Prithvi Failati Hai Pankh By Suresh Singh
पृथ्वी फैलाती है पंख
द्वारा : सुरेश सिंह
विधा : कविता
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 225.00
प्रथम संस्करण : 2024
समीक्षा क्रमांक : 130
पहले “भव्यः मकड़जालं” और अब “पृथ्वी फैलाती है पंख” कुछ अलग से, और कुछ
नयापन लिए हुए शीर्षक वरिष्ठ कवि प्रो सुरेश सिंह के काव्य संग्रहों के हैं जिनसे
रूबरू होने का मौका मुझे मिला और जाना की मात्र शीर्षक ही नहीं उनकी कविता का तो हर शब्द कुछ नया कुछ भिन्न सा कह जाता है।
इस वरिष्ट कवि की शख्शियत में बसने वाले भाव ही हमें शब्द रूप में तर्कपूर्ण
ढंग से व कहीं प्रहार करते हुए तो कहीं ध्यानाकृष्ट करते हुए या फिर सहज ही
अत्यंत शांति से अपनी बात रखते हुए नजर आ जाते
है। सुंदर कविताओं में ढल कर कविता के रूप में नज़र आते ये भाव उनके अंदर के
मुखर सजग एवं सचेत व्यक्तित्व को आसान से शब्दों में परिभाषित कर देते है। उनकी कविता
सहज. सुलझे हुए स्पष्ट विचारों के शब्दरूप ही हैं। वे अपने कथन को लेकर
स्पष्ट एवं सुलझे हुए हैं एवं यही मात्र कारण है की उनकी अभिव्यक्ति में कहीं भी
भटकाव. अथवा अस्पष्टता नहीं दिखती।
प्रस्तुत संग्रह की कविता “होंठ” के द्वारा देखें कैसे उन्होंने मन की घुटन को
सरलता से स्पष्ट एवं सटीक रूप में सामने रख दिया है :
जब नहीं खुलते होंठ / होंठों के चेहरे
रहस्यों की पीठ पर / लादे रहते हैं उदासी
जब होंठ नहीं बोलते / होंठ नहीं चीखते
तब भी /एक चक्रवात / थामे रहते हैं होंठ
बिना कहे/ सब कुछ कह देते हैं होंठ
मूलतः कृषि उनका पेशा अथवा कहें जीविकोपार्जन का साधन है सो वे कर्म से कृषक
किन्तु मन से एक सरल आम जन के कवि है जिसकी आत्मा में आज भी साहित्य ही बसता है एवं स्वभाविकतः वही सर्वोच्च प्राथमिकता
भी है जिस से उन्हें वास्तविक सुकून एवं आराम मिलता है।
विधा कोई भी हो,
संवेदनशीलता यूं तो कलाकार के स्वभाव का मूलभूत गुण है किन्तु एक साहित्यकार से
इसकी अपेक्षा कुछ ज्यादा ही की जाती एवं कदाचित यह कहना भी कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगा की सुरेश जी उस
अपेक्षा से भी कुछ अधिक ही संवेदनशीलता से समाज को टटोलते हैं जो उनके सृजन कर्म
से स्पष्ट झलकता है।
सरल भाषा.बोधगम्य वाक्य से सजी उनकी कविताएं युक्तियुक्त, सटीक
गंभीर किन्तु अत्यंत सरस सरल कवित्त है जो उस आम आदमी के दिलोदिमाग पर भी सहज ही छा जाते हैं जिस के विषय में वह कही गई है। लब्बो
लुआव यही की बिना किसी व्याकरणीय आडंबर
एवं विशेषणों के जाल के वे अपनी बात बखूबी कह जाते हैं। उनकी रचनाए तुकांत मिलाने हेतु नहीं लिखी गई
हैं अतः वे अपने सहज रूप में भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम है एवं तुकांत
मिलने की विवशता न होने के कारण वे बखूबी वह कह सके हैं जो कहना चाहते थे,यही कारण
है कि भावों को शब्दों का जामा पहना कर
ज्यों का त्यों लिपि बद्ध कर प्रस्तुत कर दिया गया है सो सहज ही समझ आकर दिल को छू
जाती है।
बगैर किसी बाह्य सजावटी व्याकरणीय आडंबर के अत्यंत गंभीर
वैचारिक सोच तथा भावों की सुंदर अभिव्यक्ति है उनकी कविता “नदी होना अपने को खो
देना नहीं है”
नदी में प्रवेश करो /प्रवेश ही नहीं / नदी को धारण करो
धारण ही नही / स्वयम नदी हो जाओ
नदी हो जाने का मतलब / खुद का खो देना नहीं है
उनकी कविता या कहें की उनके भाव कहीं भी सीमाओं के दायरे में नहीं हैं. भाव स्वतंत्र
हैं, अभिव्यक्ति से उनकी स्वतंत्रता की अभिलाषा स्पष्ट झलकती है। निजि जीवन में भी
किसी बंधन की गिरफ्त में न बंधने, स्वतंत्र रहने की चाहत के कारण ही वे
शासकीय सेवा तज कर स्वतंत्र रूप से कृषि
कार्य व साहित्य सेवा करने में लिप्त हैं। उनकी 84 श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह है
“पृथ्वी फैलाती है पंख” जो हाल ही में New World publication
द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसके पूर्व भी "आज फिर धूप मैली है" और “भव्य:
मकड़जालं” शीर्षक से उनके कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे हालांकि आज फिर
धूप मैली है पढ़ना अभी बाकी है भव्य : मकड़जालं के विषय में अपने विचार पूर्व में
साझा कर ही चुका हूँ।
सत्ता सामीप्य, दलगत राजनीति, व्यक्ति पूजा जैसे वे गुण (?)
जो आज के समय में सफलता के मूल मंत्र के रूप में गिने जाते हैं कवि का उनसे कोई
तारतम्य बैठता नहीं जान पड़ता क्यूंकि उनकी
कविताओं में न तो जी हुज़ूरी नजर आती है न ही किसी की तारीफ बल्कि वे तो अपने सृजन
में अत्यंत स्पष्ट हैं कहें तो दो टूक लिखते हैं तथा उनका सृजन कर्म दृढ़ता पूर्वक वह
सामने रख देता है जो उनका अंतर्मन एक आम जन के रूप में देखता एवं महसूस करता है। सच को किसी दबाव की
परवाह किए बगैर सच
लिख देना ही उनकी पहचान बन चुका है।
अपनी कविता “मुझे जीवन की तलाश थी” में देखिए समाज में
व्याप्त नकारात्मकता को कैसे सांकेतिक रूप में सामने ला खड़ा किया है जो किसी न किसी रूप में सब पर हावी
हो चुकी है
उस बच्चे के
मासूम चेहरे की खुशी का / अनुवाद करना चाहिए था
मैं उसके रोने का अनुवाद करने लगा हूँ।
आखिर समय /इतना उल्टा कैसे हो गया
मुझे जीवन की तलाश थी / मैं मृत्यु का / साक्षी बन गया
हूँ
उनके जीवन की सरलता उनकी कविताओं में भी स्पष्टतः झलकती है एवं उनकी समस्त
रचनाए, सरल एवं बेहद सादगी लिए हुए हैं। सरल जीवन है कहीं कोई बड़े बड़े सपने नही न
ही अधिक अथवा थोड़ा और की इच्छा। लालसा अथवा लोलुपता जिसे बाज दफा एम्बिशन के
समानार्थी भी निरूपित किया जाता है तो कुछ और अधिक पा लेने की कामना ही जीवन को उसके
रूप को भिन्न भिन्न रूपों में देखते हुए कवि की निराश या आंतरिक टूटन लक्षित होती
है कविता “इच्छाएं” की इन पंक्तियों में जहां कहते हैं कि : पड़े पड़े पुरानी ही नहीं /
बूढ़ी भी हो जाती हैं इच्छाएं
और मर जाती हैं धीरे धीरे / पंख उगने की प्रतीक्षा में
तब आदमी निरर्थक कवर सा / फेंका रह जाता है
दुनिया के घूरे पर / एक निरर्थक जिंदगी लादे
उनकी कविताएं प्रासंगिक हैं व भावनाओं
को जाहीर करने में कठिन शब्दों के आवरण नहीं है जो सरलता के संग जीवन के
गूढ़ार्थों को समझने के प्रयास भी है। एवं
उनके मर्म तक ले जाती हैं।
अत्यंत गंभीर भावों को किस खूबसूरती से साधारण शब्दों के जरिए अभिव्यक्त करने
में सफल रहे हैं यह दर्शाती है उनकी कविता “अंधेरी यात्रा के बाद”
उस गहने और गहरे / अंधेरे में लगातार
ऑस गिर रही थी/ कहीं किसी अंकुर की संभावना
सुबह की तरह / बहुत दूर थी।
उनकी रचनाओं की सरलता पाठक
को पढ़ने के प्रति उत्सुकता जागती है व पाठक से सहज ही संवाद स्थापित कर लेने में
उन्हें विलंब नहीं होता। उनकी कविताएँ भावात्मक होने के साथ ही
विश्लेष्णात्मक भी हैं किन्तु उपमा, क्लिष्ट शब्दों
का बेवजह प्रयोग, प्रतीक एवं विशेषण आमतौर पर नज़र नहीं आते हैं उनकी कविताओं
में भावनाएं
भी आम आदमी के मन की बात ही अधिक प्रतीत होती है एवं कहीं कहीं
आंतरिक घुटन एवं तदजन्य असंतोष तथा एक आम आदमी का क्रोध दिखलाई पड़ता है किन्तु ऐसा कुछ भी नही जिसे
क्रांतिकारी कवित्त कहा जा सके। जोश जगाने जैसा अथवा बदलाव लाने जैसा कोई दावा भी
नहीं करते । वे तो मात्र अपने भाव , वह भी जो उन्हें समाज के किसी कृत्य द्वारा प्राप्त अथवा उतत्पन्न हुए हैं उन्हें
हमारे सामने परोस देते हैं।
ऐसी ही एक कविता
“यात्रा” जिसमें भावों की अभिव्यक्ति
हेतु शब्द चयन सुंदर है किन्तु कहीं भी अलंकारिकता या भावों को विशेष रूप से सजा कर
प्रस्तुत करने का अतिरिक्त प्रयास नही है”
सिर्फ यादों की
गोद में / नहीं रखा जा सकता है
अपने थकान का
सिर
निर्मम धूप की
सत्ता / गिर रही है. इस कलूटी सड़क पर
और कितनी लंबी
हो गई है / यह यात्रा
उनके कवित्त शब्द
द्वारा भावों की सहज अभिव्यक्ति का साधन मात्र हैं। भाव शब्दों के माध्यम से अपने सरलतम रूप में व्यक्त हो रहे हैं और सहज
ही पाठक
से बेहतर संवाद करने की स्थिति में है। पाठक का कविता से सहज ही जुड़ जाना आसान
हुआ है क्यूंकी कविता के विषय आम आदमी के जीवन से उस की रोजाना की
जरूरतों व मुशकिलात से जुड़े हुए हैं।
सामान्य जीवन के दैनिक अनुभव
एवं मुश्किलात ही
शब्द रूप में हमारे सम्मुख प्रस्तुत हुये है फलस्वरूप जुडाव त्वरित. सहज एवं
सरल हो सका।
प्रस्तुत संग्रह की अमूमन प्रत्येक कविता उनके चिंतन को दर्शाती है।
कविता “ओस गिर
रही है” एक बेहतरीन कविता कही जा सकती है,
ओस गिर रही है /
पत्तियों पर
और गिर रहा है
अंधेरा / कंधों पर
गिर रहे हैं
स्वप्न भी / अवचेतन से निकालकर
सुप्त मानस के
चित्रपट पर / कि जैसे सोती हुई स्तब्धता पर
गिर रही है ओस
उनकी कविताओं से एक आम
इंसान की संघर्षशीलता सहज ही नजर आती है। उनकी कविताओं में भाषा एवं अभिव्यक्ति
में सरलता एवं सादगी है |
उनकी कविता अभिव्यक्ति
का ऐक ऐसा माध्यम है जो सटीक रूप में एवं पूर्ण सत्यता से वास्तविकता को सामने
लाते हुए समाज का दृश्य सामने रख देती है। हर वह क्षण. घटना अथवा दृश्य जो कवि
हृदय को कहीं न कहीं उद्वेलित करता है वह सहज ही कविता रूप में ढल कर हमारे सम्मुख
आ जाता है।
बीते दिनों को याद दिलाती है कविता “कविता अब वो
गाँव कहाँ” तो वहीं बीते दिनों की एक कसक दिखलाती है एक और कविता “दूर तक देखता
हूँ”।
तो तीखा तंज़
है वर्तमान अशांत तेज भागम भाग सुकून रहित ज़िंदगी पर :
चाहिए मुझे
एक घर / जहां शरीर को उतार कर / टांग सकूँ अलगनी में
आत्मा से भी
/ छुड़ाकर पीछा
गम हो सकूँ
/ सुकून के लिये /
समय की महीन
बुनावट में.
सभी अत्यंत
भावपूर्ण एवं कुछ खोजती सी कविताओं के बीच कविता “औरत” का उल्लेख अनिवार्य है.
जिसे बार बार पढ़ने पर हर दफा कुछ नया महसूस होता है :
काली जमीन
वाली / छींटदार साड़ी
सूखने को
फैली है आकाश में
एक श्वेत
चूहा / लिए जा रहा है खींचे
हवा सहलाती
है पेड़ों के केश / और वह नग्न औरत
लेती है.
पूरे पृथ्वी के शीतल एकांत में
अंतः
शलिला होकर / प्रवाहित है वह औरत।
एक
संग्रहणीय काव्य संग्रह जिसे बार बार पढ़ने हेतु विवश हो जाना है.
अतुल्य
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