EK THEE ANEETA BY AMRITA PREETAM
एक थी अनीता 
द्वारा अमृता प्रीतम 
उपन्यास
प्रथम संस्करण : 1989 
हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित 
(आवरण: इमरोज़)
पाठकीय समीक्षा क्रमांक : 
मूल्य : 15.00 ( तत्कालीन )
आम तौर पर पुस्तक का कवर किसने डिजाईन किया है
मैं इस विषय पर नहीं लिखता किन्तु इस पुस्तक के विषय में खास बात यह रही कि यह कवर
इमरोज़ के द्वारा डिजाईन किया गया था, आप कहेंगे कौन इमरोज़
तो बता दूँ , ये   वही
इमरोज़ हैं जो अमृता का प्यार थे जिनके विषय में बहुत पढ़ा सुना गया। उन से सम्बंधित
इंटरनेट पर एक लेख मिला “अमृता प्रीतम और इमरोज़: प्रेम कहानी एक कवियत्री और
चित्रकार की” जो बीबीसी हिंदी पर पहली बार 25.10.2014 को प्रकाशित हुआ था, तो पुस्तक चर्चा के पहले
, जो भी अमृता और इमरोज़ कि सुन्दर प्रेम कहानी जानने के इक्षुक हों, एक बार उस लेख को ज़रूर
पढ़ें, उसके कुछ अंश आपकी पाठन
 यात्रा को रोचक बनाने के लिए यहाँ
प्रस्तुत हैं। 
अमृता और इमरोज़ का सिलसिला धीरे-धीरे ही शुरू हुआ था। अमृता ने एक
चित्रकार सेठी से अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध किया था। सेठी ने कहा कि वो एक ऐसे
व्यक्ति को जानते हैं जो ये काम उनसे बेहतर कर सकता है। सेठी के कहने पर अमृता ने
इमरोज़ को अपने पास बुलाया, उस ज़माने में वो उर्दू पत्रिका शमा में काम किया करते
थे। इमरोज़ ने उनके कहने पर इस किताब का डिज़ाइन तैयार किया । इमरोज़ ने कहा कि, "उन्हें डिज़ाइन भी पसंद आ गया
और आर्टिस्ट भी। उसके बाद मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया।  हम दोनों पास ही रहते थे। मैं साउथ पटेल नगर में
और वो वेस्ट पटेल नगर में."
इमरोज़ बताते हैं कि एक दफे बातों-बातों में मैंने कह दिया कि मैं
आज के दिन पैदा हुआ था। गांवों में लोग पैदा तो होते हैं लेकिन उनके जन्मदिन नहीं
होते। वो एक मिनट के लिए उठीं, बाहर गईं और फिर आकर वापस बैठ गईं। थोड़ी देर में एक नौकर प्लेट
में केक रखकर बाहर चला गया। उन्होंने केक काट कर एक टुकड़ा मुझे दिया और एक ख़ुद
लिया। ना उन्होंने हैपी बर्थडे कहा ना ही मैंने केक खाकर शुक्रिया कहा। बस
एक-दूसरे को देखते रहे। आँखों से ज़रूर लग रहा था कि हम दोनों खुश हैं."
ये तो एक शुरुआत भर थी लेकिन इससे बरसों पहले अमृता के ज़हन में एक
काल्पनिक प्रेमी मौजूद था और उसे उन्होंने राजन नाम भी दिया था। अमृता ने इसी नाम
को अपनी ज़िंदगी की पहली नज़्म का विषय बनाया.
दुनिया में हर आशिक़ की तमन्ना होती है कि वो अपने इश्क़ का इज़हार
करें लेकिन अमृता और इमरोज़ इस मामले में अनूठे थे कि उन्होंने कभी भी एक दूसरे से
नहीं कहा कि वो एक-दूसरे से प्यार करते हैं.
इमरोज़ बताते हैं, "जब प्यार है तो बोलने की क्या ज़रूरत है? फ़िल्मों में भी आप उठने-बैठने के तरीक़े से बता सकते हैं कि
हीरो-हीरोइन एक दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन वो फिर भी बार-बार कहते हैं कि वो
एक-दूसरे से प्यार करते हैं और ये भी कहते हैं कि वो सच्चा प्यार करते हैं जैसे कि
प्यार भी कभी झूठा होता है." परंपरा ये है कि आदमी-औरत एक ही कमरे में रहते
हैं। हम पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहते रहे। 
वो रात के समय लिखती थीं। जब ना कोई आवाज़ होती हो ना टेलीफ़ोन की
घंटी बजती हो और ना कोई आता-जाता हो। उस समय मैं सो रहा होता था। उनको लिखते समय
चाय चाहिए होती थी। वो ख़ुद तो उठकर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं। इसलिए मैंने रात
के एक बजे उठना शुरू कर दिया। मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता। वो लिखने
में इतनी खोई हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं। ये सिलसिला चालीस-पचास
सालों तक चला.
उमा त्रिलोक, इमरोज़ और अमृता दोनों की नज़दीकी दोस्त रही हैं और
उन पर उन्होंने एक किताब भी लिखी है- 'अमृता एंड इमरोज़- ए लव स्टोरी.' उमा कहती हैं कि अमृता और इमरोज़ की लव-रिलेशनशिप तो रही है लेकिन
इसमें आज़ादी बहुत है। बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे
एक ही घर में और जब इसका ज़िक्र होता था तो इमरोज़ कहा करते थे कि एक-दूसरे की
ख़ुशबू तो आती है। ऐसा जोड़ा मैंने बहुत कम देखा है कि एक दूसरे पर इतनी निर्भरता
है लेकिन कोई दावा नहीं है.
वर्ष 1958 में जब इमरोज़ को मुंबई में नौकरी मिली तो अमृता को दिल ही दिल
अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि साहिर लुधियानवी की तरह इमरोज़ भी उनसे अलग हो
जाएंगे। इमरोज़ बताते हैं कि मैं बहुत ख़ुश हुआ। दिल्ली में अमृता ही अकेले थीं
जिनसे मैं अपनी ख़ुशी शेयर कर सकता था। मुझे ख़ुश देख कर वो ख़ुश तो हुईं लेकिन
फिर उनकी आंखों में आंसू आ गए.
उन्होंने थोड़ा घुमा-फिराकर जताया कि वो मुझे मिस करेंगी, लेकिन कहा कुछ नहीं। मेरे जाने में अभी तीन दिन बाक़ी थे। उन्होंने
कहा कि ये तीन दिन जैसे मेरी ज़िंदगी के आख़िरी दिन हों। तीन दिन हम दोनों जहाँ भी
उनका जी चाहता, जाकर बैठते। फिर मैं मुंबई चला गया। मेरे जाते ही अमृता को बुख़ार
आ गया। तय तो मैंने यहीं कर लिया था कि मैं वहाँ नौकरी नहीं करूँगा। दूसरे दिन ही
मैंने फ़ोन किया कि मैं वापस आ रहा हूँ.
उन्होंने पूछा सब कुछ ठीक है ना। मैंने कहा कि सब कुछ ठीक है लेकिन
मैं इस शहर में नहीं रह सकता। मैंने तब भी उन्हें नहीं बताया कि मैं उनके लिए वापस
आ रहा हूँ। मैंने उन्हें अपनी ट्रेन और कोच नंबर बता दिया था। जब मैं दिल्ली
पहुंचा वो मेरे कोच के बाहर खड़ी थीं और मुझे देखते ही उनका बुख़ार उतर गया। 
तो ये तो कुछ बातें हुयी अमृता जी के प्यार के बारे में अब वापस
अपनी पुस्तक की ओर रुख करें  
सब जानते ही हैं कि अमृता प्रीतम पंजाबी के सबसे
लोकप्रिय लेखकों में से एक थी, जन्म 1919 में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। उनका बचपन
लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से उन्होंने लिखना शुरू किया।
उन्होंने सौ से अधिक कविताओं की किताब लिखी, साथ ही फिक्शन, बायोग्राफी, आलेख और आत्मकथा लिखकर
साहित्य में नया मुकाम हासिल किया। कुछ अलग सा पढ़ने की चाह हो या फिर  रोज़ नए मायने तलाशते, रोज़ नए आयाम ढ़ूढ़ते, आपने आप में खोए, अपने आप को
तलाशते..किसी लेखक की बात हो तो अमृता प्रीतम का नाम सर्वोपरि होगा। उनका लेखन एक
अलग ही सोच पर आधारित लगता है जैसे ये पंक्तियाँ देखें जो कभी अमृता प्रीतम ने कहीं लिखी थीं
कि, "मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती
और लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं."
अनीता “एक थी अनीता” उपन्यास की नायिका है और अपने इस उपन्यास के
बारे में अमृता प्रीतम ने स्वयं लिखा है कि सुना है कि उम्र के कागज पर इश्क ने
दस्तखत किए हैं और टहनियों के घर में कुछ फूल मेहमान हुए हैं। प्रेम की परिभाषा
में डूबी इस उपन्यास की कहानी शाश्वत प्रेम का अहसास हरेक पाठक को कराती है। पुस्तक
से गुजरते हुए कुछ ऐसा महसूस होता है मानो उनकी आत्म कथा हो । अनीता, उसका पति, उसका बेटा, उसका ख्वाब उसका प्यार सागर और फिर इकबाल, कहानी इन्हीं के इर्द -गिर्द चलती है। 
यदि बहुत कम शब्दों में इस पुस्तक के विषय में
कहा जाये तो बस यही कि एक एक अद्भुत प्यार कि अनोखी कहानी है जिसमें न तो
अपेक्षाएं हैं न ही चाहतें यहाँ तक कि नायिका स्वयं अपने प्यार को शब्द या नाम
देने में सक्षम नहीं है। अब इस से ज्यादा अनूठे प्यार कि मिसाल क्या ही दी जा सकती
है। अमृता जी के वाक्यांश भावों और भावनाओं से लबरेज़ होते हैं। इस अद्भुत प्रेम  कथा में जहां प्रेम प्रेमी प्रेमिका, उनके मित्र  उनके पति या संभावित पत्नी सभी एक विशेष समर्पण
के भाव में डूबे हुए प्रतीत होते हैं नायिका अनीता प्रारंभ में तो समझ ही नही पाती
की वह प्रेम में है जब उसके भीतर का द्वन्द बढ़ता चला जाता है तब ही वह समझ पाती है
इस द्वन्द को। अनीता के इस द्वन्द को अमृता जी ने अनीता के दो रूप दर्शा कर अत्यंत
स्पष्टता से निखार  कर प्रस्तुत कर दिया है।
वही उसके प्रेमी का दूसरे शहर चले जाना एवं बाद में  मिलने पर भी अनीता के कुछ भावों तथा कृत्य को अन्यथा
सा ले कर सदा के लिए विलग हो जाना कहानी का पूर्वार्ध कहा जा सकता है। अनीता के
जीवन में एक अन्य युवक का प्रवेश जिसमें उसे अपने पहले प्यार कि छवि सदा नज़र आती
रही उस से भी बिछड़ना और वह  बिछुड़ना भी कितना
सहज है की पाठक चमत्कृत हो उठता है साथ ही प्यार कि गंभीरता एवं शालीनता को सराहे
बगैर नहीं रह पाता। 
अनीता द्वारा अपने पति को भी छोड़ दिया जाना
अपने प्रेम के लिए, किंतु वह कभी भी पति को अथवा उसके प्रेम को आरोपित नही करती
सदा वह स्वयं को दोषी मानती है जबकि उसका पति तो सदा उस के एवम उस के प्रेम के बीच
स्वयं को अवांक्षित ही समझता है तथा यथा संभव सहयोग ही करता है। उनका एक पुत्र भी
है जिसे अपने सम्पूर्ण जीवन सफर में एक रूहानी स्तर की प्रेम कहानियां बनाते हुए
वह सदा से अपना सब मानती है उसमें सदा ही उसे अपना पहला प्रेमी नज़र आता है । कहानी
का अंत इस बिंदु पर है जहां पाठक हतप्रभ है, प्रेमियों का मिलन अथवा
जुदाई अथवा कुछ और, यह जानना अत्यंत रोचक
है । अमृता जी को पढ़ना एक लत के समान है आप पढ़ते जाना चाहते हैं उनके भाव और
उनकी लेखन किसी लहर के समान आपको अलग ही लोक में रखते हैं।  एक भिन्न अनुभव है। प्रेम की इतनी भिन्न और इतनी
भावनात्मक अभिव्यक्ति मात्र अमृता जी ही कर सकती है । हम जैसे पाठक तो मात्र उनके
लेखन को सदर नमन ही कर सकते हैं.
यदि यह भावनात्मक प्रेम कहानी अभी तलक नहीं पढ़ी
है तो ज़रूर पढ़ें साथ ही अमृता जी की अन्य पुस्तकें भी। 
अतुल्य
9131948450  


 
 
 
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