Jiya Kachhu Manat Nahin By Doctor Aruna Pathak
जिया कछु मानत नाहीं
विधा कहानी संग्रह
द्वारा डॉक्टर अरुणा पाठक
True Sign पब्लिकेशन
द्वारा प्रकाशित
प्रथम संस्करण : 2024
पृष्ट : 124
मूल्य: ₹.175
समीक्षा क्रमांक :124
सहज सरल भाषा में आम जन की रोज मर्राह की सुख दु:ख के किस्से बयान करती ,
अपने आप में ,जीवन से जुड़े अनेकोनेक आयामों
के , संबद्ध मनोभावों के विभिन्न रंगों को समेटे हुए 16
चुनिंदा कहानियों का संग्रह है "जिया कछु मानत नाहीँ "।
बेशक यह डॉक्टर अरुणा का प्रथम प्रकाशित कहानी संग्रह है किंतु लेखन उनकी
स्पष्ट सोच एवं सुलझे विचारों , विषय वस्तु पर पकड़ तथा गंभीर सोच का परिचय सहज ही दे जाता
है।
कहानी संग्रह का शीर्षक सहज ही आकर्षित करता है , जिसकी अधिकांश कहानी नरिविमर्श आधारित हैं पहली ही कहानी "व्यथा" में एक मां के अंतर्मन की व्यथा को जिस प्रकार बिना शब्द दिए मात्र परिदृश्य के माध्यम से प्रकट करा गया है वह निःसंदेह उनकी अभिव्यक्ति की विलक्षण प्रतिभा को सम्मुख रखता है ।
पुस्तक की शीर्षक कहानी "जिया कछु मानत नाहीं " नोटबंदी के दौरान
आम जन को पेश आई मुश्किलात को बखूबी व्यापक रूप में प्रस्तुत करती है किंतु
पारस्परिक संवाद को भी पंक्ति विच्छेद के बगैर ही निरंतर लिखते जाना , अत्यधिक लंबे
पैराग्राफ निर्मित करता है जो असामान्य तो है ही पाठक
के लिए असुविधाजनक भी है। कथानक में पात्रों के संवाद को लेखन की प्रचलित शैली में
प्रस्तुत करना तथा छोटे छोटे पैराग्राफ सृजित करने से निश्चय ही पुस्तक के
पाठक लाभान्वित होंगे तथा पुस्तक का कलेवर भी आकर्षक बन पड़ेगा।
कहानी के संग प्रस्तुत स्केच किसी अंग्रेजी कहानी से लिया गया रेखांकन है
जबकि कथानक स्वदेश का ही है , इसके पीछे की सोच समझने में असमर्थ रहा हूं ।
तो वहीं तीन पन्ने और एक टॉवेल एक मजबूर व्यक्ति केजीवन संघर्ष को दर्शाती हुई उसके इस संघर्ष में पराजित होने तक के सफ़र को बखूबी दर्शाती है । भावनाओं के प्रवाह की अधिकता के साथ साथ कटु यथार्थ से परिचय करवाती हैं।
कहानी आम आदमी के जीवन से उसके संघर्षों से जुड़ी हुई होने से पाठक कहीं न
कहीं उसमें स्वयं को खोजता हुआ उस से संबद्ध हो जाता है एवं पाठक को संबद्धता के
इस बिंदु तक ला पाना अवश्य ही लेखिका की कलम की सफलता का प्रमाण माना जायेगा।
एक और कहानी "ओस की बूंद" नारी विमर्श केंद्रित होते हुए महानगर में एकाकी
महिला के जीवन संघर्ष को बखूबी दर्शाती है किंतु संभवतः भूलवश ही एक ही
पात्र को राहुल और रोहन लिख दिया
गया है जो की भ्रम की स्थिति निर्मित करता है ।
"दरकता आसमान" पढ़ कर लगा की समय अपने आप को दोहराता है यह जिसने भी कहा
है जरूर ही अपने तजुर्बों से कहा होगा । विदेश में जा बसे बच्चे की समय के साथ
बदलती मानसिक स्थिति , मां पिता की
मानसिक हालात को वास्तविकता के इतने करीब से
दर्शाती है की पाठक स्वयं को पात्रों के बीच ही खड़ा पाता है।
"युगांत का अवतार" प्रभु के कल्कि
अवतार की एक कल्पना है किंतु कथानक विशेष आकर्षक कदापि नहीं करता । कहा जा सकता है
की एक सोच या ख्याल को शब्द देने का प्रयास किया गया है । किसी वस्तु को चिन्हित
कर (यथा इस कहानी में लैपटॉप इत्यादि) उत्सुकता उत्तपन्न कर उस के विषय में कुछ भी जिक्र न करते हुए भुला देना अधूरेपन का एहसास
करवाता है।
"अंतहीन राहे" एक बिगड़ैल बेटे को सुधारने के लिए किसी नवयुवती की बलि चढ़ा
देने जैसे विषय को उठाती है नारी की समस्याओं को केंद्रित करते हुए पितृसत्तात्मक
समाज की विभिन्न बुराइयों एवं समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार है किंतु
लेखिका को कहानी में
विषय वस्तु से इतर भी रोचकता एवं निरन्तरता बनाए रखने हेतु प्रसंग जोड़ने का प्रयास करना उचित
होगा ।
"अंतर्द्वंद
" विदेश में ऊंची आमदनी वाली नौकरी को स्वीकारने अथवा देश प्रेम के चलते उसे
ठुकराने के बीच के अंतर्द्वंद पर आधारित है । आम पाठक को कथा का अंत सहज ही
स्वीकार्य नहीं होगा ।
सांसारिकता से हटकर धर्म एवं आध्यात्म की ओर ले जाती है उनकी अगली कहानी (?)
,"एक बिंदु शिखर और तूंगरीला घाटी" ,जिसमें उन्होंने अष्ट चिरंजीवियों के विषय में
अपनी काल्पनिक कथावस्तु के मध्यम से विस्तृत जानकारी पाठकों हेतु प्रस्तुत की है , पौराणिकता से जुड़ा विषय है जिसे कहानी न कहना हि अधिक बेहतर होगा ।
"बनती बिगड़ती परछाइयां" शासकीय कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार के
विरुद्ध उठ खड़े होने वाले शख्स के खिलाफ किस तरह से साजिशें रची जाती हैं और उसकी
आवाज दबाई जाति है अथवा दबाने के प्रयास किए जाते हैं वहीं तमाम विपरीत अवस्थाओं
के बावजूद समाज सेवा जैसे परमार्थ के कार्य को अपना सब कुछ समर्पित कर अपना जीवन
लगा देने वाली महिला की कहानी है "काल चक्र" ।
प्रेतबाधा और भूत प्रेत से
संबंधित अवधारणा पर आधारित हैं "धरोहर" और "प्रेतबाधा" ।
अतुल्य
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