Kashmir Mithak Aur Yatharth By Prakash Chand Jain
कश्मीर : मिथक और यथार्थ
विधा : शोध
द्वारा: डॉ . प्रकाश चंद जैन
मोनिका प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित
प्रथम संस्करण वर्ष : 2022
मूल्य : 650
पुस्तक समीक्षा क्रमांक : 193
समीक्षित पुस्तक कश्मीर : मिथक और यथार्थ कश्मीर के प्रारंभ से लेकर वर्तमान तक के हालत पर एक व्यापक शोध है जिसे डॉ . प्रकाश चंद जैन द्वारा अत्यंत गहन प्रयासों से सम्पूर्ण सन्दर्भों के संग प्रस्तुत किया गया है जो निश्चय ही कश्मीर सम्बंधित विभिन्न मिथकों को तोड़ते भी हैं साथ ही नवीन अथवा कम लोगों तक ही ज्ञात ऐसे तथ्यों को भी सामने लाते हैं जो कश्मीर के सम्बन्ध में हमारे सोचने के नजरिये में व्यापक परिवर्तन करता है.
पुस्तक के माध्यम से हमें कश्मीर के लम्बे इतिहास को विस्तार से जानने का मौका मिलता है .अनेकों ऐसे तथ्य हैं जो सर्वथा अज्ञात ही रहे अथवा जिन्हें तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया यथा नेहरु का कश्मीर समस्या को न सुलझने देना व् सरदार पटेल से इसे अपने हाथ में लेना . पुस्तक इस विषय पर विस्तार से बात करते हुए विभिन्न लेखकों एवं इतिहासकारों द्वारा सृजित तथ्यात्मक विवरण के हवाले से पाठक के समक्ष सत्य को उजागर करती है य कमस्कम सत्य को परीक्षित करने का प्रयास करने हेतु अवसर प्प्रदन करती है. देव वंश के डोगरा शासकों के शासन काल जो कि राजा गुलाब सिंह ( निधन वर्ष 1857) से प्रारंभ होकर महाराजा रणजीत सिंह (निधन वर्ष (1885) व् महाराजा प्रताप सिंह (निधन वर्ष 1925) हरी सिंह से होते हुए कर्ण सिंह ( वर्तमान में कांग्रेस के प्रमुख वरिष्ठ नेता ) के कार्यकाल को दर्शाता है वहीँ कश्मीर का गठन , महाराजाओं के कमजोर फैसलों का कश्मीर समस्या को बढ़ावा देना तथा शेख अब्दुल्लाह कि प्रारंभ में भारत के पक्ष कि किन्तु समय के साथ साथ बदलती नीतियों का भी विस्तृत विवरण मिलता है.
हालाँकि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सदा सर्वदा ही इतिहास के कुछ न कुछ तथ्य विवादास्पद होते ही हैं चूँकि या तो उनके स्पष्ट सबूत उपलब्ध नहीं होते अथवा बाज़ दफा लोक मान्यताएं एवं बहुजन कि राय भी उन्हें प्रभावित करती है वैसे ही इस पुस्तक के विषय में भी कहा जा सकता है कि यह एक महत्वपूर्ण विषय पर विस्तृत शोध है एवं उसके सृजन में विभिन्न लेखकों एवं साहित्यकारों कि पुस्तकों का सन्दर्भ ग्रंथों के रूप में इस्तेमाल किया गया है तथा यथा स्थान तथ्यों को घटनाओं से सम्बध्ह करने का प्रयास फलीभूत भी हुआ है किन्तु कहीं कहीं यह भी प्रतीत होता है कि लेखक का अंशतः झुकाव नेहरु एवं उनकी नीतियों की ओर रहा है अतः समस्त वे बातें जिन्हें दस्तावेजी तथ्यों से परे कहा गया है कितनी निष्पक्ष हैं कहा जाना थोडा मुश्किल हो सकता है.
कश्मीर का इतिहास सबसे अधिक लिखा एवं पढ़ा गया है इसका प्राथमिक कारण संभवतः वहां का विवादस्पद नेतृत्व, मुस्लिम बहुल आबादी पर हिन्दू डोगरा नेतृत्व उनकी विवादास्पद नीतियां एवं भौगोलिक स्थितियां भी रहीं जो आज़ादी के बाद विलय को लेकर और बढ़ गयी यहाँ के इतिहास लेखन का श्रेय 12 वीं सदी के शासक जैसिम्हा के राजकवि कलहण को जाता है जिन्होंने "राजतरंगिणी" नमक ग्रन्थ में इस राज्य का इतिहास लिखने कि शुरुआत करी .
पुस्तक को विभिन्न घटनाओं , कालखंडों एवं राजनैतिक परिदृश्यों के दृष्टिगत विभिन्न अध्यायों में विभाजित किया गया है जो की कश्मीर के प्राचीन इतिहास से प्रारंभ होकर शेख अब्दुल्लाह के बाद का कश्मीर तक बांटा गया है .
पुस्तक को अत्यंत गंभीरता से पढ़ते हुए अनेकों बिन्दुओं पर नज़र ठहरती है उनके विशिष्ट जानकारी देने के कारण अथवा सामान्य उपलब्ध जानकारी से कुछ अलग होने के कारण , ऐसे ही अनेकों बिन्दुओं में से कुछ को पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ जो अवश्य ही कई मायनों में जानकारी वर्धक होगा ऐसा मैं समझता हूँ .
1. कश्मीर का प्राचीन इतिहास : ऋषि कश्यप के काल से शक , कुषाण , हूण , कार्कोता वंश के शासन फिर उत्पल , ब्रम्हीं एवं लोहार राजाओं के शासन का वर्णन मिलता है .
2. मध्यकाल में कश्मीर : राजा हर्ष के पश्चात मुस्लिम शासन का प्रारम्भ पश्चात का वर्णन करता है.
3. कश्मीर में अफगान और सिख शासन : यह काश्मीर कि दृष्टि से एक महत्वपूर्ण काल रहा जिसने उसके स्थायित्व एवं भविष्य पर गहन छाप छोड़ी . जिसमे डॉ . जैन लिखते हैं कि
" मुग़ल साम्राज्य के विखंडन के बाद कश्मीर में कुप्रबंधन और कुशासन लौटा . अफगानी पठानों ने कश्मीर कि जनता पर भयंकर अत्याचार किये. 67 साल तक पठानों नें कश्मीर घाटी पर शासन किया. जिसमें धार्मिक असहिष्णुता अपनाई गयी इसलिए कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन का सिलसिला चला, हिन्दुओं पर जाजिया कर लागू रखा गया. कुल मिलकर अफगानों का शासनकाल कश्मीर में राजनैतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक धार्मिक, और बौद्धिक ह्रास का ही रहा."
"15 जून 1819 को कश्मीर घाटी में पंजाब के सिख शासक रणजीत सिंह के हांथों सिख शासन कि स्थापना हुयी औत अफगानों के 67 वर्षीय क्रूर शासन का अंत हुआ ."
"रणजीत सिंह के लिए कश्मीर को अपने राज्य में मिला लेने के पीछे का कारण कश्मीर के सौन्दर्य से अधिक् वहां से मिल सकने वाले भारी लगान का आकर्षण था. इसके अलावा कश्मीर का सामरिक महत्त्व भी था."
"अफगान शासकों कि भांति सिख शासन में भी कश्मीरी पंडितों का वर्चस्व बना रहा."
"सिख साम्राज्य के अंतर्गत कश्मीर में धार्मिक आधार पर मुस्लिम बहुसंख्यक जनता के साथ पक्षपात किया जाता रहा." "इसके कारन हजारों कि तादात में मुस्लिम घटी के अन्य प्रदेशों में पलायन कर गए."
