविता को पुनः यहां लिखना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता अतः यह समीक्षा भी आपको समग्र रूप में ही मिलेगी।

आवश्यक नही कि प्रत्येक पाठक को प्रत्येक रचना प्रभावित ही करे किंतु निश्चय ही अभिव्यक्ति प्रभावशाली है एवं भावों में गांभीर्य के संग संग तार्किकता, एवं गंभीर कटाक्ष भी विद्यमान है। 

व्यवस्था पर रचनाएं बहुतायत में हैं एवं कारण मात्र असंतोष है जो की आने वाले तूफान के संकेत देती है तथा सुप्तप्राय समाज को कहीं न कहीं जागृत भी करती है हालांकि वे कहीं भी यह दावा नहीं करते की वे यह रचनाएं सामाजिक जागरण हेतु लिख रहे हैं ।

दिलीप जी पुस्तक के प्रारंभ में स्वयं लिखते हैं कि अंधेरे में धीमी रोशनी की किरण, एक उम्मीद जगाती हुई अपने मंतव्य की ओर निकल जाती है, सच ही है क्योंकि उनकी अभिव्यक्ति आम आदमी की अभिव्यक्ति है जो एक आस पर जीवित है की शायद कल बेहतर होगा। 

कविता जैसा छंद रूप अथवा तुकांत उनकी किसी भी कृति में देखने को नहीं मिलता एवं सच कहा जाए तो जिस तरह से भावों का बवंडर उमड़ते हुए बाहर आता है उसे किसी तरह बांध पाना संभव नहीं होता तथा बांधने के प्रयास मूल भावना का ही समापन कर देंगे। अपने भावों को तुकांत एवं छंद रूप न देकर उन्होंने अपनी भावनाओं के साथ पूरा पूरा न्याय किया है एवं अपने विचारों को, अपने अंदर की घुटन को शब्द रूप देने में सक्षम हुए है। 

अपने इस संग्रह में अमूमन प्रत्येक उस विषय पर उन्होंने लिखा है जो की आज हर आम इंसान को, संवेदनशील व्यक्ति को उद्वेलित करता है। 80 से अधिक रचनाएं  हैं जो पांडेय जी के भीतर के धधकते गुबार को बहुत ही बेबाक रूप से सामने ले आई हैं।

किसी एक रचना या चंद रचनाओं के विषय में लिख कर अन्य रचनाओं को कमतर आंकना अथवा पाठक का ध्यान विशिष्टतः उनकी ओर आकृष्ट करने की धृष्टता मैं कदापि नहीं कर रहा हूं एवं सदैव की भांति मेरा अपने प्रबुद्ध पाठकों से यही अनुरोध रहेगा की पुस्तक को अद्यतन पढ़ें एवं आनंद लें।

शुभकामनाओं सहित

अतुल्य

 

 

 

 

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