Subakte Pannon Par Bahas By Devendra Dhar
सुबकते
पन्नों पर बहस
विधा :
काव्य
द्वारा :
देवेंद्र धर
विंब-
प्रतिविम्ब प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
प्रथम
संस्करण : 2023
मूल्य: 300
समीक्षा
क्रमांक : 142
“अब मै
वो गीत नहीं लिखूंगा
जो कानों
तक नहीं पहुंचते
जब
भिवगीत लिखता हूं
वो बांझ
हो जाते हैं
नपुंसक
हो जाते हैं ये गीत
स्याही
बंजर हो जाती है
क्या
करोगे वो गीत लिख कर
जो टूटे
फूटे चल रहे हैं
फिर भी गीत
लिखना मजबूरी है
कविता का
अपने अस्तित्व को खोते हुए अपने मूल उद्देश्य को न पाना उक्त पंक्तियों में स्पष्ट रूप से लक्षित होता है बार
बार कविता की असफलता और अपनी मजबूरी झलका ता है। ये सुंदर एवं भावपूर्ण पंक्तियां
हैं हिमाचल की खूबसूरत वादियों के कवि देवेंद्र धर जी के काव्य संग्रह
"सुबकते पन्नों पर बहस" से, वे इसी कविता "में वो गीत नहीं
लिखूंगा" में कहते भी हैं कि
फिर भी
गीत लिखना मजबूरी है
उन सब के
लिए
अपनी
पहचान बनाए रखने के लिए
उनकी
कविता के भाव उन के अंदर चल रहे गंभीर विचाराओं के मंथन एवं विमर्श से उत्तपन्न होते हैं। वे कहते हैं की कविता अपने समय के
समाज का यथार्थ चित्रण है उनकी दृष्टि में समाज की विषमताओं को समझते हुए उसके
अंतर्विरोधों को उजागर कर जन मानस के हक उकेरना ही
कविता है। कवि की दृष्टि यथार्थवादी व वैज्ञानिक होना जरूरी है। उन्होंने
कविता के मूल को एक उद्देश्य के रूप में समझा है जो समाज के परिवर्तन का रास्ता
प्रशस्त कर सके ।
गंभीर भाव एवं वैज्ञानिक सोच के धनी देवेंद्र धर जी अमूमन चार दशकों से साहित्य सृजन में अपना योगदान दे रहे हैं अपितु आजीविका हेतु बैंकिंग जैसी नीरस सेवा में बहुमूल्य जीवन का आधुकायांश समय देने के बावजूद उनके अंदर के कवि का अभी भी बहुत कुछ शेष है बाहर आने को। उनका काव्य संग्रह "जमीन तलाशते शब्द" काफी अरसे पहले पढ़ने का अवसर मिला था। वे डिजिटल मीडिया के मार्फत भी साहित्य से जुड़े हुए हैं एवम उभरती प्रतिभाओं को मंच उपलब्ध करवा रहे हैं ताकि वे आम जन के सामने अपने भाव प्रकट कर सकें ,अपनी प्रतिभा दिखला सकें।
उनकी
कविता में जोश भी है और कुछ का गुजरने का संदेश भी, युवा पीढ़ी का आव्हान है वहीं कुछ
अपेक्षाएं भी , कविता "उठो
अब" में कहते हैं की:
कलम की
शहादत खत्म होने जा रही है
दावात
में स्याही सूखी है
कविता
नया रुख मांगती है
बिखरे
शब्द प्रभावी नहीं है
अब इन
टूटे हथियारों से
इस
अव्यवस्था में व्यवस्थित युद्ध नहीं
होगा
वहीं अंत
में कहते हैं
अब
तुम्हारे पास एक ही विकल्प है
सपने
देखने का नहीं सपनों के पीछे भागने का
वहीं
संग्रह की कविता "दंगाई शहर" वर्तमान व्यवथा पर
तीखा तंज करती हुई कविता है , जिसमें एक स्थान
पर वे कहते हैं कि
“नजरबंद
न्यायालय सब को करता है नजरंदाज
आरोप
जुटाई में व्यस्त न्याय पुलिस की
शर्त पर
खंगाल
रहा जेब में साक्ष्य
न्यायालय
मांगता न्याय की भीख”
और अंतिम
पंक्तियां देखें कि
जांच
जारी है अगली मेरी बारी है
क्योंकि
मैं भी सच बोलता हूं ।
तो अपनी
एक और कविता "प्रजातंत्र के अंधेरे में" तीखा कटाक्ष करते हैं, प्रारंभ की दो पंक्तियों में देखें कि
“यह कोई
राजनैतिक संवाद नहीं
रंगे
सियारों की चाल समझने का
एक
ईमानदार प्रयास है”
कवि की अधिकांश
कविताएं उनका व्यवस्था के प्रति असंतोष व अंतर्मन का आक्रोश व्यक्त करती हैं,
कविता "थाली के रंग" में जीवन
के कठिन संघर्ष की जननी भूख, और रोटी की अन्य विषयों के सापेक्ष प्रासंगिकता को अत्यंत गंभीरता एवम
मार्मिकता के संग दर्शाया गया है , थाली को सांकेतिक रूप से
सुंदर भाव दिए हैं । वे लिखते हैं की:
इसी थाली
और रोटी का
अजूबा यह
रहा है की
भूख सबको
लगती है
लेकिन
रोटी सब को नसीब नहीं होती ।
और तमाम
संदर्भों में विमर्श के पश्चातउनका निष्कर्ष अथवा कहें की कुल जमा लब्बोलुआब यही
है कि :
फिर थाली
के रंग भी तो अलग अलग है
क्योंकि
रोटी जैसी भी हो
कभी थाली
के बराबर नहीं होती
वहीं
कविता “रोटी की गंध” ,में देखें रोटी ले
गंध को कितने सुंदर भावों के संग किन सच्चाईयों से संबद्ध कर दिया है , कहा जायेगा की निश्चय ही ऐसी कविता अपने आप में विशिष्ट है एवम इस स्तर की
कविता जब लिखी जाएगी तब तब हिंदी साहित्य का सर और ऊंचा होगा। कवि हृदय
के आक्रोश , दर्द , अव्यवस्था की पीढ़ा के भावों को दर्शाती हुई कविता है , चंद पंक्तियों से भावनाओं की एक
झलक महसूस करें
जब धरती
धूप पर
बहस करती है
हड्डियां
टिटहरी बन जाती हैं
भूख में
रोटी की गंध का सवाल तब उठता है
शीर्षक
कविता “सुबकते पन्नों पर बहस” ,में विस्मृत
गौरवशाली इतिहास का स्मरण करते हुए लिखते
हैं की:
उठो अब
पर सिर्फ
मौत पर
कफन
फैलाने का अधिकार उन्हीं का है
तुम्हारी
आस्था की कब्र में
राष्ट्रीय
आकांक्षाओं के सपने हैं
जब तुम उठोगे
तो
सभी खंजर
तोपें गोलियां और युद्धपोत
तुम्हारी
और बढ़ रहे होंगे
अभी समय
है
उठो की
अब तुम्हारे पास एक ही विकल्प है
सपने
देखने का नहीं सपनों के पीछे
भागने का
अब इन
सपनों को पकड़ना है
आने वाली
पीढ़ी के लिए एक अभिभावक के दिल से निकलती शुभेक्षाओं की बानगी
है उनकी कविता "उन हाथों को भूलने का समय आ गया है",
अत्यंत स्पष्टता एवम मार्मिकता की पैनी
छुअन के साथ जहां भूतकाल को याद किया है वहीं उज्ज्वल भविष्य की कामनाएं भी है ,
वे कहते हैं की :
कहा चले
गए वे मंत्र जो अंधियारे में लो बनते रहे
वो
शब्दावली
वो टूट
ते हुए रंगीन पैंसिलो और बाल पैरों के गट्टे।
जीवन
जीने के सब यंत्र तुम्हारे पास अमानत हैं
जीवन की
परीक्षा के यक्ष प्रश्न तुम्हारे पास हैं
मैं
अक्षम समय के अंधियारे का पात्र बनता जा रहा हूं
गंवाता
जा रहा हूं सब कुछ
जब तक
मेरी देह में जान है
मेरा बचा
हुआ अस्तित्व तुम्हारे साथ है
मत भूलो
अब की तुम्हें और आगे निकलना है ।।
मां की
महिमा का सुंदर बखान करती कविता है
“मां और
रास्ता” ,
यूं तो प्रत्येक पंक्ति गहन भाव संजोए हुए है फिर भी उद्धरण स्वरूप
इन पंक्तियों के भाव पर गौर करें:
जीवन की
पंक्ति में सबसे आगे
अपना सब
कुछ न्यौछावर करती
कितनी
भोली है मां
दुखों का
किलटा पीठ पर उठाए
सुखों के
गोबर से घर लीपती
खुशी की
चादर में ताने
कभी
विश्राम करती
नजर नहीं
आती मां
माँ की
महिमा का गुणगान करते हुए वे पिता को भी विस्मृत नहीं कर सके हैं, “पिता एक एहसास”
में पिता को संपूर्ण विशालता के साथ देखते हैं एवम अपनी श्रेष्टम भाषा शैली में वे
कहते हैं की :
पंखों को
सजाते हैं पिता
पितामह
के अवशेष से
पीठ की
दीवार पर पेड़ लगाते
हृदय पर
सत्य की फसल
फटे हुए
बिछोने पर फूल उगाते हैं पिता
और
हारे हुए
लोगों के लिए
पिता एक
एहसास है
कविता “सांझ
की सांसे” एक अलग ही रूप दिखला रही है। प्रारंभ में तो यूं प्रतीत होता है मानो
प्रकृति के सौंदर्य का बखान हो किंतु हर अगली पंक्ति के संग कवि ने भावों में एक
अद्भुत बदलाव प्रस्तुत किया है वहीं कविता का त चमत्कृत करता है
छिपते
हुए सूरज की रोशनी में
समय का
आसमान ओढ़ कर
सांझ के
बिछोने पर सोना
यह
स्वीकार नहीं करूंगा
मेरा
सूरज अभी आना है
मेरे
शरीर का प्यासा समंदर
लहरों सा
किनारों को छूना चाहता है।
इस काव्य
संग्रह की अत्यंत श्रेष्ठ कविताओं में से किसी एक को चुनना निश्चय ही दुरूह कार्य
है ,
इसी संग्रह से कविता “बारूद होते शब्द” के भाव भी कवि हृदय की
व्यग्रता, असंतोष एवं बहुत हद तक क्रांतिकारी भावनाओं को दर्शाते हैं
कलम को
हथिया कर तुम समझते हो
कि तलवार
या ढाल बने रहोगे
तलवार
जिस कलाई से घुमाते हो
हम उसी
तलवार का हत्था हैं
हम
क्षमादान हैं अपराध नहीं
शब्दकर
के शब्द नि:शुल्क होते हैं
जब किसी
हथियार पर चढ़कर बोलते हैं तो
बारूद बन
जाते हैं
प्रस्तुत
कविता संग्रह की हर कविता एक सोच को जन्म देती है वहीं कविताओं में भी कुछ बात ऐसी
है की पाठक कवित्त को स्वयम के भाव से कहीं न कहीं जुड़ा हुआ महसूस करते हैं एवं
स्वतः ही एक के बाद दूसरी कविता पढ़ने हेतु अग्रसर होते हैं।
अतुल्य
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