"सिख शासन काल में शाल व् अन्य कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिलते रहने से उनका विकास होता रहा यद्यपि शासन द्वारा इन पर भरी कर भी लागु किये गए . आर्थिक शोषण (विशेषकर किसानों का) व् लूटमार भी अफगान शासकों कि भांति ही थे."
"दरअसल मुग़ल, अफगान अथवा सिख शासन, सभी के लिए कश्मीर घटी एक शानदार चारागाह ही बनी रही. "
4. कश्मीर में डोगरा शासन: "16 मार्च 1846 को गुलाब सिंह और अंग्रेजों के बीच एक संधि हुयी जिसे अमृतसर संधि कहा गया , जिसमें कश्मीर को पंजाब से अलग कर जम्मू , कश्मीर, गिलगित, बालतिस्तान , पूंछ , लद्दाख का क्षेत्र डोगरा शासक गुलाबं सिंह को परोक्ष शासन के लिए सौंपना एवं उसके बदले में अंग्रेजों को 75 लाख रूपये नगद भुगतान कि शर्त राखी गयी. अंग्रेजों के दिए इस पारितोष के लिए गुलाब सिंह आजीवन अंग्रेजों के स्वामिभक्त बने रहे . इस प्रकार कश्मीर सिखों से डोगरा शासकों के हाथों में आ गया. जिन्होनें 1947 तक कश्मीर पर हुकूमत चलायी." "गुलाब सिंह कोई संत थोड़े ही थे , निःसंदेह वह अवसरवादी थे."
"सर लेपल ग्रिफिक्स ने भी अपनी पुस्तक में टिप्पणी कि है कि - "इतिहास में शायद राजा गुलाब सिंह और ध्यान सिंह से अधिक घ्रणित चरित्र और नहीं होंगे. उनकी शानदार प्रतिभा और उनकी अपनी बहादुरी , उनकी नृशंस क्रूरता , उनकी धन लोलुपता धोखेबाजी और निर्लज्ज महत्वाकांक्षा के समक्ष कुछ भी नहीं है ."
"सन 1857 में गुलाब सिंह कि मृत्यु हुयी उसके उत्तराधिकारी दुसरे डोगरा शासक रणबीर सिंह (1857 - 1885 ) हुए. पश्चात महाराजा प्रताप सिंह का कार्यकाल रहा .
5. कश्मीर का नया अध्याय : शेख अब्दुल्लाह : शेख कि कश्मीर घाटी कि राजनीती में विशेष भूमिका रही एवं डॉ . जैन ने उस दौर कि अमूमन हर उस घटना को प्रमुखता से अपनी पुस्तक में रखा है जो कहीं न कहीं भारत एवं कश्मीर के संबंधों कि दृष्टि से महत्वपूर्ण थी. शेख कि मुख्य भूमिका कश्मीर के भारत में विलय के दौर में देखने में आती है जो प्रारम्भ से एक लम्बे समय तक भारत के पक्ष में रही किन्तु बाद में उनके विदेश दौरे के वख्त चीन के प्रमुख चाऊ इन लायी से मुलाकात के पश्चात वे पाकिस्तान के पक्षधर हो गए जिसमें उनके व्यक्तिगत लालसाएं तथा चीन के सामरिक हित प्रमुखता से देखे जा सकते हैं.
आगे के खण्डों में भी ऐसे ही अत्यंत रोचकता से कश्मीर के विषय में चर्चा है जो इतिहास को तो सामने रखती ही है , निश्चय ही अत्यंत ज्ञानवर्धक है एवं कश्मीर के विषय में कुछ कहने से पहले अथवा किसी चर्चा को छेड़ने से पूर्व इसे पढ़ लिया जाना लाभकारी होगा. एवं मेरे दृष्टिकोण से तो इसे पूर्णतः समझने के लिए आद्योपांत कई बार पढ़ लिया जाना चाहिए.
अतुल्य


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