Mai Krishn Sakhi By Neelima Gupta
मैं कृष्ण सखी
मैं कृष्ण सखी
द्वारा : नीलिमा गुप्ता
साहित्यागार द्वारा प्रकाशित
पृष्ट : 142
प्रथम संस्करण : 2021
मूल्य : 250.00
समीक्षा क्रमांक : 111
नीलिमा गुप्ता जी का शुमार उन वरिष्ठ लेखिकाओं में है जो गहन अनुसंधान के पश्चात ही अपनी कृति
प्रस्तुत करती हैं। पौराणिक कथाओं के नारी पात्रों को अपने नजरिए से देखती हैं
किंतु विशिष्टता यह है की तार्किक रूप से उनके कथन से सहमत होना ही पड़ता है। इसके
पूर्व उनकी दो पुस्तकें “मैं बाबा का कान्हा” और “मैं हूं सीता” पढ़ी थी एवं दोनो
ही पुस्तकों ने सोच को एक नया आयाम दिया। मेरे द्वारा दोनो ही पुस्तकों के विस्तृत
अध्यन के पश्चात उनकी समीक्षा भी लिखी गई थी जिसका अवलोकन किया जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक “मैं कृष्ण सखी” अर्थात द्रोपदी, के साथ जो कुछ महाभारत के द्वारा हमने जाना है उसे अपने भिन्न नजरिए से प्रस्तुत किया है जो निश्चित ही महाभारत की प्राचीन कथाओं द्वारा दी गई सोच से भिन्न दिशा में ले जाकर विचारधारा में परिवर्तन एवं द्रोपदी के अधोआकलित पात्र को महत्वपूर्ण बना देता है ।
द्रोपदी, महाभारत का एक प्रमुख पात्र हैं जिनका उल्लेख महाभारत ग्रंथ में मिलता है। वह पांचाल नरेश महाराज द्रुपद की पुत्री थीं। द्रोपदी का स्वयंवर एवं अर्जुन द्वारा स्वयंवर में उन्हें जीतना महाभारत के प्रमुख एवं अपरिहार्य कारणों मे से एक है अतः उस पर चर्चा करना अनिवार्य है।
पांचाल नरेश द्रुपद,
द्रौण द्वारा किये गए अपमान की आग में जल रहे थे एवं किसी भी तरह से उनसे
अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे। असाधारण सौन्दर्य की स्वामिनी एवं ज्ञानवान, पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री पांचाली
अग्निगर्भा, दीपशिखा समान तेजस्विनी,
विदुषी, नारी रत्न द्रोपदी,अपने दोनो भाइयों
से भी कई मायनों में श्रेष्ठ थी। पांचाल
नरेश को अपने पुत्रों से कोई उम्मीद न थी एवं तब उन्होंने जामाता के विषय में
विचार किया तो मात्र कृष्ण ही थे जिनमें वे वह सारी खूबियाँ पाते थे जो वे अपने
जामाता में अथवा कहें की द्रौण से बदला ले
सकने वाले व्यक्ति में देखते थे।
कृष्ण नें उन्हें विनम्रता पूर्वक मना करा एवं
तब कृष्ण की सलाह पर ही पांचाल नरेश की
पुत्री द्रोपदी का स्वयंवर आयोजित किया गया ताकि महान धनुर्धर अर्जुन उनके पति एवं
द्रुपद के जमाता बनें एवं कालांतर में द्रुपद की ओर से द्रौण से उनके अपमान का
बदला लें।
उस काल में द्रोपदी के योग्य एक अन्य सुपात्र कर्ण भी
थे किन्तु उनके कुल के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था अतः उनका नाम विचारार्थ नहीं
रखा गया। यह स्वयंवर मात्र एक रणनीति के तहत आयोजित किया गया था, तभी कृष्ण ने द्रोपदी
को "कृष्ण सखी" का दर्ज प्रदान किया एवं सदैव उनकी मदद का आश्वासन तथा हर
मुश्किल घड़ी में उनका साथ निभाने का वायदा कृष्ण ने किया एवं निभाया भी।
ताउम्र द्रोपदी को पुरुष प्रधान सत्ता द्वारा लिए गए
निर्णयों के कारण स्वयं का समझौता करना पड़ा। चाहे पिता की दुश्मनी का बदला लेने
के लिए स्वयंवर का आयोजन या पांच पांडवों को पति मानना और अंत में धर्म राज द्वारा
उसे पापिन घोषित कर देना इत्यादि।
पांडव अपनी माता कुंती के प्रति अत्यंत प्रेम और आदर
