Gantantra Ke Tote By Dharampal Mahendra Jain
गणतंत्र
के तोते
द्वारा :
धर्मपाल महेंद्र जैन
विधा :
व्यंग्य रचना संग्रह
किताबगंज
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
प्रथम
संस्करण: २०२३
मूल्य :
२५०
धर्मपाल जी की प्रस्तुत पुस्तक “गणतंत्र के तोते” जिसमें 50 के लगभग चुभती हुई व्यंग्य रचनाएं सँजोई गई हैं, और ये सभी रचनाएं वरिष्ठ व्यंग्यलेखक ,व्यंग्यलेखन की एक विशिष्ट शैली के पुरोधा महेंद्र जैन जी, जो अपने व्यंग्य के माध्यम से कहीं भी अव्यवस्था, कुप्रथा एवम सत्ताधीशों के सुकृत्यों एवं सदाचरण (?) को बक्शते नहीं हैं, की चुनिंदा रचनाएं कही जा सकती हैं हालांकि लेखक द्वारा ऐसा कोई दावा प्रस्तुत नहीं किया गया है। इस संग्रह की अमूमन प्रत्येक रचना आकार में बहुत बड़ी तो नहीं है किंतु अपने अपेक्षाकृत संक्षिप्त रूप में भी, घाव करे गंभीर वाली उक्ति को चरितार्थ अवश्य करती है। महेंद्र जी यूं तो अपनी बात खरी खरी कहने में ही यकीन रखते हैं किन्तु फिर भी बहुतेरे व्यंग्य कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना भी हैं।
सर्वप्रथम बात शीर्षक “गणतंत्र के तोते “ की, जो जहां एक ओर ध्यान आकृष्ट करता है वहीं अपनी सार्थकता शीर्षक होने की उपयुक्तता के विषय में भी सोचने को विवश करता है जिसके लिए सहज ही अनिवार्य हो जाता है की पहले इस शीर्षक को समझ लिया जावे साथ ही उस को ही क्यूँ कर इस पुस्तक का शीर्षक चुना गया इस पर कुछ बात की जाए।
यह तो हमारे प्रबुद्ध पाठक वर्ग को विदित ही है कि हमारे गणतंत्र के चार स्तंभ माने गए है, जो कि लोकतंत्र की मजबूती और स्थिरता के लिए आवश्यक हैं। 1. विधायिका - कानून बनाने वाला स्तंभ 2. कार्यपालिका - कानून लागू करने वाला स्तंभ 3. न्यायपालिका - कानून की व्याख्या करने वाला स्तंभ और 4. मीडिया - जनता को जानकारी देने और सरकार की गतिविधियों पर निगरानी रखने वाला स्तंभ। एक स्वस्थ गणतंत्र के संदर्भ में राजनैतिक स्वतंत्रता, संविधान का महत्व न्यायपालिका तथा पत्रकारिता अथवा मीडिया की स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक होते हैं।
बाज
दफ़ा जब मीडिया की जानकारी आमजन की निगाह में विश्वसनीय न होकर शासकीय आंकड़ों का प्रचार
अथवा बखान मात्र होता है उस स्थिति में मीडिया को शासन तंत्र का तोता भी कह दिया जाता
है क्योंकि वह सरकार और समाज की गतिविधियों पर निगरानी रखने के अपने दायित्व से
विमुख हो रहा होता है एवं एक रटंत तोते की भांति शासकीय योजनों इत्यादि का प्रचार
मात्र करने लगता है। इसी से बहुत कुछ मेल खाता शब्द “सरकार की कठपुतलियाँ” आजकल
अत्यधिक सुनने में आ रहा है।
वर्तमान
व्यवस्था के संदर्भ में गणतंत्र के तोते वाक्यांश का प्रयोग सत्ताधीशों
के चाटुकारों एवम उन के कृपा पात्रों, अंधभक्तों
एवं उनके नियंत्रण वाली विभिन्न संस्थाओं के लिए प्रयोग किया जाता है।
यह
बात अवश्य ही काबिले गौर है कि गणतंत्र के तोते की अवधारणा का उपयोग अक्सर
नकारात्मक अर्थ में किया जाता है, लेकिन इसका
अर्थ यह नहीं है कि सभी लोग जो सत्ताधीशों के साथ सहयोग करते हैं वे चाटुकार अथवा अंधभक्त
हैं। गणतंत्र में सहयोग और साझेदारी के संग आलोचना और स्वतंत्रता की भी उतनी ही आवश्यकता
होती है।
महेंद्र
जी की रचनाएं उनके पारखी एवं समालोचक दृष्टिकोण को दर्शाती हैं जिनके द्वारा वे आम
जन का ध्यान सत्ता के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार
न्यायपालिका तथा मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश एवं नागरिकों के अधिकारों में
कटोती जैसे विषयों पर लाते हैं एवं अपनी
असंतुष्टता को व्यक्त करते हुए अपनी कलम के द्वारा सत्ता में बैठे लोगों को
जवाबदेह बनाने का प्रयास करते हैं।
“गणतंत्र
के तोते शीर्षक” की इतनी विस्तृत व्याख्या आवश्यक प्रतीत हुई क्यूंकि बिना शीर्षक
की तह में गए रचनाओं की गहराई एवं गंभीरता का आँकलन करना एवं लेखक की विशिष्ट शैली तथा भाव को समझ
पाना उतना सहज नहीं था। अब जब की हम “गणतंत्र के तोते” की उक्ति के विस्तार से
वाकिफ हो चुके हैं तब यह सहज ही अनुमान हो जाता है की रचनाओं की दिशा क्या होगी।
संग्रह
में हर रचना विशेष गौर से पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि पता ही नहीं है कहां धर्मपाल जी
कोई तीखी गंभीर चोट कर देवें। अपनी विशिष्ट शैली में कुछ पंक्तियां वे इस तरह कह
जाते हैं जो सहज प्रवाह में ही गंभीर चोट
करती है तथा त्वरित रूप से बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं।
वहीं
रचनाओं के शीर्षक पर भी गौर करें तो हमें उस रचना के भाव की स्पष्ट झलक अवश्य ही
मिल जाती है। साथ ही प्रत्येक रचना किसी न किसी विशिष्ट विषय पर केंद्रित है पहली
ही रचना जो पुस्तक की शीर्षक रचना भी है, में वे लिखते हैं की "आम जनता को
कितनी सारी आजादी मिली है। खामोश रहने के लिए सम्मान निधि पाने की आजादी,
गुपचुप कृपा से बैंकों से कर्ज लेकर ऋण
माफी पाने की आजादी श्रम और परिश्रम के बदले बेरोजगार रह कर भत्ता पाने की आजादी,
विधर्मी मिल जाए तो उसे जिंदा जला देने की आजादी मुफ्त में ....
