Adhlikhe Panne By Dharmpal Mahendra Jain

 

अधलिखे पन्ने

अधलिखे पन्ने 

द्वारा :धर्मपाल महेंद्र जैन

विधा :कविता संग्रह 

New World Publication द्वारा प्रकाशित 

मूल्य 250.00

प्रथम संस्करण : 2024

समीक्षा क्रमांक :127


विगत 30से भी अधिक वर्षों से कनाडा में जा बसे  धर्मपाल महेंद्र जैन जी मूलतः मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र झाबुआ से हैं एवं आज भी वे अपनी भाषा अपनी मिट्टी से किस कदर जुड़े हुए हैं ये उनकी कृति प्रस्तुत काव्य  संग्रह “ अधलिखे पन्ने” की विभिन्न रचनाओं के द्वारा स्पष्ट लक्षित है।

प्रस्तुत काव्य संग्रह अधलिखे पन्ने उनका तीसरा काव्य संग्रह है, इसके पूर्व उनके  "कुछ सम कुछ विषम" और "इस समय तक"  काव्य संग्रह आ चुके हैं, किंतु फिर भी अभी उनके अंदर कितना कुछ घुमड़  रहा है जो बाहर आने को बेताब है उनके इस आत्मकथ्य से प्रकट होता है कि : कितना भी लिख लूँ कविता हमेशा ही बकाया रहती है एक ओर यह उनकी कविता को जी लेने की जिजीविषा को तो दर्शाता ही है साथ ही उनके मानस में घूमते हुए विचारों के विशाल  सागर का भी आभास देता है। कविता में कुछ और की गुंजाइश सदैव ही बनी हुई है वे कहते भी हैं  की कविता की यात्रा निरंतर है एवं  पाठकों के लिए यह कथन भविष्य में और भी बहुत कुछ बेहतरीन साहित्य प्राप्त होने की दिशा में एक आश्वासन के रूप में भी देखा जाना चाहिए।

 दीर्घ काल से विदेश में जा बसने के बावजूद, हिंदी भाषा से उनका जुड़ाव उनकी भिन्न विधाओं में किए गए प्रकाशित  सृजन से तो जाहिर होता ही है , प्रस्तुत काव्य संग्रह की यूं तो अधिकतम रचनाएं भारतीयता के रंग में रंगी हुई हैं एवं भाव भाषा व परिवेश पूर्णतः हिन्दुस्तानी है इसी तारतम्य में “मंडी”, “राम राम दद्दू” , “कोरोना” , आदि रचनाएं  उनका भारत और यहां की जमीन से जुड़ा उनका अंतरमन  दोनों को ही खूबसूरती से  दिखलाती हैं ।

 अनेकों साझा संकलन में प्रकाशित रचनाएं भी उनके सतत साहित्य सृजन का परिचय है। जहां उनकी अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं वहीं भिन्न  साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाएं हजार का आंकड़ा भी पार कर चुकी हैं साथ ही भिन्न पत्रिकाओं में निरंतर स्तम्भ लेखन एवं सम्पादन भी उन्हें निर्विवादित रूप से उन तमाम सम्मानों एवं पुरुस्कारों द्वारा उन्हें नवाज़ा जाना  स्वतः ही अभि प्रमाणित करता है।

 वे स्वयं को यूं तो किसी एक विधा में नहीं बांधते किंतु उनके सृजन कार्य को देखते हुए  मूलतः व्यंग्य लेखन  को उनकी मुख्य विधा कहा जा सकता है । हालांकि काव्य सृजन के क्षेत्र में भी उनकी कलम अपना अमिट प्रभाव छोड़ती है।  कहा जा सकता है की व्यंग्य लेखन एवं काव्य को उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति का साधन चुना है।

 जैसा कि इस पुस्तक के प्रारंभ में आत्मकथ्य में वे स्वयं  ही कहते हैं की उनकी कविताओं में उनके ऊपर भिन्न राष्ट्रों के उनके प्रवास का, वहां की संस्कृतियों का प्रभाव स्वत: ही आ गया है अस्तु कविताओं को एक व्यापक सोच मिली तथा उनकी रचनाएं एक विहंगम कैनवास पर उनके भावों के रंगों द्वारा सृजित तस्वीर है। 

 उनकी कविताएं भी कहीं न कहीं एक व्यंग्य का पुट लिए हुए सम्मुख आती हैं जो अपने में तीक्ष्ण तंज़ भी समाहित किए हुए हैं,  किंतु यह कथन समान रूप से सभी कविताओं के विषय में नहीं कहा जा सकता।

