KAYA SPARSH BY DRONE VIR KOHLI
काया
स्पर्श
द्वारा :
द्रोणवीर कोहली
विधा :
उपन्यास
प्रथम
संस्करण :2012
ज्ञान
विज्ञान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 395
पाठकीय प्रतिक्रिया क्रमांक : 165
अपने समय
के जाने माने साहित्यकार स्मृतिशेष द्रोणवीर कोहली जी के प्रस्तुत उपन्यास “काया स्पर्श”
को पढ़ना निश्चय ही एक आनंददाई अनुभव है । यह उपन्यास एक ऐसी समस्या उठता है जो हम आम तौर पर समाज में देखते है या कहूँ
की देखते हुए भी अनदेखी कर जाते हैं वह है
समृद्ध, तथाकथित आधुनिक परिवारों के पश्चिमी परिवेश में रंगे, तीव्र गति से समाज में
शोहरत और पैसा कमाने की धुन में घर परिवार को अनदेखा कर बस स्पर्धा की दौड़ में भागते माता पिता
। परिणाम - भौतिक सुख सुविधाओं के बावजूद स्नेह, माँ बाप का प्यार, मार्ग दर्शन और
पारिवारिक सौहार्द का माहौल न मिलना, जो उन्हें
बच्चों से दूर तथा बच्चों को एकाकी और मनोरोगी बना देता है अथवा वे अपने पथ से भटक कर विभिन्न बुराइयों
से ग्रसित हो जाते हैं। ऐसे परिवारों में माँ
बाप के पास अकूत संपत्ति तो होती है किन्तु बच्चों के लियरे सबसे अमूल्य संपत्ति माँ
बाप का समय नहीं होता जो परिवारों के नाश का कारण बनता है।
कोहली जी ने अपने तजुर्बे और समाज में बहुत कुछ देख कर इस समस्या का अत्यंत बारीकी से अध्ययन किया है तथा ऐसे मनोरोगियों के बोल चाल व्यवहार को भी बखूबी समझा है और उनका अत्यंत सटीक प्रस्तुतीकरण भी किया है । उनका पात्रों के विषय में लेख एक लेखक की सुंदर प्रस्तुति है न की किसी मनोचिकित्सक का आकलन यह गौर करने वाली बात है।
तो अब बात
शुरू करते हैं द्रोणवीर कोहली जी की मनोविज्ञान केंद्रित अद्भुत रचना "काया स्पर्श" की जिसे एक उपन्यास से अधिक
एक मनोवैज्ञानिक केस स्टडी कह सकते हैं । पारिवारिक माहौल किस प्रकार एक स्वस्थ
खिलंदड़े युवक को लगभग पागलपन की अवस्था तक पहुंचा देता है और कैसे उस की हालत में
सुधार आता है । अलग अलग कई स्थितियां प्रस्तुत की गई है एवम समग्र रूप से देखें तो
अत्यंत रोचक प्रस्तुति है और कोहली जी रोमांच निरंतर
बनाए रखने में कामयाब रहे । पुस्तक की सबसे खास बात
उसका घटनाक्रम है जो जिस लय में प्रस्तुत होता है वह बांधे रखता है वहीं पुस्तक के
अंत में मनोचिकित्सक डॉ. नीरजा का विश्लेषण अथवा विचार कहना अधिक उपयुक्त होगा दिए
हैं जो पुस्तक पढ़ने के दौरान पाठक के मन में उठते हुए
अनेकों सवालों के जवाब और उनके तर्क देता है तथा निश्चय ही पुस्तक के प्रमुख पात्रों को
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने में काफी मददगार साबित हुआ है। कोहली जी ने डॉ. नीरजा के विचारों
को पुस्तक में महत्वपूर्ण स्थान देते हुए उसे पुस्तक के अंत में अनुबोध शीर्षक से सम्मिलित
किया है।
पुस्तक
एक
मनोचिकित्सक युवती एवम एक मनोरोगी युवक के विषय में है जिसकी
तीमारदारी के दौरान युवती विभिन्न घटनाओं से एवम परिवार के भिन्न भिन्न सदस्यों के
उन व्यवहारों से परिचित होती जाती है जो कहीं न कहीं उस युवक का मनोविज्ञान समझने
में सहायक होते प्रतीत होते हैं । प्रतीत होते हैं कहने से इस लिए विवश हूं
क्योंकि इतने सब के बावजूद भी क्या युवती चिकित्सक उसके मन को पढ़ पाने में वास्तव
में कामयाब होती
है या उसकी बीमारी को समझ पाती है।
पुस्तक का
अंत थोड़ा चौंकाता है आप भी पढ़ कर देखें एवम अंत में लेखक से सहमत हैं अथवा डॉ. नीरजा से , पढ़
कर स्वयं ही अपना भी दृष्टिकोण बनाएं।
आम
विषयों से थोड़ा सा अलग हटकर एक ऐसा कथानक है जिसमें पाठक का सहमत होना असहमत होना
,
कुछ भी हो सकता है।
अतुल्य
9131948450
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