Dhalan Ke Us Taraf By Ramesh Khatri
“ढलान के उस तरफ”
“ढलान
के उस तरफ”
विधा:
कहानी संग्रह
द्वारा
: रमेश खत्री
मंथन
प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित
पृष्ट
संख्या : 128
मूल्य
: 300
समीक्षा क्रमांक : 109
वरिष्ठ लेखक,
प्रकाशक एवं संपादक रमेश खत्री द्वारा मूलतः निम्न एवं मध्यवर्गीय आम
जन पर केंद्रित समाज के अति
सामान्य आम जन द्वारा, भिन्न भिन्न कालों
एवं उसके वास्तविक परिवेश में,
उसके जीवन की कठिनतम परिस्थितियों एवं विभिन्न परेशानियों तथा
विषम हालात में डूबते
उतराते हुए उनके
द्वारा अनुभूत मानसिक हालातों एवं व्यवहार को बखूबी प्रस्तुत किया गया है।
उनकी कहानियों के पात्र मात्र कथानक का हिस्सा न होकर पाठक के समक्ष खड़े हुए उसके करीबी, परिचित अथवा वह स्वयम ही प्रतीत होते हैं। पात्र को पाठक द्वारा अनुभव किये जाने से उत्तपन्न सामीप्य उसे कथानक से भी अतिनिकटता की स्थिति में ले जाते है एवं यही सामीप्य उसे कथानक से संबद्धता प्रदान करते हैं। क्षेत्रीय भाषा का समुचित प्रयोग कथानक की रोचकता में इजाफा करता है।
साहित्य की लगभग हर विधा में उनकी विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है उनके विभिन्न कहानी संग्रह जैसे “साक्षात्कार” “देहरी के इधर-उधर” ‘”महायात्रा”,“इक्कीस कहानियां” आदि प्रकाशित हुए हैं वही कहानी संग्रह “घर की तलाश” आलोचना ग्रंथ “आलोचना का अरण्य” व आलोचना का जनपक्ष हैं। प्रस्तुत कथा संग्रह “ढलान के उस तरफ” के सिवा उनका उपन्यास “इस मोड़ से आगे” एवं “यह रास्ता कहीं नहीं जाता” आम जन की पसंदीदा कृतियाँ हैं।
हिंदुस्तान की लोककथाएं, राजस्थान की लोक
कथाएं, एवं विश्व की लोक कथाएं के सिवाय ‘मोको कहां ढूंढे रे
बंदे” उनके प्रकाशित नाट्य साहित्य है
वहीं उन्होंने परिकथा के क्षेत्र में भी हिंदुस्तान की परिकथाएं, विश्व की
परिकथाएं एवं एशिया की परिकथाएं लिख कर साहित्य के कुछ नए आयाम भी सामने रखे हैं।
विभिन्न साहित्यिक मंचों पर उन्हें साहित्य
जगत के श्रेष्ठ नामचीन पुरुस्कारों द्वारा भी सम्मानित किया गया है।
ढलान के उस तरफ में खत्री
जी द्वारा रचित उन कथाओं का संग्रह है जो कहीं न कहीं वृद्धावस्था पर केंद्रित हैं
अर्थात वृद्धावस्था उन कथाओं का मुख्य बिन्दु है। 13 कहानियों
का सुंदर पठनीय कथा संग्रह है। अमूमन सभी कथायेँ वृद्धावस्था अथवा वृद्धावस्था
की ओर अग्रसर होते आम आदमी या कहें की प्रौढ़ता की आखरी सीढ़ी पर खड़े मानुस की विरह
की, उसकी उक्त अवस्था में अथवा उस अवस्था के करीब पहुचने के साथ ही दरपेश आती
ऐसी मुशकिलात की बातें हैं जो कमोबेश सभी की ज़िंदगी में सामने आती ही हैं, किन्तु हर कोई उस से मुख मोड़ लेता है
संभवतः यह सोच कर की इस तरह से वह उस से बच जावेगा किन्तु यथार्थ तो सर्वथा
भिन्न है।
वृद्धावस्था एवं उस पर एकाकी जीवन, किसी के भी जीवन की विषमतर अवस्था है, मानो नीम चढ़ा करेला, किन्तु इतनी संवेदनशील कहानियों को, इतने संवेदनशील विषय को खत्री जी ने जितने सरल अंदाज में प्रस्तुत किया वह भी उल्लेखनीय है।
पूर्व में भी रमेश खत्री जी की पुस्तकों, उपन्यासों को पढ़ने का
सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है तथा उन की समीक्षा भी मेरे द्वारा लिखी गई थी। “ढलान
के उस तरफ” कहानी संग्रह की पहली कहानी “एक अधेड़ प्रेम
कथा”, शीर्षक आकर्षित करते हुए हल्का सा रोमांचित कर पढ़ने की
उत्सुकता पैदा करता है,
कहानी प्रेम कथा से कहीं कुछ
ज्यादा है जिसमें अनेकों भाव अंतर्निहित हैं। कहानी का प्रारब्ध जहां एक व्यक्ति के उन चेहरों
की बात करता है जो वास्तविकता से बहुत दूर होते हैं, व्यक्ति की खोखली हंसी कहीं न