 कोरोना की विभीषिका को सभी ने अपने नजरिए से देखा और उस दौर की विवषताओं को वर्णित भी  किया किंतु महेंद्र जी ने तो ईश्वर की विवशता को ही अपनी कविता ,"इक्कीसवीं सदी का ईश्वर" में दर्शा दिया है, जो की उनकी व्यापक एवं कुछ भिन्न सोच को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त कोरोना महामारी का दर्द अपनी 5 कविताओं के द्वारा उकेरा है जहां विस्तार से इस महामारी की पीढ़ा एवं तब की मानसिक अवस्था इत्यादि का वर्णन मिलता है।

सीधी सरल भाषा , कहीं कोई लाग लपेट या क्लिष्ट शब्दों के भंवर  जाल में पाठक को उलझाने का किंचित प्रयास भी नहीं है। उनके शब्द व कहन का सरल बेलौस भाव बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सीधे ही अपना काम कर जाते है।

 उनकी कविता सरल है और कितनी सरल यह इस पुस्तक में शामिल  उन्ही की एक रचना "कविता के    लिए" से बहुत स्पष्ट हो जाता है एवं उनकी विचरण शैली को भी सामने ला रखता है 

पिता नही समझते कविता

न ही मां समझती है इसे

में कुछ लिख कर खुश हो भी लूं तो 

बेमानी लगता है ऐसा लिखना 

सरल होना सहज होना 

कविता होना है उनके लिए

और कविता बनी कैसे उसमें वह सरलता कैसे व्यापी यह दर्शाती है कविता “तपन” 

भूख लगी तो लिख गया पहला शब्द

वही बना वाक्य फिर विचार 

.....

.....

तपती रही भीतर

एक कविता

 उनकी सभी कविताएं उनके व्यक्तिवादी न होकर व्यवस्थावादी होने का स्पष्ट परिचय देती हैं तभी तो उनकी व्यवस्था से असंतुष्टि बार बार सामने आती है और इसी क्रम में व्यवथा पर तंज करती हुई कुछ तीखा मिजाज लिए हुए कृति "2023की कविता" है जो एक ओर तो तीखा कटाक्ष करती है साथ ही व्यवस्था के साथ साथ लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कटघरे में ला खड़ा करती है जहां वे कहते हैं कि:

प्रेस को बधाई

भारत के पत्रकार

अमेरिकी राष्ट्रपति को

समझदार लागते हैं 

अमेरिकियों के मुकाबले। 

अत्यंत गंभीरता से मानो किसी पैने नश्तर से चीर कर रख दिया हो  उन्होंने जब इसी कविता में वे कहते हैं की 

कागजों पर बेकारी बहुत कम है 

हकीकत में छोटे धंधे बंद हैं 

संसद अच्छे कानून पास कर रही है 

बड़े धंधे तेजी से फैल रहे हैं 

सरकार बहुत अच्छी है

पांच किलो अनाज मुफ्त दे रही है 

और

सहज न्याय की व्यवस्था है

इसे  लिंचिंग कहना पाप है 

प्रशासनिक  व्यवस्था के साथ ही पुलिसिया दमनकारी कार्यवाहियों को भी गंभीरता से लक्ष करते हुए पैना आघात करते है जब वे अपनी कविता “बेकाबू” में कहते हैं कि:

सरकार कहती है 

भीड़ बेकाबू हो गई थी 

जनता कभी नहीं कह पाती

हिंसक पुलिस बेकाबू हो गई थी

 भारतीय शासकीय कार्यालयों एवं कैनेडियन कार्यालयों की कार्य प्रणाली के अंतर को दर्शाती और कहीं बेहत शांति से चाबुक मारती हुई रचना है "आत्मीय लोग" , वहीं अध्यात्म भाव से सृजित  है उनकी इसी संग्रह से  "मेरे भीतर कितने मैं हैं"

 वे मात्र व्यंग्य ही नहीं कहते उनकी कविता में भी प्रेम है, इंतजार है, लौट आने की आस है, और जो अन्य कविताओं में भी देखने में आया वह है खूबसूरत प्रकृति का खूबसूरती से वर्णन जो यहाँ हमें मिलता है उनकी कविता "हंसी के कोरस में".

 प्रेम की बात करी तो उसका दूसरा पहलू भी अनछुआ नहीं रहा है , वियोग पर सुंदर रचना काही है “अलविदा की शाम”।

 प्रति दिन बढ़ते व्यभिचार की खबरों ने किस कदर कवि हृदय को व्यथित किया है यह मुक्तक शीर्षक “सन दो हजार पचास” से स्पष्ट होता है जहां उनकी कल्पना है की तब जब मानव मंगल गृह पर पहुंचा तब वहां के वाशिंदों की क्या प्रतिक्रिया  होगी, वे आज के मानव को देख कितनी दहशत में या जाएंगे। आए दिन की बलात्कार की खबरों पर एवं इस प्रवृत्ति पर तथा हाथ पर हाथ धरे बैठे प्रशासनिक अमले पर सटीक वार है ।

 वहीं जीवन की रफ्तार में प्रतिस्पर्धा को बहुत ही सटीक एवं सहज लहजे मे प्रस्तुति की है कविता “शीर्ष पर” में।

 एक आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र आज भी  विकास की बाट  जोहता हुआ उस जनजाति के पुरखों की अपनी मिट्टी से जुड़े रहने की सोच को कहीं न कहीं ललकारता है,  अपनी  कविता “झाबुआ २ अमृत वर्ष” में वे कहते हैं की 

कमीज पहन लेने से दिन नहीं बदल जाते 

कमीज पहनने का रिवाज इस लिए नही बनाया होगा पितरों ने।

कितना गंभीर एवं तथ्य परक शोचनीय कथन है ।

 इस संग्रह की ऐसी एक भी कविता मुझे नही मिली  जिस पर मैं विस्तार से लिखना नहीं चाहता था अर्थात प्रत्येक कविता बहुत कुछ कह जाती है उस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है तथा गंभीर विमर्श भी किया जा सकता है। सम्पूर्ण पुस्तक में समाविष्ट प्रत्येक कविता  गहन चिंतन एवं सोच का परिणाम होने के फलस्वरूप अत्यंत प्रभावी  तरीके से अपनी बात कह जाती  है।

 मंडी व्यवस्था से दो चार होता किसान जिसके किस्से आए दिन सुनने में आते हैं कि  किसान ने कभी खेत जला दिया तो  कभी सड़क पर सब्जियां फेक दी तो काभी स्वयं ही फंदे पर झूल गया क्योंकि दलाली व्यवस्था के चलते उसके उत्पाद की  लागत भी नही निकल रही थी, इसी पीढ़ा को अपनी नज़र से देख कर शब्द दिए है कविता “मंडी” में।

 तीन भागों में लिखी गई “मैं तुम्हारी अप्रसवा मां” पहले दूसरे और तीसरे बार गर्भ गिर जाने पर एक मां की व्यथा को दर्शाती है अत्यंत मार्मिक रचना , तीनों ही बार स्थितियां बदल गई है पीढ़ा बढ़ती जाती है ।

 और यूक्रेन युद्ध की विभीषिका के बीच देखें कितनी मार्मिक बात कही है कविता “बूढ़ी औरतें” में

बूढ़ी औरतें

भूख को अपने भीतर सुला कर

बंकर को रखना चाहती हैं कुछ भरा 

कि बच्चे एक दिन और बड़े हो जाएं

 और “बच्चे नहीं जानते” में भी युद्ध की विभीषिका का ही वर्णन है जिसका कारण बच्चे नहीं जानते तो कविता “गुबार” का विषय भी युद्ध ही है और कहना न होगा की इन सभी कविताओं के द्वारा युद्ध की विभीषिका से व्यथित कवि हृदय के भाव हमें देखने को मिलते हैं।

 खूबसूरत विचारों को कैसे सुंदर शब्दों में बांधा गया है यह दर्शाती है, कविता “यादें” जहां

वे कहते हैं कि:

तुम्हारी अनुपस्थिति में मैँ

आकार देता हूं अनुभूतियों को

मेरी उंगलियां 

तुम्हारे कल्पित स्पर्श से संचित ऊर्जा  

पहुंचा देती है मेरे भीतर तक।  

वे जब भी बुनती हैं तुम्हें

आकृतियां नहीं होती वहां.. ..

वहीं हमारी मानसिकता पर आस्था किस कदर हावी है यह बड़ी ही चतुराई से कह गए  हैं अपनी कृति “देवता” में ।

 परिवेश एवं व्यवस्था  पर तंज कसती एक और कविता है “उत्सव के नगाड़े” जिसकी  प्रत्येक पंक्ति में वृहद एवं गंभीर अर्थ पिरोए गए हैं जो अत्यंत कड़वे सच को उजागर करते हैं पर ऐसा सच जिसे सब जानते हुए भी अनदेखा ही करते हैं

यूं तो प्रत्येक कविता भावों का एक सागर है और उस पर कुछ, या कहूँ तो बहुत कुछ लिखा जाना चाहिए किन्तु पुस्तक को पढ़ने और उसके विषय में अपनी राय बनाने हेतु पुस्तक और पाठक के बीच से मैं यहाँ , इसी संग्रह से कविता “मौन” की इन  सुंदर पंक्तियों के साथ अपनी बात समाप्त कर रहा हूँ ,   

मौन एक प्रतिक्रिया है

मुस्कुराहट के बलिदान पर

मनोरंजन करते हुए जो मुस्कुराहट

अभी अभी शहीद हो गई

उसे श्रद्धांजलि देते हैं हम 

अतुल्य

पुस्तक amezon  पर उपलब्ध है.  

 

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