RAJARSHI BY RAVINDRA NATH TAGORE
राजर्षि
द्वारा
: रवीन्द्र नाथ टैगोर
संपादक
: एम. आई. राजस्वी
विधा
: उपन्यास
मूल
पुस्तक लेखन वर्ष : 1885
फिंगर्
प्रिन्ट द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 175.00
पाठकीय
प्रतिक्रिया क्रमांक : 172
गुरुदेव
रवींद्रनाथ लिखित “राजर्षी” पढ़ने का
सौभाग्य मिला और यह पुस्तक
पढ़ कर पुनः एक बार उनकी लेखन कला पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सका। इसके
पूर्व “गोरा” पढ़ी थी वह कुछ अलग विषय था किंतु यह तकरीबन डेढ़ सौ वर्ष पूर्व भी
कितनी आगे की सोच वे रखते थे यह दर्शाती है ।
पुस्तक
के प्रारंभ में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के साहित्य के विषय में दी गई जानकारी काफी ज्ञानवर्धक
है।
उस जमाने में जब बलि प्रथा बहुत ही सामन्य एवम
प्रचलित प्रथा थी, एवम विशेष तौर पर हिंदी धर्म में मां काली को बलि चढ़ाना अमूमन
संपूर्ण राष्ट्र में ही व्याप्त था
कालांतर में या कहें वर्तमान में भी इस प्रथा को प्रतीकात्मक तौर पर निर्वाह किया
जाता है, तो पुस्तक का प्रारंभ ही उस बलि प्रथा को बंद करने
के राजा के आदेश से होता है हालांकि राजा ने वह आदेश क्योंकर दिया इसकी भी एक छोटी
सी भावुकता एवम वात्सल्य से परिपूर्ण कहानी संग संग चलती है।
राजा
के आदेश के प्रभाव स्वरूप जैसा की कथानक से स्पष्ट हो ही जाता है यदि कोई सर्वाधिक
प्रभावित है ( यहां इसे मैं आदेश से आहत कदापि नहीं कहूंगा ) तो वह है मंदिर का
पंडित,
एवम उसके हाव भाव एवम वार्तालाप से यह भी स्पष्ट हो रहा है की बात मात्र अहम पर आ गई है एवम आगे संपूर्ण
कथानक पुरोहित की कुटिल चालों एवम सामायिक परिवर्तनों
तथा राज शाही में दांव पेंच, घात प्रतिघात आदि के विषय में
है।
कथानक
की सरलता,
सुंदर शब्दों से सज्जित होते हुए भी क्लिष्टता से दूर सहज वाक्यांश गुरुदेव की विशिष्टता है एवम उनके लेखन को पढ़
कर हम कुछ प्राप्त कर सकें यह भले ही संभव न हो किन्तु पढ़ कर एक सुखानुभूति, मानसिक
संतुष्टि तथा आनंद तो मिलता ही है ।
राजर्षि,
की एक और बात का उल्लेख प्रमुखता से करना चाहूंगा की संपूर्ण कथानक में कोई भी महिला पात्र नहीं है
उसके बावजूद कथानक सुंदर सहज सरलता से आगे बढ़ता
है। कथानक से कहीं भी यह जाहिर नही होता की आप किसी इतने पुराने उपन्यास को पढ़
रहे है जो तकरीबन सौ वर्ष पहले लिखा गया था और अपनी अनूठी लेखन कला के द्वारा इतने वर्ष बाद भी कितनी ही
पीढ़ियों की सोच बदल जाने के बावजूद सामायिक प्रतीत होता है।
अंत
महत्वपूर्ण है एवम यहां कहा जा सकता है की ऐसा अंत सिर्फ उस काल में ही संभव था। वर्तमान
में स्वार्थ घमंड और बड़बोलेपन के चलते समर्पण, सत्ता परित्याग, एवम स्वतःअपराध स्वीकारोक्ति एवं अपराध हेतु आत्मग्लानि संभव ही
नहीं प्रतीत होती।
रविन्द्र
नाथ टैगोर साहित्य जितना भी पढ़ सकें पढ़ा जाना चाहिए एवम प्रत्येक कदम पर कुछ न
कुछ नया जानने अथवा सीखने को अवश्य ही मिलेगा ।
अतुल्य
9131948450
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