Dimag Walo Savdhan By Dharmpal Mahendra Jain
दिमाग
वालो सावधान
विधा :
व्यंग्य
द्वारा :
धर्मपाल महेंद्र जैन
किताबगंज
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
प्रथम
संस्करण : 2020
मूल्य :
500.00
समीक्षा
क्रमांक : 140
धर्मपाल महेंद्र जैन व्यंग्य लेखन में एक जाना पहचान नाम है। मूलतः मध्य
प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र झाबुआ के निवासी, किन्तु वर्तमान में कनाडा में
बस जाने के बावजूद वे अपने देश अपनी मिट्टी से जुड़े हुए है और यह उनकी रचनाओं में,
उनके चिंतन में स्पष्ट नजर आता है। मूलतः व्यंग्य लेखन करते हुए वे काव्य सृजन के
क्षेत्र में भी स्तरीय रचनाएं लिख कर साहित्य समृद्धि में अपना अमूल्य योगदान दे
रहे हैं।
उनकी विभिन्न व्यंग्य रचनाओं का संग्रह है
“दिमाग वालो सावधान”। रचनाओं का जिक्र
करें उसके पहले थोड़ी बात इस विशिष्ट विधा
की। व्यंग्य लेखन हिन्दी साहित्य में वह विशिष्ठ एवं दुष्कर शैली है जिसमें व्यंग्यकार
समाज,
राजनीति, या किसी अन्य विषय पर व्यंग्यात्मक
एवं आलोचनात्मक दृष्टिकोण से लिखता है तथा चुभती हुई बातें कुछ इस तरह प्रस्तुत कर
दी जाती हैं की “घाव करे गंभीर..” वाली उक्ति चरितार्थ हो जाती है, तभी तो कहा जाता है की व्यंग्य लेखन कुछ कुछ दुधारी तलवार पर चलने जैसा
होता है, जहां किसी की भावनाओं को आहत करे
बगैर बात कह दी जाती है। स्वस्थ्य व्यंग्य, व्यक्ति वादी आक्षेप न होकर
मूलतः विषय एवं संदर्भ मूलक होते हैं, किन्तु उथले, छिछली मानसिकता से उत्पन्न, अपुष्ट
विचारधारा से पोषित व्यंग्यकारों द्वारा व्यक्तिवादी टिप्पणी करते हुए फूहड़ हास्य
निर्मित करना भी खूब प्रचलन में देखा जा रहा है।
महेंद्र जी के व्यंग्य लेखन में उनकी विषय के
प्रति केंद्रित एवं गंभीर सोच, तथा संतुलित
भाषा स्पष्ट लक्षित होती है। वे जब अपने व्यंग्य में किसी विशेष मुद्दे, सामाजिक समस्या, की आलोचना करते है अथवा उस पर व्यंग्य करते हैं
कटाक्ष करते हैं तब यह व्यंग्य प्रस्तुति बहुधा अप्रत्यक्ष होती है साथ ही प्रस्तुति
को और प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने के लिए हास्य के भाव भी उतत्पन्न किये जाते
हैं जो अक्सर तीखे और कटाक्षपूर्ण होते है वहीं किसी अन्य पात्र अथवा घटना से
तुलना कर के अथवा उपमा आदि के प्रयोग से अपने विचारों को प्रस्तुत करना
उनकी शैली में नजर नहीं आता। वे सीधे सीधे विषय की गहराई को उजागर करते हैं
जिसमें उनकी भाषा पर पकड़, विषय का गहरा अध्ययन
व सटीक वाक्य विन्यास एवं विशिष्ठ
शैली उनकी मदद करते है। उनकी रचनाओं में विषय बाध्यता भी नहीं मिलती तथा वे सामाजिक,
राजनीतिक, सांस्कृतिक सहित अमूमन हर उस विषय पर लिखते हैं जिससे पाठक
को समस्या के प्रति जागरूक किया जा सके या कम से कम उसका ध्यान उस ओर आकृष्ट किया
जा सके । ।
उनके व्यंग्य लेख समाज की
समस्याओं को विभिन्न तरीकों से उजागर करते हैं, उनके व्यंग्य समाज की समस्याओं को तीक्ष्ण
किन्तु अलंकारिक और विनोदी रूप में प्रस्तुत करते है जिस से समस्याओं की गंभीरता
को प्रभावशाली तरीके से उजागर किया जा सकता है। यह देखने में आता है की उनकी आलोचना
अक्सर सीधे शब्दों में नहीं होती, बल्कि हास्य
, कटाक्ष एवं विडंबना के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है और वे समाज की असंगतियों
और विषमताओं को मुखर हो कर प्रमुखता से उजागर करते हैं, जैसे
कि भ्रष्टाचार, सामाजिक अन्याय, और
सांस्कृतिक विडंबनाएँ। उनका लेखन उस सामाजिक अथवा वैयक्तिक व्यवहार की आलोचना करता
दिखता हैं, जो समाज के व्यापक मुद्दों को प्रतिबिंबित करता
है। यह कटाक्ष बहुधा हमारी सामाजिक आदतों पर आधारित होते है,
जो समाज की समस्याओं की जड़ को छूने का प्रयास करते प्रतीत होते है। उनके लेखन में व्यंग्य एवं आलोचना का गहन
सम्मिश्रण नजर आता है एवं उन्हें अलग अलग कर पाना एक दुरूह कार्य अवश्य है। उनके लेख जहां एक ओर हास्य, विडंबना, और कटाक्ष के माध्यम से समाज, राजनीति, अथवा समाज में व्याप्त समस्याओं और
कमजोरियों को उजागर करते हुए पाठकों को सोचने और जागरूक करने के साथ-साथ उनका मनोरंजन
भी करते हैं वहीं वे किसी विषय, कार्य अथवा व्यक्ति का गुणात्मक
विश्लेषण करते हुए भी नजर आ जाते हैं ।
हालांकि उन के लेखन की प्राथमिकता, मूलतः वस्तुनिष्ठता और तर्कसंगतता होती है, जो किसी कार्य के मूल्य, प्रभाव, और दोषों पर ध्यान केंद्रित होती है।
प्रस्तुत
संग्रह की विभिन्न कृतियों की चर्चा करें तो “सबकी हो सबरीमाला”, व्यंग्य से कहीं अधिक एक सामायिक मुद्दे पर लेखक
की गहन चिंता दर्शाते हुए समाज का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास है। रचना, रजस्वला
महिला को उस काल में मंदिरों में
प्रवेश न देने जैसी अंध श्रद्धा पूर्ण विचारधारा को आइना दिखलाती है। प्रतीक रूप
में सबरीमाला मंदिर को लिया गया है जहां का यह मुद्दा एक समय पर काफी अधिक
प्रचारित भी हुआ था। अपनी मन की बात
अत्यंत सरलता से भगवान के संग बातचीत के फॉर्मेट में सामने रख दी है जो सहज गम्य
है एवम लेखक की चिंता को सहज ही पाठक से साझा करती है।
तो
वहीं पुस्तक की शीर्षक रचना “दिमाग वालो सावधान” समाज कि उस बिरादरी पर चटखारे लेती प्रतीत होती है जो बिना
किसी बात के भी आपका खासा समय ले सकते हैं और हल्के फुल्के अंदाज़ में कहा जाए तो
आपका दिमाग खा सकते हैं। किंतु सच में यह
रचना इतनी अधिक सटीक है की लेखक ने भी बहुत सहज तरीके से बातों बातों में,पता लगे
बगैर ही अच्छा खासा दिमाग खाली कर दिया। न तो आदि था न ही अंत बस वह कहते गए हम
पढ़ते चले और परिणाम स्वरूप दिमाग तो खाली होना ही था।
वहीं
“साहित्य की सही रेसिपी” में साहित्यकारों को स्वादिष्ट पकवानों के दृष्टांत देते
हुए सुझाव दे रहे हैं की साहित्य कुछ यूं सृजित किया जाए जिस से पाठक के मन में उस
के प्रति वही भाव जागृत हो उठे जो की पकवान का रस लेने हेतु उतत्पन्न होता है।
उनकी
रचनाओं में भाषा भी सरल किंतु अत्यंत परिष्कृत है यथा रचनाकार को समझाइश देते हुए
कहते हैं की "उसे चाहिए की वह अपनी रचना में पर्याप्त नुपुर बांधे कि वाक्य
खत्म होने से पहले ही पाठक झंकृत हो जाए। रचना में ऐसी ध्वनि हो आरोह अवरोह हों राग बंदिशें हों जो पाठक को रचना से
आनंदित करे।
रचना
में साहित्य एवं मिष्ठान्नो के बीच बेहतरीन साम्य बैठाया गया है एवम साहित्य सृजन हेतु जिस तरह विभिन्न मिष्ठानों को
बनाने की विधियां अनुसरण करने का समझाइश दी गई है वह लेख
में अलग ही तड़का लगा रही है।
एक
जगह कहते हैं की साहित्य की भाषा लच्छेदार होना चाहिए रबड़ी सी। दूध और शक्कर का
स्वाद तो चाय में भी आता है पर इनका जो स्वाद रबड़ी में आता है वह रबड़ी को उल्लेखनीय बनाता है।
“झंडा
ऊंचा रहे हमारा”, तिरंगे की आढ़ में राजनीतिक रोटियां सेंकते राजनीतिज्ञों पर
अत्यंत तीक्ष्ण सधा हुआ प्रहार करती हुई रचना है । अगली रचना “इक्क्तीस्वी सदी” में, वर्तमान सत्ताधीशों को केंद्र में
रख कर एक कटु सत्य सामने परोस दिया है, सच ही है, काल कोई भी
हो, सतयुग में भी गरीब रहे और कलियुग में भी रहेंगे। सत्ताधीश को अगर सत्ता चलानी है तो गरीब का होना
अनिवार्य है यह ऐसी बात सामने रख दी जो अमूमन हर आम आदमी की नजर में रहते हुए भी
दिखलाए नही पड़ती और वह सत्ताधीशों द्वारा
निर्मित मोहक भ्रमजाल में उलझता रहता है
एक
अन्य व्यंग्य रचना “प्रभु की दिव्य दृष्टि” में जहां
प्रभु की द्दिव्य दृष्टि हेतु सुपात्र
बतलाते हुए, हर भ्रष्ट विभाग एवम भ्रष्टाचारी पर तंज है वहीं अंतिम पंक्ति तो गहन
सोच का सुंदर उदाहरण है कहते हैं की " सच सामने आए तो अंतर्ध्यान हो जाना ही
प्रभुता है"। इसमें जहां यथार्थ है वही तात्कालिक परिस्थितियों पर प्रहार भी।
राजनेताओं का ज्वलंत विषयों पर मौन रहना
भी तो अंतर्ध्यान के ही रूप हैं जो की हम आमतौर पर देखते हैं।
बिना
किसी राजनैतिक दल का नाम लिए उनकी रीतियों नीतियों पर गहरे तंज़ करती हुई कृति है "मैं किसे वोट दू", जो कहीं न कहीं एक आम इंसान की व्यथा भी दर्शाती
है जो सब जानते बूझते हुए भी असहाय है।
“गाय
पर निबंध”, गाय को केंद्र में रख कर समाज में दलित , आदिवासी की राजनीति और
सांप्रदायिकता पर गंभीर कटाक्ष किया है। झाबुआ जिले के उत्सव के परिप्रेक्ष्य में जहां
दीपावली
उत्सव दिवस पर वहां दलित जमीन पर लेट कर
दौड़ती हुई गायों के पैरों तले आना अपना सौभाग्य समझते है, लिखते हैं की अब यह उत्सव झाबुआ
जिले तक सीमित नहीं रहा पूरे भारत में फैल गया है। जब जहां चाहा दलित को कुचल दिया और उत्सव मना
लिया। उक्त वाक्य मात्र ही उनके कटाक्ष के
पैनेपन को दिखला देता है। गाय को ले कर फैल
चुकी गंदी राजनीति के संदर्भ में लिखते हैं की गाय जो कभी ग्रामीणों और दलितों की
अर्थव्यवस्था हुआ करती थी अब नारा बन गई है।
अंत
में कहते हैं कि इस निबंध के अंत में उपसंहार लिखना प्रासंगिक नहीं होगा अब संहार
शेष है गाय का या हमारा।
यूं
तो उनकी प्रत्येक रचना किसी न किसी विषय पर तीक्ष्ण व्यंग्य करते हुए आपको एक नए
दृष्टिकोण से सोचने पर विवश करती है , उनके इसी संग्रह से चंद और उल्लेखनीय रचनाओं
पर बात करते हैं, यहाँ स्पष्ट करता चलूँ कि मेरा तात्पर्य यह कदापि नहीं है की
अन्य रचनाएं उल्लेखनीय नहीं हैं।
“
चौदह हजार करोड़ रुपए घर बैठे ले लो” के द्वारा देश में पिछले कुछ सालों में जितने
आर्थिक घोटाले हुए और उनके कर्ताधर्ता सरकारों के चंगुल से बच निकले (?),
उन तमाम स्कैम्स पर
केंद्रित है, नीरव मोदी को मोदी न लिख
नीरव हीरे वाला लिखने का तर्क सुंदर बन पड़ा है। तंज गहरा है और शैली किसी नश्तर सी पैनी।
उनकी
विशिष्ठ लेखन
शैली दर्शाती, तथा उनकी व्यंग्यकारिता की संभवतः विशेष उल्लेखनीय
रचनाओं में से एक है “एक व्यंग्यकार का शोधपत्र”, जो की गालियों पर लिखा गया है, और उनकी इस कृति को पढ़ कर जिसमें
विश्वविद्यालयों के ऊपर हल्के फुल्के तंज के कुछ मौके भी आयेंगे,
सहज ही उनकी विचारशीलता एवं शैली प्रभावित कर जाती है।
“अस
मानुस की जात” इंसान के हालिया व्यवहार से
शायद कहीं हमारे पूर्वज भी शर्मिंदा ही होंगे कुछ ऐसे ही भाव लेकर लिखी गई है जहां
वे यह सामने रखना चाह रहे हैं की इस मानव {आज के इंसान}के पूर्वज
बंदर कैसे हो सकते हैं, हो ही नहीं सकते।
तो
“भाई साहब की पद्मश्री” के द्वारा जहां एक ओर उन्होंने अतिवृद्ध अथवा अवसान के
करीब पहुंच चुके साहित्यकारों को पुरुस्कृत करने की प्रथा परंपरा पर निशाना साधा
है वहीं वे पुरुस्कार प्राप्ति हेतु व्याप्त तरह तरह के हथकंडों का उल्लेख करना भी
नहीं भूलते हैं।
“वे
इशारा दे कर चले गए” भी एक ऐसी रचना है जो आज कल के उन तथा- कथित साहित्यकारों की
पोल खोलती है जो ऐन केन प्रकारेंन प्रसिद्ध होना चाहते हैं फिर इस के लिए वे किसी भी स्तर तक
उतरने के लिए तैयार भी रहते हैं। ऐसा ही
एक नुस्खा अपना फर्जी इंटरव्यू छपवा कर प्रसिद्धि पाने का है जिस पर यह रचना केंद्रित है। कथानक का उतार चढ़ाव एवम परिस्थिति
अनुसार भाषाई लय देखते ही बनती है। कुछ मिलते हुए भाव लिए रचना है “ वे धन्यवाद नहीं
ले रहे”।
“जन
जन की है मधुशाला”, कॉपीराइट एक्ट की समय सीमा और “मधुशाला”
समान कालजई रचना से संबद्ध महानायक की चिंता को सामने रखती है साथ ही कॉपीराइट की समय
सीमा संबंधित विषय पर पक्ष अथवा विपक्ष हेतु एक प्रश्न भी छोड़ जाती है।
“जिन्हें
नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं”, आम चुनाव के गिरते वोटिंग प्रतिशत
पर गहरा कटाक्ष भी है और चिंता भी। कुछ नए
शब्द भी घड़े गए हैं यथा बुद्धिजीवी एवम श्रमजीवी के क्रम
में सत्ताजीवी, वहीं यह कहते हुए की "काऊ होए नृप होऊ
हमही का हानि," अपनाए हुए जो जनमानस है उस पर अपनी
प्रतिक्रिया दी है।
यूं
तो उनकी प्रत्येक रचना पर खास विचार विमर्श किया जाना संभव है किन्तु यह सहज ही लक्षित है की उपरोक्त के अतिरिक्त
भी संग्रह की अन्य रचनाएं यथा “ इंडियन पपेट शो,” “बापू का आधुनिक बंदर” ,“लगे रहो
मेरे भाई”, “कबीरा खड़ा बाजार में” ,“ओ
मानस के राजहंस” आदि विभिन्न विषयों पर उनका गंभीर विचारण दर्शाती हैं एवं बार बार
पढ़ने योग्य हैं साथ ही विषय पर चिंतन हेतु भी बाध्य करती हैं।
अतुल्य
21.08.2024
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