रखते थे। सदैव उनकी आज्ञा का पालन एवं सम्मान करते थे तथा उनके प्रति अपनी सेवा एवं
समर्पण का भाव रखते थे।
द्रोपदी को पांचों भाइयों की पत्नी बनाए जाने का
संदर्भ महाभारत में एक अद्वितीय एवं अत्यंत विवादास्पद घटनाक्रम है। जिस पर नीलिमा
जी ने गहन विचार किया है। यह घटना ऐसी है जो धर्मराज युधिष्ठिर व माता कुंती को
मुजरिम के दायरे में खड़ा कर देती है।
सर्वप्रथम तो अपने भ्राता अर्जुन की पत्नी को वस्तु कह
कर माँ को भ्रामक जानकारी देना की “माँ देख हम क्या लाए हैं” तथा माँ ने भी बिना
देखे ही वस्तु को पांचों में बाँट लेने की
बात कह दी।
क्या धर्मराज ने कुंती को जानबूझ कर गलत जानकारी नहीं
दी थी? संभवतः वे स्पष्ट बतला देते तो यह स्थिति बनती ही नही। द्वार पर आते ही
उन्होंने अनुज को जो माँ को
पुकारने ही वाले थे उन्हें रोक दिया एवं स्वयम माँ को पुकार लगाई तथा उपरोक्त बात कही,
क्या उनके दिल में पहले ही खोट थी ।
क्या विद्यमान परिस्थितियों में उनके मन में द्रोपदी
के लिए लोभ आ गया था। तथा उन्होंने सोची समझी नीतिगत चाल के द्वारा तथा माँ के वचन
का हवाला देकर अपनी लालसा पूर्ण करने की राह निकल ली।
यदि तत्कालीन परिस्थितियों का विवेचन करें तो इस स्वयंवर
के वक्त पांडव छुपते हुए विचरण कर रहे थे, हालत अच्छे नहीं
थे, भीम का व्याह हो ही चुका था एवं
स्वयंवर के द्वारा अर्जुन का विवाह भी द्रोपदी से हो चुका था, विद्यमान परिस्थितियों में युधिष्ठिर, नकुल व सहदेव के व्याह की संभावनाएं कदापि नहीं थीं, क्या यह भी एक कारण नहीं था की युधिष्ठिर ने कुंती को भ्रामक जानकारी दी
ताकि उनकी द्रोपदी के प्रति लालसा भी पूर्ण हो सके एवं उनकी इस कलुषित लालसा को
माँ के वचन का आवरण भी प्राप्त हो सके।
इस पुस्तक के अध्ययन के पश्चात द्रोपदी के विषय में
एक नई दिशा में तार्किक सोच विकसित होती है वहीं युधिष्ठिर एवं कुंती के विषय में सोच
पूर्णतः बदलती प्रतीत होती है। वह भी प्रस्तुत
परिस्थितियों में प्रमाणों के द्वारा तार्किक रूप से।
स्वयंवर से लौटने के पश्चात जिसमे कुंती भलीभांति जानती
ही थीं की अर्जुन अवश्य ही सफल होंगे, तथा कुंती को यह तो विदित ही था की स्वयंवर
से लौट कर लाई जीती हुई कोई वस्तु नहीं अपितु पांचाली ही है जिसके स्वयंवर हेतु वे
गए थे किंतु उन्होंने कुटिलतापूर्वक उसे पांचों भाइयों में बटवा दिया तथा बाद में
अपने वचन से असत्य हो जाने का दबाव डाल कर उसे पलटने भी नहीं दिया।
उन्हें असत्यवादनी न कहलाना पड़े,भले ही उस के लिए
पुत्रवधु सारा जीवन कलंकित स्त्रीत्व तथा दागदार छवि के संग व्यतीत कर दे। बिना द्रोपदी की सहमति के ही उसे पांच पुरुषों की
पत्नी बनाना पड़ा। और अर्जुन जो की स्वयंवर जीतने के कारण उनके वैधानिक पति थे, निःसहाय माँ एवं
ज्येष्ठ भ्राता की बातों पर चुप रहे तथा अपनी आँखों के सामने अपनी पत्नी के साथ
होते इस अधर्म पर द्रोपदी के विश्वास की रक्षा न कर सके ।
वहीं कुंती
ने कर्ण के विषय में सच छुपा कर रखा क्या उस सत्य का छुपाना उचित एवं नैतिक था जो
अब कुंती अपने वचन के असत्य हो जाने को लेकर इतनी व्याकुल थी। द्रोपदी की इस अवस्था हेतु
क्या वे भी समान रूप से दोषी नहीं थीं।
धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा युद्ध में अश्वथामा की
