Gostkhor By Ravindra Kant Tyagi
“गोश्तखोर’ (कहानी संग्रह)
द्वारा : रवींद्र कान्त त्यागी
विधा : कहानी
देवप्रभा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 200.00
प्रथम संस्करण : 2022
समीक्षा क्रमांक : 190
वरिष्ठ साहित्यकार रविन्द्र कान्त त्यागी जी द्वारा सृजित 30 कहानियों का संग्रह है “गोश्तखोर”, जिसकी अधिकतर कहानियाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के परिवेश में लिखी गयी हैं किन्तु सभी के भाव , एवं विषय वस्तु सर्वथा भिन्न हैं. पुस्तक का आमुख, प्रगति गुप्ता जी ने बहुत जतन से, सोच विचार कर, संक्षिप्त एवं सार्थक रूप में प्रस्तुत किया है जो पुस्तक पर निष्पक्ष राय प्रस्तुत करता है.
यह तो विदित है एवं सर्वमान्य भी कि, भले ही वे लेखकों की साहित्यिक कृतियाँ हों, अथवा किसी अन्य विधा के कलाकार द्वारा अपनी विधा के अनुरूप दी गयी प्रस्तुति. सभी कमोबेश अपने अपने माध्यम से समाज की तात्कालिक संरचना, गुण-दोष एवं व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकताओं के संग सामाजिक बदलाव जैसे विषय प्रस्तुत करते हैं अथवा करने का प्रयास तो अवश्य ही करते हैं एवं उनके ये सृजन अथवा प्रस्तुति, अमूमन समाज पर अपना प्रभाव भी अवश्य ही छोड़ते हैं जिसका न्यूनाधिक होना संभव है.
रविन्द्र कान्त जी कि विशिष्टता ही कहेंगे कि क्षेत्र विशेष के परिवेश में रची बसी उनकी कहानियों के पात्र एवं उनके द्वारा दिए गए सन्देश निश्चय ही सामाजिक उत्थान कि दिशा में सक्रीय योगदान देने में मददगार हुए हैं. निश्चय ही इसमें उनके उस क्षेत्र से जुड़े होने तथा उनके निजी तजुर्बे एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. वे स्वयं लम्बे समय तक राजनीति से जुड़े रहे हैं अतः उनके राजनीतिक जीवन से जुड़ता हुआ कहानी “टाट का पैबंद” का कथानक है जहाँ उन्होंने वर्तमान राजनेताओं के एन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज रहने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडो में से एक को दर्शाया है जहां एक गुंडे मवाली का साथ चाहते हुए नेता जी हैं जो उसके जरिए अपना मतलब साधना चाहते हैं भले ही उस मवाली का सगा भाई उस से कोई संबंध न रखता हो न ही रखना चाहता हो किन्तु नेता जी के दबाव के आगे विवश प्रतीत होता है.
दावे के साथ यह तो नहीं कह सकते कि उनकी रचनाओं के कथानक पूर्णतः उनके अनुभवों या तजुर्बात का शाब्दिक रूपांतरण है परन्तु फिर भी उनकी शैली से ऐसा आभास होता है मानो वे सामने घटी हुयी अथवा अपने तजुर्बों का वर्णन कर रहे हों एवं पाठक को कथानक से सहज ही जुड़ने में काफी मदद मिलती है क्यूंकि कहीं न कहीं यह उन्हें अपनी अथवा अपने से जुडी अथवा अपने समाज और परिवेश की ही बात लगती है.
“एक धुंध”, बेशक छोटी सी कहानी है जो अपने सीमित विस्तार में भी पूरे एक लंबे जीवन को समेटे हुए है।
जबकि कहानी “कहर” में करोना की विभीषिका और उस से टूट चुके लोगों के बकाया जीवन गुजारने के लिए किए जाते समझौते की कहानी है.
