Khil Uthe Palash By Jyoti Jha
खिल उठे पलाश
खिल उठे पलाश
द्वारा ज्योति झा
विधा: उपन्यास
मोनिका प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित
प्रथम संस्करण 2020
मूल्य 400.00
समीक्षा क्रमांक 123
ज्योति झा नारी मन के झंझावात को खूबसूरती से उकेरने के अपने विशिष्ठ हुनर के लिए बखूबी पहचानी जाती हैं । पूर्व में भी उनकी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ था जिसे पाठकों द्वारा पसंद किया गया था एवं साहित्यिक गलियारों में उनकी समय समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं के ज़रिए दी जाने वाली पुरजोर दस्तक, साहित्य मनीषियों के बीच गौर से सुनी जाती है। कहानियों के लिए उन्हें विभिन्न साहित्यिक मंचों द्वारा पुरस्कृत किया गया है जो स्वतः ही उनके उत्कृष्ठ कार्य की दास्तान बयां करता है।
नारी मन के सुलझते उलझते विचारों के बवंडर में जीवन
के विभिन्न आयामों को अत्यंत खूबसूरती से दर्शाता हुआ कथानक है “खिल उठे पलाश”, जो
एक ऐसी नारी के मन में घुमड़ते हुए उन विचारों को सामने लाती है जो पति के
द्वारा छोड़ देने के बावजूद भी उसके लिए मन के किसी कोने में छुपे मोहपाश से
ग्रस्त हैं, वही अपने पुत्र की सुरक्षा को लेकर अत्यधिक
सतर्क है तो अपने सहकर्मी जो एक बेटी का पिता है उसे चाहते हुए भी उस की संगिनी बनने
के आमंत्रण को स्वीकार नहीं कर पाती। विदेश की जमीन पर सम्पन्न एवं सुशिक्षित
परिवारों की आसान सुखद आरामदेह जीवन शैली के बीच , परिवार की अपने दायरों को समझते
हुए देशी संस्कारों को सुरक्षित रख विदेश में रहते हुए भी अपनी मिट्टी, अपने घर से
जुड़े रहने के साथ वहाँ के
मनोरम दृश्यों एवं सैर सपाटे का सजीव
चित्रण प्रस्तुत किया है।
बाल मन के विभिन्न उतरचढ़ाव , पिता के प्रति जागता
मोह , उस सब के बीच करीबी जनों का सहयोग जैसे विषयों को भी
सहज ही सूत्र में पिरो लिया है । सहज सरल भाषा है एवं वाक्य विन्यास भी सामान्य है
व्यर्थ अलंकरण नहीं है किंतु फिर भी शैली
आकर्षक है हालांकि विषयवस्तु के स्वयं में गंभीर होने के चलते कहीं कहीं बोझिलता आ
गई है अन्यथा एक सिंगल मदर के मानसिक हालत को बहुत सुंदर तरीके से अभिव्यक्त किया
है ।
संबंध को निभा ले जाने की संस्कारी मानसिकता के पीछे
कहीं अन्दर दबी हुई नापसंदगी के संग प्रेम के बीच, परित्याग के कारण मानसिक स्तर पर
आलम्ब तलाशती जिंदगी एवं किन्ही कारणों से पूर्व पति का फिर साथ में आना, जैसे कुछ ऐसे
हालात हैं जो पाठक को विभिन्न वैवाहिक स्थितियों की पश्चातवर्ती मानसिकता पर
सोचने को विवश करते हैं । बेहद शांति एवं संजीदगी के संग पढ़ा जाने वाला कथानक है
।
एक सामान्य कथानक की तुलना में पात्र कुछ ज्यादा ही
हैं तथा दीर्घ अंतराल पर जिक्र आने पर अवश्य ही पिछले पृष्ट पलटने को विवश होना
पड़ता है ।
पति से तलाक के बिना ही अलग रहते हुए किंतु दिली रूप से जुड़े होने और उस की मृत्यु के पश्चात
बेटे की विमुखता, वापस विदेश आने को विवश कर देती है जहां अपने के अलावा सभी हैं
फिर भी स्थितियों के लिए स्वयं को ही जिम्मेवार मानना कहीं न कहीं
किसी गंभीर सोच , कोई अव्यक्त स्नेह अथवा प्रेम जनित भावना का आभास देती है जो सम्मुख
न होते हुये भी अपनी उपस्थिति का अहसास करवा जाती है।
उत्तरार्ध बेहतर बन पड़ा है उलझते रिश्तों की दास्तान
कुछ ज्यादा ही उलझती गई है जिसके मार्फत संभवतः लेखिका ने नारी मन को , उसकी विभिन्न रिश्तों
की अहमियत को उन्हें निभाने को एवं स्वयं को परिवार के लिए आहूत कर देने को बेहतर
तरीके से प्रस्तुत करा है।
अतुल्य
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