मृत्यु का अस्पष्ट वचन क्या उचित था। वास्तव में कुंती हो या युधिष्ठिर दोनो ने ही
अपनी सुविधानुसार सत्य को ग्राह्य अथवा
अस्वीकार किया।
विभिन्न स्थितियों में कृष्ण भी बेवश ही प्रतीत होते
है यथा पांचों भाइयों से विवाह हेतु उनका कुंती को राष्ट्र एकता के हित में विवाह
हेतु समझाना ताकि पांचों भाई एकसाथ बने रहें, हास्यास्पद प्रतीत होता है वही कृष्ण
की जो हैसियत उस परिवार में एवं उस काल में थी उस के तहत क्या वे इस स्थिति में कुंती
को नहीं समझा सकते थे अथवा धर्मराज को ही ज्ञान दे देते जैसा की युद्ध क्षेत्र में
उन्होंने अर्जुन को दिया, क्यू ,क्यूंकी
वहाँ कुल की बात थी सत्ता की बात थी एवं यहाँ सिर्फ एक नारी की मर्यादा ही तो
कलंकित हो रही थी इसके उलट वे द्रोपदी को ही समझाते हैं कि तुम परिस्थिति को नीयति मान
कर स्वीकार करो ।
महाभारत में इस घटना का वर्णन है जब पांडव अपनी अंतिम
यात्रा के लिए हिमालय की ओर बढ़ रहे थे और उनकी पत्नी द्रोपदी भी उनके साथ थीं।
द्रोपदी थक कर गिर पड़ी और पांडव उन्हें पापिन कहकर आगे बढ़ गए तथा युधिष्ठिर
द्वारा उन्हे पापिन कहने का कारण जो उन्होंने अपने चारों भाइयों को बतलाया वह
कितना हास्यास्पद था की उसने अर्जुन को अधिक चाहा जबकि वह पांचों की पत्नी थी।
इस घटना में पांडवों का यह व्यवहार उनके अंतिम यात्रा
की परिस्थिति को तो दर्शाता है किन्तु प्रमुखता से द्रोपदी के प्रति उनकी
असहानुभूति को प्रकट करता है। वे पांच पति जिन्हें द्रोपदी ने विवशता में अपनी मन
की राय के विरुद्ध नैतिकता के परे जाकर स्वीकार किया,वही उसे ठुकराकर
मुक्तियात्रा पर असहाय अवस्था में छोड़ कर निकल पड़े ।
अर्जुन को अधिक चाहने की बात भी कितनी मिथ्या थी
क्यूंकी जिस दिन से वे साझा घोषित हुई अर्जुन प्रत्यक्षतः माँ कुंती एवं धर्मराज
युधिष्ठिर का विरोध न कर सके एवं संभवतः ग्लानिवश द्रोपदी से आँख ही न मिला पाए एवं जान बूझ कर नारद मुनि द्वारा निर्धारित
शर्तों का उल्लंघन कर 12 वर्षों हेतु द्रोपदी से इरादतन दूर हो गए। वे तो दुष्ट
कीचक से द्रोपदी की रक्षा करने के समय भी अपने वृहनलला वेश का वास्ता दे कर दूर हो
गए तब मात्र भीम ने ही उनकी रक्षा की। वास्तविकता में द्रोपदी के अधिकांश दुखों का
मूल अर्जुन ही तो थे। उन्होंने यदि अपने अधिकार का त्याग न किया होता तो यह सब
परिस्थितियाँ बनती ही नहीं। ऐसे ही भिन्न अवसर थे, किन्तु संभवतः अर्जुन अपनी पत्नी की
रक्षा न कर पाने के अपराधबोध से ही जूझते रहे।
पांडवों ने तथा उनकी माँ कुंती ने भी मात्र ग्राह्यता
ही देखी , ताजीवन द्रोपदी ने उनपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया उनके ही
लिए अपमान सहा, वन वास, पुत्र शोक पाँच पुरुषों को पति मन
जीवन निर्वाह किया किन्तु पांडवों ने हर कदम पर अपनी निष्ठुरता, एवं स्वार्थ का ही परिचय दिया। ज्यों ही द्रोपदी अशक्त हो गिर गई व उसे सहारे की आवश्यकता महसूस
हुई उसे पापिन घोषित कर दिया तथा दोषारोपण कर आगे चले गए। कदम कदम पर उन्होंने
निष्ठुरता का प्रमाण दिया न की उदारता का
वहीं महाभारत की एक और प्रमुख घटना, चौसर में दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर को पराजित
कर सर्वस्व जीत लेना व दुर्योधन द्वारा राजसभा में द्रोपदी का अपमान भी युधिष्ठिर का
ध्यूत क्रीडा के प्रति लगाव, किसी और की न मानना तथा अपने मन की बात को नीति के आवरण
में ढक कर सब को मानने हेतु बाध्य कर देना
उस अनिष्ठ के प्रमुख कारक थे।
कौरवों का पांडवों के प्रति दुराभाव तथा अवसर पाकर बदला
लेने की भावना तो धृतराष्ट्र
को सत्ता न दे कर पांडु को शासन प्रमुख बना देने से ही पनपने लगी थी, गांधारी ने भी पांडवों के प्रति नफरत घुट्टी में अपने पुत्रों को पिलाई
थी जो दिनोदिन बढ़ती ही गई, पांडवों को जला कर मार देने की साजिश के नाकामयाब होने के बाद एवं
दुर्योधन का महल में फिसल कर गिरने की घटना को अपमान मान उन्हे षड्यन्त्र पूर्वक ध्यूत
क्रीड़ा हेतु आमंत्रण निश्चय ही साजिश का हिस्सा था, किंतु
धर्मराज की ध्यूत के प्रति प्रबल आसक्ति ही संभवतः
कारण थी जो किसी के भी समझाने का प्रभाव न पढ़ा, लाचार हो सभी हस्तिनापुर, ध्यूत क्रीडा हेतु गए
जहां द्रोपदी का घनघोर अपमान हुआ।
ध्यूतक्रीडा में सर्वस्व गंवा देने के बाद द्रोपदी के
वस्त्रहरण को कृष्ण द्वारा बचा लेने पर एवं गांधारी की मध्यस्थता के पश्चात
धर्मराज पुनः ध्यूत क्रीडा के दुर्योधन के प्रस्ताव को मान कर पुनः सर्वस्व गवां बैठे एवं सब कुछ त्याग कर शर्तों के मुताबिक बारह
वर्षों का बनवास एवं एक वर्ष का अज्ञातवास
के भागी हुए। पत्नी धर्म निभाते हुए द्रोपदी पुनः वनवास में उनके साथ साथ गई किंतु उसके त्याग सहनशीलता एवं निष्ठा का क्या
प्रतिफल मिला।
सम्पूर्ण अध्ययन के पश्चात किसी भी दृष्टि से
युधिष्ठिर का धर्मराज कहलाना ही हास्यास्पद प्रतीत होने लगता है। जिसे स्वयम का ध्यूत
क्रीड़ा का नशा गलत या पाप न लगे जिसे किसी और नही अपितु अपनी पत्नी का क्रंदन
विचलित न करे, जो छोटे भाई की पत्नी को
प्राप्त करने के लिए भ्रामक संदेश दे, प्रत्येक कदम पर स्वार्थ एवं आत्म प्रतिष्ठा को
कभी राजनीति कभी धर्म के नाम पर प्रतिस्थापित करत रहे एवम समयनुसार अपनी नीतियों
को अपने पक्ष में परिभाषित कर दे, जैसे की दुःशाशन द्वारा सभा में केश पकड़ कर घसीट कर लेने के बावजूद द्रोपदी का त्याग नहीं
किया गया क्योंकि उसके कारण उनकी सत्ता वापसी हुई थी वही दुर्योधन की बहन दुष्ला
के पति द्वारा जब वनवास काल में द्रोपदी का अपहरण कर लिया गया तब छुड़ा कर के लाने
के पश्चात युधिष्ठिर ने उस पर पर पुरुष द्वारा स्पर्श का आरोप मढ़ दिया तथा त्याज्य
बटला दिया।
वे अवसर के मुताबिक आवश्यकता अनुसार दांव चलते है, उनकी अवसरवादी नीतियां थी। भीम
द्वारा समझाने एवम कृष्ण के डर से द्रोपदी
का त्याग नहीं कर सके,किंतु अंतिम मोक्ष प्राप्ति यात्रा के
समय तो कृष्ण का भी भी साथ नही बचा था अतः सहज ही उसे पापिन बता आगे बढ़ गए।
महाभारत की एक और घटना से भी युधिष्ठिर की मनमर्जी
नीतियों का पता चलता है जो उनके द्वारा अपने भाइयों एवं पत्नी को दांव पर लगा कर
उन्होंने दर्शाई। यहाँ विचारणीय है की व्यक्ति जो स्वयं को ही ध्यूत क्रीडा में हार चुका है क्या अपनी पत्नी एवं भाइयों को दांव पर
लगा सकता है तथा क्या भाई एवम पत्नी उसकी संपत्ति होंगे। स्त्री किसी की संपत्ति
तो नही वह स्वतंत्र अस्तित्व है कोई वस्तु नहीं।
अत्यंत तार्किक एवं विवेचना युक्त पुस्तक, पढ़ कर एक पौराणिक
पात्र के प्रति एक भिन्न धारणा बनती है।
अतुल्य
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें