DARAD NA JANE KOY BY RAMESH KHTRI
दरद
ना जाने कोय
द्वारा :
रमेश खत्री
विधा :
उपन्यास
मंथन
प्रकाशन , जयपुर द्वारा प्रकाशित
प्रथम
संस्करण : 2023
पृष्ट :328
मूल्य : 390
समीक्षा क्रमांक : 120
आंतरिक
रूप से पूर्णतः बिखरे हुए किन्तु सामाजिकता के कारण बाह्य रूप से जुड़े रहने की
विवशता को ढोते हुए भिन्न भिन्न दौर उम्र
एवं परिवेश में प्रस्तुत दाम्पत्य संबंधों
के कई रूप प्रस्तुत किये गए हैं। बातें
बेशक दंपती एवं दाम्पत्य से जुड़ी हुई हों किन्तु फिर भी इस उपन्यास को पढ़ कर एक अधूरी प्रेम कथा ही अधिक प्रतीत हुई जो
अनेकों हालात के चलते एक दृष्टि से विवाहेतर संबंध तो एक ओर अगाध प्रेम एवं वहीं
मुख्यतः पत्नी द्वारा प्रताड़ित एक पति की दो पाटों के बीच पिसते हुए घिसटती हुई
जिंदगी की कहानी है.
हालांकि लेखक यह स्पष्ट नही कर सके अथवा शायद उल्लेख करना उन्हें आवश्यक न प्रतीत हुआ हो कि अचानक ऐसी क्या परिस्थितियाँ बनी कि नायक द्वारा 35 सालों के बाद नायिका को संपर्क साधना पड़ा। क्यूंकि नायिका तो उन्हें प्रथम मुलाकात से ही चाहती थी एवं तभी से मानसिक रूप से उन्हें ही अपना आराध्य मान चुकी थी किन्तु नायक का यूं प्रगट होना क्या मजबूरीवश जब की पत्नी द्वारा भरपूर प्रताड़ना मिल रही हो तब सहज उपलब्ध सरल एकाकी प्रेमी महिला को प्राप्त कर लेना नहीं समझ जाना चाहिए।
नायिका का त्याग एवं समर्पण अद्वितीय
है जिसके व्यवहार , बोलचाल एवं सहज प्रतिक्रियाओं को अत्यंत सामान्य रूप में लिखा
गया है जो बनावटी न होने से बहुत ही सहज रूप से पाठक को कथानक से जोड़ते हैं। वहीं
परिवार के प्रति उसके समर्पण एवं अमूमन सभी के प्रति , फिर वह सहकर्मी हो अथवा
रिश्तेदार, सरलता एवं त्याग की भावना भी सहज ही दर्शाई गई है जो की कथानक के साथ
पूर्ण न्याय करती है।
रमेश
खत्री जी वरिष्ट कथाकार हैं एवं पूर्व में भी उनकी पुस्तकें मैंने पढ़ कर समीक्षा
आप के सामने प्रस्तुत की है अतः यह कहने में कोई दो-मत नहीं हैं ना ही संदेह की वे
आम जन के साहित्यकार हैं। लिखते वह हैं जो की सब के द्वारा पढ़ा एवं समझा जा सके।
कही कोई भारी भरकम शब्दों एवं क्लिष्ट वाक्यांशों का प्रयोग नहीं दिखता जो कि
वर्तमान में पुस्तक को स्तरीय बनाने एवं पुरुस्कारों की दौड़ में शामिल होने हेतु कई
महानुभावों द्वारा किया जाना पाया गया है।
प्रस्तुत
उपन्यास का कथानक सामान्य निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के युवक युवती से जुड़ा हुआ है,
जो यूं तो बाल विवाह जैसी कुरीति को लेकर शुरू होता है किन्तु फिर पैतीस वर्ष आगे
पहुच कर वर्तमान में आ जाता है एवं एक सत्य घटना के मानिंद प्रतीत होता है।
विभिन्न
कुटिल मानसिकता वाली स्त्रियों का होना एवं धूर्त पुरुषों का समाज में पाया जाना न
तो दुर्लभ ही है न ही असंभव किन्तु फिर भी अमूमन पुरुष के दमन एवं स्त्री के प्रताड़ित
होने के ही किस्से सुनने में आते हैं जबकि खत्री जी ने जो हालत प्रस्तुत किये हैं
एवं उन स्थितियों में स्त्री एवं पुरुष पात्रों की मानसिकता तथा व्यवहार को
दर्शाया है वह अपने आस पास की ही कहानी मालूम होती है।
क्षेत्रीय
भाषा का प्रयोग अपने पिछले उपन्यासों में भी खत्री जी बखूबी करते रहे हैं तथा यह
उपन्यास भी उनकी इस प्रतिभा से अछूता नहीं रहा है , हालांकि चंद स्थानों पर मालवी बोली की अधिकता, बोली से
अपरिचित पाठक को थोड़ा असहज कर सकती है हालांकि कथानक को समझने में मुश्किल हो ऐसा
भी नहीं है।
पात्र
संख्या भी सीमित ही रखी गई है जिस से प्रत्येक पात्र को समझने में तथा कथानक से
जुडने में पाठक को सहजता होती है।
कथानक
की विषय वस्तु प्रचलन से थोड़ी भिन्न है क्यूंकि या तो इस प्रकार की कहानियाँ
विवाहेतर शारीरिक संबंधों की ओर झुक जाती हैं अथवा कुछ ऐसे मोड लेती हैं जो कि
वास्तविकता में असंभव भले ही न हों, सरलता
से नहीं देखे जाते जबकि खत्री जी ने बहुत अच्छा सामंजस्य बनाए रखते हुए
पुस्तक में एक गंभीर समस्या को अत्यंत साफ सुथरे ढंग से उठाया है।
एक
सुंदर एवं पठनीय उपन्यास है जिस में कई पाठक निश्चित ही स्वयम को कहीं न कहीं सम्बद्ध कर लेंगे।
अतुल्य
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