अब
इन्हीं पंक्तियों पर तनिक गहराई से गंभीरता से गौर करें तो उनके तंज एवम व्यवस्था
तथा तात्कालिक रूप से समकालीन घटनाओं पर उनकी पैनी दृष्टि को हम उन के
व्यंग्य में अत्यंत सहजता किंतु चातुर्य से बिना किसी पर भी सीधा
आक्षेप किए हुए समेटा गया पाते हैं जो की निश्चय कही न कहीं व्यंग्यकार के अंदर के
आम आदमी की व्यथा को परिलक्षित करता है ।
व्यंग्यकार
का व्यंग्य, लेखन का एक ऐसा साहित्यिक
रूप है जिसमें समाज में व्याप्त दोषों और कमियों को उजागर करने के लिए
व्यंग्यात्मक और कटाक्षपूर्ण भाषा का उपयोग किया जाता है। व्यंग्यकार आम आदमी की
भावनाओं को समझते हैं और उनकी भावनाओं को कुछ हास्य कुछ आलोचना एवं कुछ चुभन के
साथ व्यक्त करने के लिए व्यंग्य का उपयोग करते हैं।
एक
वरिष्ठ व्यंग्यकार से व्यंग्य लेखन में जो अपेक्षाएं की जानी चाहिए उन सभी पर
महेंद्र जैन खरे उतरते हैं उनकी रचनाओं में कटाक्षपूर्ण भाषा,
आवश्यकता अनुसार व्यंग्यात्मक हास्य जो की सहज आवृति मे उत्तपन्न
हुआ है न की जबरिया प्रविष्ट कराया गया तथा सत्ता,
व्यवस्था एवम समाज में
व्याप्त दोषों तथा कमियों पर खरी खरी आलोचना तथा
प्रतिक्रियाएं।
धर्मपाल
जी के व्यंग्य से आम आदमी को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक मंच मिलता है और
समाज में व्याप्त दोषों के खिलाफ आवाज उठाने का एक तरीका मिलता है। मेरा अर्थ यह
कदापि नहीं है की वे जनजागरण की मशाल ले कर निकले है किंतु यह अवश्य समझा जाना
चाहिए की सत्ता के प्रत्येक खेमे की और समाज की हरेक कमी पर उनकी पैनी नजर बराबर
बनी हुई है। धर्मपाल जी की अमूमन हर रचना कुछ न कुछ विचारण के मुद्दे दे जाती हैं, कहीं बात भ्रष्ट आचरण की है
तो कही व्यवस्था की कमियों की किंतु चंद रचनाएं
जिन्होंने विशिष्ट ध्यान आकृष्ट किया उन में गणतंत्र
के तोते जो सीधे सीधे शब्दों में राजनेताओं तथा उनके पिट्ठुओं पर कटाक्ष है वहीं “मरा उद्योगपति सवा खोके का”
पुलिसिया कार्यप्रणाली को निर्वस्त्र करती है । “जितना दोगे उतना कमाओगे,” भ्रष्टाचार के विषय को खोल कर सामने रहती है वहीं “हम ऐसाइच लिखते,” एक हल्की फुलकी रचना कही जा सकती है जिसमें हैदराबादी लेखन की झलक
दिखलाई गई है। इसी प्रकार “पुस्तक मेले में कस्बाई प्रकाशक,”
“बीती ताहि बिसार मत,” “ जन गण धन अधिनायक, “उन के रचे अंधेरे में”, “कागजी किसानों की बिल्लियां”,
“बाय वन डाय टू”, “लिफाफे के अंदर क्या है”,
“देश जोड़ने की विकलांग कोशिश” आदि भी कुछ अलग ही कलेवर लिए हुए हैं
।
धर्मपाल जी तो व्यंग्यलेखन के क्षेत्र के माहिर एवम मंझे हुए साहित्यकार
हैं तथा उनका यह संग्रह पढ़ना सुखद है एवम स्वस्थ
मनोरंजन प्रदान तो करता ही है साथ ही बहुत कुछ सोचने पर
विवश करता है एवम मेरी दृष्टि में यही उन के लेखन की सफलता है। इस प्रस्तुति हेतु
कोटिशः साधुवाद।
अतुल्य
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें