KUCHH ISHQ KIYA KUCHH KAAM KIYA BY PIYUSH MISHRA

 

कुछ इश्क किया कुछ काम किया

विधा : कविता संग्रह

द्वारा : पीयूष मिश्रा

राजकमल पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित

नौवाँ संस्करण : 2020

मूल्य : 150.00

पाठकीय प्रतिक्रिया क्रमांक : 159

  

 फ़ैज़ अहम फ़ैज़ एक मशहूर गजलकार , जिनके बिना उर्दू के नामचीन साहित्यकारों की फेहरिस्त अधूरी ही रह जाए तो उन्हीं फ़ैज़ साहब की कुछ बेहद मशहूर नज़मों ,जैसे, “बोल के लब आजाद हैं तेरे”, या फिर “मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग” और भी अनेकों बेहतरीन में से एक है  "कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया"। यह नज़्म कुछ ऐसी खास  लगी कि  जब पीयूष मिश्रा की इसी शीर्षक से पुस्तक दिखी तो सहज ही ले ली गई । पहले आप इस खूबसूरत नज़्म से गुजर जाएं जिसमें फ़ैज़ साहब ने जीवन की अनिश्चताओं की , प्यार मोहब्बत की भावनाओं की बात की है, फिर बात करेंगे पीयूष जी की, उनकी पुस्तक की उनकी कविताओं की , लीजिए गौर फरमाएं  :

वह लोग बहुत खुशकिस्मत थे/ जो इश्क़ को काम समझते थे

या काम से आशिकी करते थे/ हम जीते जी मसरूफ रहे

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया/काम इश्क़ के आड़े आता रहा

और इश्क़ से काम उलझता रहा/फिर आखिर तंग आकर हमने

दोनों को अधूरा छोड़ दिया/मोहब्बत की राहों मे भटकते हुए

कुछ भी नहीं पासिल हुआ/ जीवन की राहों में चलते हुए

 कुछ कभी नहीं हासिल हुआ

अब आगे बढ़ने से पहले, थोड़ा परिचय पीयूष मिश्र का, उनके लिए जो इस नामचीन  फिल्मी गीतकार, नाटककार से पहले से वाकिफ नहीं हैं,  तो पीयूष मिश्रा ग्वालियर में पले-बढ़े , और 1986 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा , दिल्ली से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद, उन्होंने दिल्ली में हिंदी थिएटर में अपना करियर शुरू किया। एक फिल्मी गीतकार और गायक के रूप में, उन्हें ब्लैक फ्राइडे (2004) में अरे रुक जा रे बंदे , गुलाल (2009) में आरंभ है प्रचंड , गैंग्स ऑफ वासेपुर में इक बगल (2012), और एमटीवी कोक स्टूडियो में हुस्ना (2012) के लिए जाना जाता है। वे जाने माने अभिनेता, गायक, गीतकार, नाटककार,  और पटकथा लेखक हैं।

बचपन से ही विद्रोही तबीयत के पीयूष के अंतर की झलक   उनकी पहली कविता, ज़िंदा हो हाँ तुम कोई शक नहीं में दिखाई दी (हां, आप जीवित हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है), जिसे  उन्होंने आठवीं कक्षा में लिखा था। बाद में, 10वीं कक्षा में पढ़ते समय, उन्होंने जिला अदालत में एक हलफनामा दायर किया और अपना नाम बदलकर अपनी पसंद का नाम पीयूष मिश्रा रख  लिया।

यहाँ एक बात पहले ही स्पष्ट करना चाहूँगा कि  पीयूष जी की कविताओं के विषय में मुझे अधिक कुछ नहीं कहना है क्यूंकि उनकी कविताएं स्वयम ही बोलती हैं और मुझे तो यूं भी महसूस हो रहा है की कहीं कहीं बीच में मेरी टिप्पणी अनावश्यक ही तो नहीं ।

अब आगे, तो फ़ैज़ साहब की इस नज़्म को अपनी पुस्तक का शीर्षक बनाने के विषय में पीयूष कहते हैं की “ ये मिसरा स्व. फ़ैज़ साहब की मशहूर नज़्म का हिस्सा है, जिंदगी पे इतना फबा की हक़  से चुरा लिया । ऊपर जा के फ़ैज़ साहब से मुआफ़ी मांग लूँगा ।   

इस काव्य संग्रह की पहली ही कविता में  फैज़ साहब ने जहां अपनी नज़्म छोड़ दी  थी  या कहें कि उन्होनें जहाँ कलम रखी बस उसी जगह से पीयूष जी ने अपनी बात आगे बढ़ाई। यह भी बहुत खूबसूरती से कही गई है पढ़ने से आनंद मिलता है कुछ तो नशा पीयूष जी की एक बहुत सहज शैली का भी है गौर करें,  :

वो काम भला क्या काम हुआ/जिस काम का बोझा सर पे हो

वो इश्क भला क्या इश्क हुआ/जिस इश्क का चर्चा घर पे हो ..

वो काम भला क्या काम हुआ /जिसमें साला  दिल रो जाए

वो इश्क भला क्या इश्क हुआ/जो आसानी से हो जाए ..

वो काम भला क्या काम हुआ /जो कढवी घूंट सरीखा हो

वो इश्क भला क्या इश्क हुआ /जिसमें सब कुछ ही मीठा हो..  

वो काम भला क्या काम हुआ /कि मनों उबासी मल दी हो

वो इश्क भला क्या इश्क हुआ /जिसमें जल्दी ही जल्दी हो..   

उक्त पंक्तियाँ पढ़ कर शैली एवं सरलता से तो हमारा परिचय हो ही जाता है वहीं उनकी एक और कविता “शराब नहीं शराबियत” के गंभीर भावों पर गौर करें 

जब कहे नाजनीं बोलो साजन /कौन पहर को आऊँ मैं

और हुस्न कहे की तू मेरा/और तेरा ही हो जाऊँ मैं

बस मैं पागल न समझ सका/किस ओर तरफ को जाना है

बस जाम ने खींचा, बोतल इतराई/कि तुझको आना है ..

वहीं सब कुछ बर्बाद होने के बाद भाव देखें जहां वे आगे कहते हैं कि

वो पछतावे के आँसू भी /मैं साथ नहीं ला पाया था   

उन जले पलों को क्या बोलूँ /जो जला जला के आया था

मैं शर्मसार तो क्या होता /शर्म जला के आया था.. 

वहीं उनकी इस पुस्तक की अगली कविता “तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा” की ये पंक्तियाँ देखें जिनमें वे खुद का ही आँकलन  बहुत सुंदर कर गए हैं । यूं तो इस का आनंद पूरी कविता में ही है पर आपके लिए चंद पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ ताकि एक विचार से आपका ताररुफ़   बस करवा सकूँ,

सब कुछ तो है / फिर भी क्या है

होकर भी जो न होता / अचरज करता ये मिजाज / 

मैं न भी होता क्या होता

नद्दी नाले बरखा बादल / वैसे के वैसे रहते

पर फिर भी जो न होता, वो / जो न होता , वो क्या होता ।    

एक बात जरूर गौर करेंगे की सभी कविताओं के शीर्षक बेहद आकर्षित करते हैं, जैसे  एक कविता का शीर्षक है “ थेंक यू साहब” जिसमें भाव की गम्भीरता का शीर्षक से मिलन करने का प्रयास कदापि न करें, गौर करें

मैं वाकिफ था इन गलियों से / इन मोड़ खड़े चौराहों से

फिर कैसा लगता अलग थलग सा / शहर जो मैंने लिक्खा था

मैं क्या शायर हूँ शेर शाम को / मुरझा के दम तोड़ गया

जो खिला हुआ था ताज़ा दम / दोपहर जो मैंने लिक्खा था ..

और बेफिक्री या कहें कुछ सूफियाना मिजाज इन पंक्तियों में दिखते हैं जो उनकी कविता “जीना इसी का नाम है” से हैं

दर-ब-दर की ठोकरों का लुत्फ़ पूंछों क्या सनम

आवारगी को हमने तो अल्लाह समझ लिया

ज़िंदगी से बात की एक कश  लिया फिर चल दिए

ज़िंदगी को धुएं का छल्ला समझ लिया                

यदि कविताओं के विषय में लिखना शुरू करू या जारी रखूँ  तो यह अंतहीन सिलसिला होगा क्यूंकि हर कविता खास है उस पर लिखा जाना चाहिए किन्तु अब मेरी ओर से चंद और कविताओं के मात्र शीर्षक साझा कर रहा हूँ उपरोक्त कविताओं के द्वारा आपका परिचय पुस्तक से करवा ही दिया है सो अधिक कुछ कहने को नहीं है स्वयम ही पढ़ कर आनंद लें मुझे कविताएं “ये है क्या साली ज़िंदगी” ,“उन खोई रात की बाहों में”, “25 दिसंबर..  “,बड़ी लंबी कहानी है यार”, “इक काली काली लड़की..”, “मेरी सारी प्रेमिकाओं के नाम” “ मुंबई की सुंदर सी लड़की”, “तुम”, “पाँच साल की बच्ची और रेप”, “ढाई आखर प्रेम का”और कुछ अन्य भी कुछ अधिक खास लगीं । संक्षेप में कहा जाए तो जिन्हें अच्छी कविता की तलाश रहती है वे अवश्य पढ़ें, निराश नहीं होंगे।

अतुल्य    

 

 

 

 

 

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