Lampat By Ravindra Kant Tyagi

 

लंपट [कहानी संग्रह]

द्वारा : रवींद्र कान्त त्यागी

विधा:  कहानी 

देवप्रभा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित

प्रथम संस्करण: 2022

मूल्य: 200

समीक्षा क्रमांक : 128

 


जमीन से जुड़ी, अपनी मिट्टी अपने लोगों की बात, खालिस उनके ही अंदाज में कह देने में महारथ  हासिल है त्यागी जी को,  यह विचार  एक बार पुनः उनकी चुनिंदा 18 कहानियों का संग्रह “लंपट ” पढ़ कर पुख्ता हो गए। राजनीति से भी लंबे समय तक जुड़े रहने के बाद जीविकोपार्जन से अतिरिक्त अपना समय उन्होंने लेखन कर्म को दिया है एव दीर्घ काल से साहित्य लेखन कार्य से सम्बद्ध हैं, उनकी कहानियों से स्पष्ट ही लक्षित हो जाता है की वे अपनी मिट्टी व अपने अपनों के बीच हैं, क्यूंकि कथानक पर परिवेश का प्रभाव न आए यह लगभग नामुमकिन ही प्रतीत होता है।

एक विशेष बात जो त्यागी जी को पढ़ने के बाद कहना चाहूँगा की उन्हें पढ़ते वखत यह प्रतीत नहीं होता की कोई किस्सा पढ़ रहे हैं । यूं आभास होता है मानो कोई सच्ची घटना का वर्णन सुन रहे हों।




विभिन्न कथानकों में  उनके कथ्य को देखकर उनका अपनी मिट्टी से जुड़ाव सहज ही सम्मुख आ खड़ा होता है। वे जीवन में हर उस दौर से गुजरे जिस के चलते दुनियादारी , इंसान की परख सहज ही हो जाती है एवं यही कारण है कि बात चाहे घर घर की चूल्हे चौके की हो, अथवा चौपाल की , राजनीति की हो अथवा घरेलू मसले सभी कुछ वे इतनी वास्तविकता एवं सहजता से बयान कर जाते की पाठक को यह कहानी न मालूम हो कर वास्तविक घटनाक्रम की आँखों देखि प्रस्तुति जान पड़ती है।  

 जीवन के लंबे संघर्ष की छाप उनके कथानकों से उनके तजुर्बे बयां कर जाती है। संभवतः यही कारण है कि उनके कथानक में आम आदमी की, परिवार की , गाँव व मिट्टी की ही बात होती है। प्रत्येक विषय पर एवं उसके प्रत्येक प्रसंग पर सूक्ष्म विश्लेषणात्मक उनका  गहन चिंतन स्पष्ट दिखलाई देता है।

कथानक की विषयवस्तु को पूर्णतः समझकर विचारण के पश्चात या कहें की गहन शोध के बाद, एवं बेशक मामूली ही सही किन्तु लघु प्रसंग पर भी उनका  गहन विचारण कथानक को निरंतर गतिमान बनाए रखते हुए किसी भी स्तर पर कथानक को उबाऊ नहीं बनाता और यही सारी विशेषताएं उनकी शैली की  विशेषता है। कथानक में सहज सरल प्रवाह बनए रखते हुए विषयवस्तु पर केंद्रित रह इस बात पर विशेष ध्यान रखते हैं कि कथानक कहीं बोझिल न हो जाए । कहानी के भाव एवं विचार को स्पष्ट करने से पाठक निरंतर कथानक से अपना जुड़ाव महसूस करता है। 

प्रस्तुत कहानी संग्रह की कहानी “प्रतिघात” , राजनीति की आढ़ में, तथाकथित जन प्रतिनिधियों और  नेताओं के चमचों द्वारा बाज दफा स्वयं नेताओं द्वारा भी जिस तरीके से अपने रुतबे का इस्तेमाल करते हुए गैर कानूनी काम , यहाँ तक कि दुष्कर्म जैसे घृणित   कृत्य कर पुलिस पर अपने रुतबे का इस्तेमाल करना , और, एक तो यूं ही मिलना मुश्किल है पर खुदा न खास्ता, यदि कोई  ईमानदार पुलिस वाला मिल ही गया जिसकी आत्मा अभितलक जीवित हो तो उसे कैसे धमका कर अपने पक्ष में करने के प्रयास किए जाते हैं यह अत्यंत सहजता एवं मौलिकता के साथ दर्शाया गया है। प्रस्तुत कथानक भी एक ऐसे ही पुलिस वाले के विषय में है जिसकी आत्मा दम तोड़ते  तोड़ते आखरी क्षणों में पुनर्जीवित हो उठती है ।

 “डूबती सांसे” बेहतरीन अंदाजे बयां के साथ बेहद मार्मिक चित्रण है उस अवस्था का जब की अवसान की घड़ी आ चुकी हो,और उसका  मात्र दस्तक देना ही बाकी रह गया हो और उन हालात में जिजीविषा तथा मानसिक संतुलन की एक आदर्श अवस्था का चित्रण करती है।

“परवाज” , बड़े राजनैतिक दलों की स्वयं स्वार्थ सिद्धि  की कामना   के चलते उनके द्वारा कालेज स्तर की राजनीति को भी  किस कदर प्रदूषित कर चुके हैं, इसका महज एक छोटा सा उदाहरण सामने रखती है। युवा पीढ़ी के बीच नफरत फैलाते राजनेता, शिक्षा जिनके लिए मात्र व्यवसाय बन कर रह गया है ऐसे शिक्षाजगत से जुड़े लोग जो जातिवाद , वर्गवाद फैला कर सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेना चाहते हैं वे कैसे विष  बेल को सींच कर वृक्ष बना रहे हैं अत्यंत सारगर्भित एवं सूक्ष्मता से एक गंभीर विषय को वृहद पैमानों में स्वयम में समाहित किए हुए है “परवाज”।

सदियों से शहर हो अथवा ग्रामीण परिवेश, हर घर की, घर घर की  कहानी वही है, भाइयों के बीच जमीनों के बँटवारे के विवाद तो कभी छोटे छोटे घरेलू मसले, त्यागी जी द्वारा प्रस्तुत “सारा जग मेरा परिवार” कथानक का अत्यंत सरल मनभावन चित्रण जो बेहद तरोचकएवं सारस है यूं प्रतीत होता है मानो हम उन्हीं पात्रों के संग संग कथानक को जी रहे हैं।

तनिक शिथिल  मंदबुद्धि के व्यक्ति की मलकीयत की ज़मीन के छोटे दसे भाग के लिए , कैसे सहोदर भी दुश्मन बन जाते है, उसके विवाह में भी मात्र इसी लिए रुकावटें खड़ी करते हैं ताकि उसकी जमीन का टुकड़ा उन्हें मिल जाए पर  कैसे कोई बाहरी अपना बन कर रक्षा कवच सा बन जाता है ।

प्रस्तुत कथानक में विभिन्न विषयों का समावेश किया है अतः यह कथानक यूं  कहें तो विधवा विवाह पर आधारित भी कह सकते हैं,  या फिर जमीन जायजाद से संबद्ध भी किंतु सामान्य कथानक होते हुए भी चित्रण अत्यंत सरस एवं रोचक है।

इसी संग्रह की कहानी “अंकुरण” की नई एवं ग्राह्य परिभाषा प्रस्तुत करती है। इस कथानक के द्वारा उन्होंने ब्रम्हचर्य के व्यापक रूप को सम्मुख रखा है।

तो “वो एक पल” हालातों से विवश हो अधूरी रह गई एक प्रेम कथा , प्रिय  का प्रियतमा  के प्रति स्वयं को अपराधबोध से ग्रसित रखना एवं नायिका का चंद मीठी यादों को सँजोये रख कर जीवन बिता देना जैसे किसी भी आदर्श प्रेम कथा के  समस्त अनिवार्य अंगों का सुंदर समेकित प्रस्तुतीकरण है।

“हमाम के नंगे” शीर्षक है इस संग्रह की उस लंबी कहानी का जिसमे, राजनैतिक व्यवसाय में सत्ता प्राप्त करने की की स्पर्धा को , कुशल व्यवसायी समान दांव पैंच एवं कूटनीति में महान एतिहासिक पात्रों को भी आईना दिखलाते एवं कुर्सी हथियाने हेतु किसी भी स्तर तक गिरने एवं गिराने में किसी भी प्रकार की शर्म अथवा गुरेज न करने वाले तथाकथित जननेताओं के मार्फत सत्ता के गलियारों के घृणित  खेल को दर्शाने में त्यागी जी बखूबी कामयाब रहे हैं।

 सत्ता की चाहत में जिनका सफेद हो चुका शीतल लहू और जिनके लिए स्वार्थ ही सर्वोपरी  हो वे रिश्तों की बली चढ़ा देने में कोई परहेज़ भला क्यूँ कर करेंगे ।

एक और कहानी “विसंगति” यूं तो एक सरकारी अस्पताल के एक वार्ड से संबंधित कहानी है, जो जीवन में सकरात्मकता के महत्व को भी समझ जाती है और उस पर अंदाजे बयां भी कुछ ऐसा है कि दम साध के पढ़ने को विवश होना पड़ा,

यहाँ एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि त्यागी जी के पास वह हुनर है की वे आपको सहज ही कथानक से जोड़ देते हैं और आप स्वयं को या तो कथानक के पात्र में स्वयम को देखने लगते हैं अथवा स्वयम को मौका ए कहन पर पाते हैं अर्थात कहानी को अपनी आँखों से देखने लगते है।

“का संग खेलूँ होली” , एक कहानी जिस के जरिए लेखक ने हमें अपने गिरेबाँ  में झाँकने को विवश कर दिया। विगत एक अरसा जिसे हमने अत्यंत गुरूर के साथ विकास काल कहा और समझा, वही हमारे व्यक्तिगत तथा सामुदायिक चारित्रिक पतन का चरम काल भी रहा जिस पर शायद ही हमने कभी गौर किया । कहानी में त्यागी जी जिक्र करते हैं एक गाँव  का जहां कुछ समय  बाद अपने गाँव लौट कर आया युवक गाँव की जो छवि लेकर लौटा   उस       के विपरीत किन वास्तविकताओं से उसका सामना होता है , एवं इस घटना क्रम के द्वारा पाठक को समाज एवं व्यक्ति का चारित्रिक पतन एवं अन्य बुराइयों का प्रभाव भी देखने को मिलता है।

कमोबेश आज भी हिंदुस्तान में विवाह योग्य कन्या को सजावट की वस्तु बना कर पेश करने का रिवाज बदस्तूर जारी है और भले ही रिश्ता जुड़े या नहीं किन्तु होने वाले ससुराल पक्ष के लोग स्वयं को कीस कदर सुपीरियर समझते हैं यह अमूमन हर किसी ने काभी न काभी देखा सुन अथवा महसूस किया होगा। इसी बिन्दु पर या कहे इस कुरीति पर त्यागी जी ने अपनी कहानी “कब तक “अबला” के जरिए सशक्त प्रहार किया है। अंतिम पंक्ति तक का रोमांच इसे पठनीय बनाता है साथ ही त्यागी जी का विशिष्ट अंदाजे बयां तो है ही।

प्रस्तुत पुस्तक संग्रह की शीर्षक कहानी “लंपट” का कथानक , कहा जा सकता है कुछ हट कर ही है। कहानी , शातिर धूर्त किस्म के तथाकथित भूत प्रेत बाधाओं को दूर करने वाले ओझा और एक ग्रामीण महिला के बीच गढ़ी गई है जो की संभवतः किसी वहम के चलते ही अपने पति पर शक करने लग गई है एवं उसे धूर्त ओझा  की मदद से उस दूसरी स्त्री की छाया से भी मुक्त करवा लेना चाहती है । अन्य कहानियों की तरह ही इस कहानी को भी दम साध कर अंत तक पढ़ने पर विवश करती हुई शैली है एवं  कथानक ग्रामीण पृष्टभूमि में अपने स्वाभाविक रंग में है ।

अन्य कहानियाँ यथा “ठोकर”, “सिर्फ तुम”, “लाल सलाम” आदि भी अपनी विशिष्ट शैली एवं कथानक के कारण पठनीय हैं।  

अतुल्य  

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