Thaluaa Chintan By Ram Nagina Mourya
ठलुआ
चिंतन
द्वारा :
राम नगीना मौर्य
विधा :
कथा संग्रह (व्यंग्य)
रश्मि
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
प्रथम
संग्रह 2024
मूल्य :
300.00
बात हिन्दी साहित्य में स्वस्थ व्यंग्य लेखन की
हो तो मौर्य जी का नाम स्वतः ही जुबान पर आ
जाता है। विभिन्न प्रकाशित पुस्तकों की अच्छी खासी संख्या के अलावा भी समय समय पर
उनकी रचनाएं भारतवर्ष के अमूमन हर प्रतिष्ठित पत्र पत्रिका में प्रकाशित होती रहती
है।
वे रचनाएं जो पुस्तक
रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं उनके अलावा भी मौर्य जी के पास रचनाओं का विशाल
भंडार है, तात्पर्य यह की साहित्य सृजन हेतु उनकी प्रतिबद्धता अद्वितीय है एवं सुधि
पाठकों को और भी बहुमूल्य साहित्य का रसास्वादन करने के अवसर भविष्य में भी निरंतर
मिलते रहेंगे। उनकी रचनाओं में भाषा भाव सहज सरल प्रवाह में रहता
है एवं वे पाठक को सहज ही कथावस्तु से जोड़
कर मौके पर उपस्थित होने का एहसास करवा
देते हैं। स्थान, पात्र एवं अवसर के मुताबिक ही शब्द प्रयुक्त होते
हैं, साथ ही वे अपनी रचना में आवश्यकतानुसार
क्षेत्रीय भाषा के बहुप्रचलित शब्द, वाक्य,
मुहावरे भी प्रयुक्त करते चलते हैं और प्रसिद्ध गानों की भी एक दो पंक्तियाँ कहानी
में रखना उनकी शैली की विशेषता कही जा सकती है। उनकी कहानियाँ किसी विशिष्ट विषय
पर सोच कर सृजित रचना न होकर वास्तव में उनके सूक्ष्म अवलोकन का ही परिणाम होती हैं
एवं यही कारण होता है की उनके विषय हमेशा आम लीक से हटकर जन सामान्य के बीच के
होते हैं, आम जन के दु:ख दर्द उनकी परेशानियाँ
उनके जीवन के खट्टे मीठे प्रसंग हल्के फुल्के अंदाज में और कुछ चुटीले अंदाज में पेश
कर देते हैं।
प्रस्तुत कहानी संग्रह में राम नगीना मौर्य जी द्वारा रचित वे कहानियां संगृहीत की गयी हैं जो उनकी नजर में बस एक
निठल्ले दिमाग की उपज ही हो सकती है तब ही तो उन्होंने पुस्तक का शीर्षक भी दिया है “ठलुआ
चिंतन”, जिसमें उनकी शैली की विशिष्टता के अनुसार कहानियाँ किसी विशिष्ठ विषय पर केन्द्रित नहीं
हैं।
मौर्य
जी अपनी ही शैली में लिखते हुए हर छोटी छोटी बात पर भी अपनी नजर बनाए रखते हुए
पाठक को अंत तक बांधे रखने में सदैव ही सक्षम हुए हैं और वही उनके इस नवीनतम
संग्रह “ठलआ चिंतन” की इस पहली रचना “हाई लेवल मीटिंग” में भी देखने को मिला। बड़े
स्तर की शासकीय मीटिंग्स के अंदर की गतिविधियां पढ़ कर लगा मानो कोई भुक्तभोगी
अपनी व्यथा बयान कर रहा हो। उनके कुछ चुनिंदा प्रिय शब्द इस कहानी संग्रह में भी
पढ़ने मिल जाते हैं जैसे आढ़ोंलन बिलोढ़न, लंतरानियां, अलबछेड़ा.वहीं चंद अपरिचित शब्द देखने में आए जो की
संभवतः क्षेत्रीय तो नहीं हैं अतः क्लिष्ट
जान पड़े बाकी तो मौर्य जी की विशिष्ट शैली में लिखी गई हल्की फुल्की मनोरंजक रचना
है।
कहानी
“ग्लोब” में ग्लोब के जरिए पुरानी और नई पीढ़ी की मानसिकता का परिवर्तन या अंतर दर्शाते
हुए वे पाठक को वापस बचपन में ले जाते है। आज की इंटरनेट की सभ्यता में तेजी से
आगे जाती हुई पीढ़ी,
पुरानी पीढ़ी की बातों, समझाइशों, और अनुभवों को अपने लिए अनुपयोगी
तो समझती ही है, पुरानी
पीढ़ी को यह एहसास भी बखूबी करवा देती है की उनका समय निकल गया है
और अब समय के साथ चलते हुए उन्हें आधुनिक तौर तरीके एवं तकनीक सीख लेना चाहिए।
कहानी
में हास्य तो खैर नहीं ही था और जो व्यंग्य भी किया गया वह भी किस पर यह समझना दुष्कर है। क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग से इतर कुछ शब्द इस्तेमाल हुए
हैं जिनका अर्थ ढूंढना सामान्य पाठक हेतु थोड़ा मुश्किल हो सकता है।
इसी
क्रम में आगे चलते हुए कहानी "छुट्टी का सदुपयोग" अमूमन हर नौकरी पेशा
के जीवन की हकीकत बयां करती है। बात चाहे
घर की हो या कार्यालय की, जिस अंदाज में पेश की है वह अत्यंत करीबी सी लगती है और
सहज ही कथानक से संबद्ध करती है। अपनी शैली को दोहराते हुए कुछ गीतों की पंक्तियां
जोड़ कर उस के जरिए कथानक में रोचकता का समावेश कर जाना उन्हें
विशिष्ट बनाता है ।
जिन्होंने
पूर्व में मौर्य जी की रचनाओं को पढ़ा है, वे जानते ही हैं की उन्हें लेखन हेतु
किसी विशिष्ट विषय की दरकार नहीं होती वे किसी भी आम,
रोजमर्रा के जीवन की उपयोगी अनुपयोगी वस्तु व्यक्ति अथवा विषय को या
फिर किसी भी सामान्य-असामान्य बात,विषय अथवा घटना को अपने कथानक का विषय बन देते हैं,
और तब उसका इतना रोचक बयान होता है की पाठक सहज ही बस यही सोचता रह जाता है की उस
विषय पर क्या यह भी सोचा एवं लिखा जा सकता है उसने तो कभी उस दृष्टिकोण से देखा
अथवा सोचा ही नहीं, तो ऐसा ही विषय है सड़क पर एक बड़ा सा
गड्ढा जो की उन की कहानी की मूल विषय वस्तु है। कहानी "गड्ढा" जिसमें आप हर पल इंतजार करते हैं की अब आगे वे क्या कहेंगे कथानक का क्या
नया मोड़ होगा, रोचकता व रचनात्मकता अत्यंत खूबसूरती से
देखने मिलती है।
उचित
स्थान
पर लोकोक्तियों, चौपाइयों तथा कहावतों का प्रयोग अक्सर हास्य उत्तपन्न करता है साथ ही अंग्रेजी शब्दों का, एवम क्षेत्रीय भाषा के वाक्य वह भी खास उसी अंदाज में जैसे की इस क्षेत्र
के व्यक्ति द्वारा उच्चारित किए जाते हैं उनकी प्रस्तुति को विशेष बना देते हैं
"में इधर जाऊं या उधर जाऊं" यूं तो एक लेखक द्वारा अपनी रचना हेतु
उचित शीर्षक की तलाश के दौर में प्राप्त एवं विचारित अनेकानेक सुझाव हैं किंतु
कहीं न कहीं इस के द्वारा मौर्य जी ने नए ही क्यों पुराने लेखकों को भी बहुत से
उपयोगी संदेश दे डाले हैं, हास्य का हल्का फुल्का पुट उनके कहान
में साथ ही बन जाता है।
“फैशन
के इस दौर में”, के द्वारा पुनः एक बार मौर्य
जी ने अपनी शैली एवं विषय के चयन से प्रभावित किया। रास्ते में गाड़ी खराब हो जाने
से उत्तपन्न स्थितियों का अच्छा चित्रण है हालांकि मौर्य जी के लेखन में यदि
हास्य अथवा व्यंग्य न हो तो उसकी अनुपस्थिति खलती अवश्य है ।
“उसकी
तैयारियां” में सहज वार्तालाप में क्षेत्रीय भाषाई शैली पर पूरी पकड़ के साथ,
वाक्यों के सामान्य प्रवाह को छेड़े बगैर, एवं बिना किसी अतिरिक्त बाह्य प्रयास के हास्य के
क्षण बनते रहे हैं जहां बहुतेरे दृश्य अपने इर्दगिर्द के ही प्रतीत होते हैं। सामान्य तौर पर ये किस्से अमूमन हर घर में
सुनने को मिलते ही हैं एवम कह सकते हैं पत्नी को केंद्र में रख कर जो दंपत्ति उवाच
प्रस्तुत किया है वह यूं तो सार्वभौम विधि अनुसार एक पक्षीय ही है किन्तु बेहतरीन
अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। मौर्य जी की ओर से स्वस्थ मनोरंजन की एक और मिसाल
।
कहानी
“हस्बेमामूल”, के जरिए उन्होंने यह बात सामने रखी की रोजमर्रा के जीवन में बहुत सी बाते इतनी
सामान्य होती हैं जिनका हम आम तौर पर या तो नोटिस लेते ही नहीं और यदि नजर में आ
भी जाए तो उन पर विशेष गौर नहीं किया जाता। ठीक इसी प्रकार सभी कहीं न कहीं एवं
कभी न कभी यात्रा तो करते हैं पर यात्रा के दौरान लेखक जैसी सूक्ष्मता से चीजों को
देखना सब के लिए कहाँ संभव होता है। तो बस ऐसे ही एक सफर के दौरान इसे ही विषय बना
कर रचना गढ़ दी है मौर्य जी ने। कहानी रेल सफर के दौरान यात्रियों के व्यवहार,
कुछ प्रकट कुछ भासित, एवं सफर के चलते बनते
विभिन्न दृश्य स्थितियां, जो यूं तो बेहद
सामान्य ही प्रतीत होती है किन्तु बस तब तक ही, जब तक कि उसे
मौर्य जी की नजर से न देखें। घर में वेस्टर्न कमोड की आवश्यकता एवम फिर जुगाड को
लेकर रचित “ऑफ स्प्रिंग्स “ भी अपनी केंद्रीय विषयवस्तु अर्थात कमोड को लेकर उन्हें
अवश्य चौंका सकती है जो मौर्य जी के विषय की खोज के तौर तरीकों से
वाकिफ नहीं हैं क्यूंकि उन्होंने फिर एक बार उस वस्तु को
कथानक का केन्द्रीय विषय बना लिया है जिस के विषय में कोई शायद ही सोचे किंतु
उन्हें एवं उनकी शैली को जानने वाले बखूबी जानते ही हैं की वे विषय की तलाश नहीं
करते सामान्य जन जीवन की ही किसी बात अथवा वस्तु उनके कथानक बन जाते हैं साथ ही यह
भी की कथानक की तलाश वे नहीं करते वरन सामान्य परिवेश में दैनंदिन के उपयोग में
सहज उपलब्ध कोई विषय अथवा वस्तु या फिर घटना या पात्र
पर संपूर्ण रचना सृजित हो जाती है।
इसी
संग्रह कि ठलुआई चिंतन से भरपूर रचनाएं हैं “गुरु मंत्र” और “मच्छर माहत्म्य”, जिन्हे पढ़कर
निश्चय ही सम्पूर्ण ठलुआयी विचार युक्त इन रचनाओं पर लेखक को बधाई देना तो बनता ही
है ।“गुरुमंत्र” तो चलिए फिर भी किसी
कामचोर शासकीय कर्मचारी की कार्य शैली पर कटाक्ष है किंतु “मच्छर महात्म्य” तो
निरे कल्पनातीत विषय पर एक विलक्षण सी सोच का अच्छा प्रस्तुतिकरण है। हास्य
व्यंग्य भले ही ठहाके लगाने हेतु न हो किंतु मौर्य जी का विषय वर्णन ही आपको उनकी
रचना संग बांध के रखता है। असंबद्ध से विषय कैसे जुड़ जाते हैं और उनमें भी कैसे
वे वह देख पाते हैं जो एक आम पाठक को तो कभी नजर आता ही नहीं।
वहीं,
“दिमागी कसरत” हमें इस मुद्दे पर ले जाती लगती है की यदा
कदा हमें कुछेक पुरानी यादों को ताजा करते ख्यालों की भूली बिसरी
गलियों में विचरण करने का अवसर लेते हुए हुए दिमाग
को कुछ नई खुराक दे देना चाहिए। अब जब सम्पूर्ण पुस्तक ही ठलुआ
चिंतन है तो बहुत अधिक तार्किकता अथवा विषयवस्तु में कुछ अद्भुत को तलाशना निश्चय
ही दुष्कर है, किंतु जो प्रस्तुत किया गया है वह अपने आप में विशिष्ट एवं अद्भुत
है जो की बिना किसी विषय विशेष के आपको विभिन्न अद्भुत
रहस्यों से परिचित करवा देते हैं जो की आम सोच से परे होते हैं।
तत्पश्चात
कहानी "नई रैक" पढ़ यूं प्रतीत होता है मानो एक लेखक की आपबीती कागज पर
उतार दी
है। अमूमन हर लेखक अपने घर वालों से कुछ ऐसा ही रिस्पॉन्स पाता है और
फिर भी उस सब के बीच भी उसे अपनी सृजनात्मकता को जीवित रखते हुए सृजन कर्म को
अंजाम देना वाकई एक कठिन कार्य तो है ही। अपनी पुस्तक पत्रिकाओं को समेटने सहेजने
हेतु एक अदद रैक का इंतजाम करने हेतु कितनी मुश्किलात दर पेश आती हैं यह पढ़ना
मानो अपनी आपबीती को लिपिबद्धह देखने जैसा था। अंततः पुस्तक की शीर्षक कहानी "ठलुआ चिंतन
" यथा नाम तथा दर्शन को चरितार्थ करती हुई, कह सकते हैं की पूर्णतः खाली समय
का सदुपयोग वो भी नितांत ठलुए अंदाज में कैसे हो यह दर्शाती है। विभिन्न विषयों पर
आम जन के वार्तालाप को संयोजित व अपने हितानुसार समायोजित करती चलती है।
पुस्तक
के अंत में मौर्य जी की विभिन्न कृतियों पर चुनिंदा वरिष्ठ समीक्षकों की टिप्पणियां भी दी गई है जो निश्चय ही पाठकों के समक्ष उनकी अन्य पुस्तकों के विषय में संपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत कर देते हैं
तथा उनके नए पाठको को उनके द्वारा रचित अन्य पुस्तकों के इच्छानुसार चयन में मददगार साबित होते हैं ।
अपनी
विशिष्ट शैली में मौर्य जी ने एक बेहतरीन कृति प्रस्तुत की है जो की निश्चय ही
पठनीय है।
अतुल्य
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