बात करें संग्रह कि कुछ अन्य कहानियों की, तो बचपन में जरूरत के समय में मित्र द्वारा की गई सहायता, उस वख्त भले ही मित्र का उद्देश्य परोपकार अथवा मित्र कि मदद करना न होकर महज़ अपनी रईसी दिखाना ही रहा हो एवं बेशक उसके संग कुछ अपमान भी झेलना पड़ा हो किंतु कालांतर में सक्षम एवम समृद्ध हो जाने पर सज्जनता से दोस्ती निभाते हुए एवं तात्कालिक सामजिक व्यवस्था कि सुन्दर विवेचना प्रस्तुत करते हुए मित्र द्वारा बचपन में की गई सहायता का बदला चुका कर दोस्ती निभाते हुए सकारात्मक विचारों कि सुंदर मिसाल पेश करता है कुछ ऐसे ही बेमेल किन्तु बेजोड़ से रिश्तों की कहानी है “आंखे के गुलाबी फूल” ।
“टॉयलेट एक प्रेम कथा” एक मजेदार वाक़ए के साथ हर घर शौचालय के शासकीय संदेश को प्रसारित एवं ज़रूरतों को और पुख्ता करती है
त्यागी जी की कहानी की स्त्री पात्र आम तौर पर दबी कुचली निरीह न होकर सबल एवम मुखर है और वे उन विषयों को उठाने से गुरेज नहीं करती जिनमें नारी अपमान अथवा प्रताड़ना हो किन्तु स्थिति विशेष के चित्रण में इस से हट कर भी उनके पात्र दीखते हैं. नारी विमर्श पर केन्द्रित, कहानी ‘आबरू” में आनर किलिंग का मुद्दा कुछ यू उठाया गया है लगता है किसी घटना का जीवंत चित्रण ही है। निश्चित ही यह उनकी कलम की सफलता तो है ही.वहीँ कहानी में ऑनर किलिंग के अलावा भी जिस बात को उठाया गया है वह शायद उतनी प्रमुखता से सुनी ही नहीं जाती की क्या वे सभी निर्दोष थे, उनके हाथ साफ थे जिन्होंने यह फैसला लिया और क्या वे अपने ग़रेबाँ में कभी झांक कर देखेंगे
वहीँ , विदेशी संस्कृति के प्रभाव को दो समवयस्क कैसे भिन्न भिन्न तरीकों में अपनाते हैं यही दर्शाया गया है. और फिर यह आवश्यक तो नही की हर कोई विदेश जाकर वहाँ की संस्कृति में ढले, या अपनी संस्कृति को ही त्यागने को आतुर हो जावे. “क्षितिज से आगे जहाँ और भी हैं” बहुत संकेंद्रित हो कर इस विषय पर चोट करती है। भले ही व्यक्ति दिखावे के लिए आधुनिक बन जाए विदेश में बसने के ख्वाब देखने लगे लेकिन यदि सोच पश्चिमी सभ्यता के अनुकूल नहीं तो यह बीच का रास्ता अपनाने जैसा ही हुआ। भारतीय परंपराएं बुरी पश्चिमी आधुनिकता अच्छी, किंतु पश्चिम की तरह जब पत्नी बराबरी का हक मांगे तब भारतीय सभ्यता का राग ?? यह डबल स्टैंडर्ड बहुत अच्छे से दर्शाया गया है.
वे अपने सृजन कार्य में परिवेश के संग मिलकर अपनी कृति को जो इतना अधिक प्रासंगिक बना कर प्रस्तुत करते हैं वह निश्चय ही सराहनीय है. “तलाब का पानी....” , मजहबी दायरों से ऊपर उठ कर निभाई जाती दोस्ती और फिर भी कहीं न कहीं परिवार के मामले में परंपराओं से बंधी मान्यताओं से समझौते और मजहबी दायरों में घुटते दम तोड़ते अरमानों की कहानी है
उनकी रचनाएं परिवेश, विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में चरमराती हुयी न्याय एवं प्रशासन व्यवस्था, सामाजिक असमान परिस्थितियां एवं कहीं न कहीं सामाजिक व्यवस्था को भीतर ही भीतर खोखला करते विभिन्न प्रकार के घुन के बारे में बहुत ही तार्किक तरीके से उठाते हैं।
कहानी “अबकी बार ले चल पार” में विशेष तौर पर युवतियों की अत्याधिक स्वछंदता किस तरह उन्हें मुश्किलों में डाल कर शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक त्रास झेलने हेतु मजबूर कर देती है और अंत में सिवाय आत्मग्लानी के क्या ही हाथ आता है.
कहानी “मरुस्थल में बरसात’ अपने कथानक एवं क्षेत्रीय भाषा में कहे गए संवादों से प्रभावित करती है वहीँ कहानी “एक धुंध से ....” एक प्रेम कहानी है जो पूरी हुयी या अधूरी रह गयी, कह पाना सहज नहीं होगा तो वहीँ कहानी “सिर्फ तुम या ...” भी प्रेम कथा ही है जो अपने मार्मिक भावपूर्ण कथानक के लिए याद करी जाएगी.
प्रस्तुत कहानी संग्रह कि शीर्षक कहानी "गोश्तखोर" कहानी नहीं एक वैश्या के दर्द का लिखित दस्तावेज़ है जो कुछ ही पन्नों में उसके सारे जीवन की दुर्दशा बयाँ कर जाता है. कहानी जहाँ एक और सामाजिक बुराई को खोल कर सामने रखती है वहीँ वेश्यावृत्ति में फंसी हुयी एक मासूम के मनोभाव एवं उसके दिल का दर्द लेखक ने मानो खोल कर सामने रख दिया है.
उनके पात्र अत्यंत सोच के पश्चात घड़े जाते हैं तथा कथानक के माध्यम से एवं पात्रों के द्वारा उस क्षेत्र विशेष के आम आदमी के जीवन कि परेशानियों एवं मुश्किलात का सजीव वर्णन सामने रख देते हैं. उनकी अधिकांश कहानियाँ कुछ एक नया विषय अथवा मुद्दा सोच के लिए छोड़ जाती है. "प्रतिष्ठा" दर्शाती है कि, अमीरी हो या न भी हो किंतु उसका प्रदर्शन वर्तमान में अधिक महत्वपूर्ण है जो बुरे से बुरे और बड़े से बड़े दुष्कृत्य को भी ढाँप देता है या ढांप देने में सक्षम है।
कहानी "जनक" पिता की पुत्री के प्रति भावनाएं एवं दाम्पत्य संबंधों में गलतफहमी के कारण पड़ी हुई दरार को पिता की डायरी के माध्यम से बहुत ही अच्छे तरीके से लिखा गया है.
कहानी "जहर" का प्रारब्ध तो दोस्ती की मिसाल देने योग्य कथानक से है किंतु मध्य भाग में घटित घटनाएं एवं अंत का विवरण अविश्वसनीय होते हुए भी कहीं न कहीं संदेह उत्पन्न कर देने हेतु पर्याप्त है। जो सामान्यतौर पर जीवन में देखा जा सकता है ।
कहानी “टाइमिंग” मजबूर पिता पुत्र के भावनात्मक संबंधों को बखूबी दर्शाती हैं जहां स्पष्ट होता है कि पिता जो सदैव परिवार की बात होने पर मान के बाद ही याद किया जाता है किंतु यह कौन देखता है कि बच्चे की ख्वाहिश पूरी न हो पिता की रातों की नींद तब तक उड़ी रहती है जब तक बच्चे को उसकी मनपसंद चीज दिलवा न दे ।
इसी संग्रह में संकलित कहानियां ‘कहर” ,’मुक्ता” , “वो फिर नहीं आई’, ‘नयाघरोंदा” और मां भी अच्छी कहानियां हैं जो निश्चय ही अपने कथानक , प्रस्तुति एवं भाव प्रधानता के लिए पढ़ी एवं सराही जाएँगी
एक अत्यंत मनोरंजक, भावनाओं एवं रोमांच से परिपूर्ण तथा बस अपने आस पास की ही कहानी जैसी हैं त्यागी जी के इस संग्रह कि सभी कहानियां जिन्हें पढ़ते हुए सहज ही पाठक उनमें स्वयं को कहीं न कहीं सम्बद्ध पाता है, जो निर्वीवाद रूप से लेखक की लेखन कला एवं शैली की सफलता है.
अतुल्य
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