कहीं उसके अंदर के एकाकाकीपन खालीपन को दर्शाती है, वही दोहरी जिंदगी जीते ऐसे
किसी शख्स के वास्तविक जीवन के दर्द कोई शायद ही बांट पाए क्योंकि वह तो स्वयं ही
ऐसे दर्द को अपने सीने में समेट कर बस उसे जीता है तथा किसी से बांटकर उसे न तो कम ही करना
चाहता है और न ही किसी को अपने दर्द में सहभागी बना कर उस से निजात पाने का कोई
प्रयास ही करना चाहता है।
वही यह भी शोचनीय है की क्या
ऐसे शख्स भी प्रेम में पढ़ सकते हैं वह भी उम्र के उस के दौर में जब कानो के ऊपर से हल्की हल्की सफेदी झांकना शुरू कर देती है।
ऐसी ही एक संभावना को कथानक बनाया है खत्री जी ने अपनी पुस्तक की इस पहली ही कहानी
में ।
सुंदर तरीके से कही गई साफ
सुथरी कहानी है जहां वाक्यांश एवं शब्द सुंदर हैं सरल हैं, क्लिष्टता का कहीं कोई
प्रभाव नहीं है तथा अपने भाव को सहज ही पाठक तक पहुंचाने में बखूबी कामयाब हुए हैं।
कहानी में अंतर्निहित अप्रत्याशित मोड़ हैं जो की अत्यंत सामान्य रूप में बिना किसी चौंकाने
वाले भाव को समेटे हुए प्रस्तुत कर दिया गया है। पात्र सीमित तथा भाव स्पष्ट हैं।
इसी कथा संग्रह से एक और कहानी
जिस का शीर्षक अपने कथानक का थोड़ा स अभ्यास कर देता है, वह है “महायात्रा”। अब यह आवश्यक तो नहीं की आप के दुख बांटने वाले का
स्टेटस आपके बराबरी का हो अथवा खुद उसके जीवन में खुशियां ही खुशियां हों।
वैसे भी इस सब का निर्धारण करने
में नजरिया बेहद महत्वपूर्ण होता है। और फिर नजरिए को बदलते देर भी तो नहीं लगती। आज
हम जिसे है समझते है या उस के प्रति नफरत का भाव रखते है हो सकता है आने वाले समय
में वह हमारा घनिष्ठतम हो। निश्चय ही यह संभव तो है किंतु इस के होने के लिए किसी न किसी
प्रत्याशित अथवा अप्रत्याशित घटना का होना भी अपरिहार्य है।
विभिन्न भाव अंतर्निहित किए यह
कहानी भी एक ऐसे शख्स की है जिसके लिए सारा जहां अपना है पर जेब से खाली है फिर भी
हर किसी की हर संभव मदद करने को हमेशा तैयार है, लेकिन हृदय द्रवित
करने वाला अंत है जब ऐसे भले एवं साफ दिल के इंसान की मौत पर उसके कोई अपने अंतिम
संस्कार करने हेतु भी उपस्थित नहीं होते संभवतः वर्तमान में इंसान के प्रति
भावनाएं भी उसकी अमीरी और ओहदे को देख कर लिए जाते हैं।
वह शख्स जिसके ऊपर आई आपदा को टालने
में वे स्वयं चोटिल एवं अपंग हो बैठे, उनका
अंतिम संस्कार करता है। भले ही उन्होंने कभी इस बात का एहसान न जतलाया हो। आम आदमी
की जिंदगी से जुड़ी मार्मिक कहानी जो अपने आप में कई पहलू जैसे मार्मिकता, मानवता, सहृदयता समेटे हुए है,
एवं अपने सुंदर प्रस्तुतिकरण, श्रेष्ठ शब्द संयोजन एवं
सामान्य वाक्य विन्यास हेतु मानस पटल पर छाप छोड़ जाती है वहीं कुछेक दृश्यों में
विचलित भी कर जाती है।
“खाली हाथ” एक अच्छी, बेहद वास्तविक घटना लगी जो कि एक आम आदमी के जीवन में बहुत सामान्य है, जिसमें बुजुर्गवस्था की परेशानियों एवं विभिन्न पारिवारिक मसलों को
अत्यंत सरल रूप में सामने रख दिया है। लगता ही नहीं की कहानी है प्रतीत होता है
मानो अपने अथवा अपने आसपास के ही किसी घर की बात है। प्रस्तुति
में कहीं भी नाटकीयता नहीं है साथ ही क्षेत्रीय भाषा में प्रस्तुत संवाद कथानक को
दिल के और करीब ला खड़ा करते हैं।
बढ़ती उम्र के साथ बढ़ती
बुजुर्गों की शारीरिक मुश्किलात, टूटती अथवा कमज़ोर पढ़ती
मानसिक शक्ति, बच्चों की अपनी विवशताएं अथवा
जिम्मेवारी से दूर भागने हेतु खूबसूरती से गढ़े गए बहाने, पत्नी
द्वारा अपने ससुर सास को पराया समझ उन्हें अपने दैनिक जीवन में एक परेशानी की तरह
समझना, एवं ऐसे ही कई अन्य विषय भी इस कहानी के जरिए रमेश जी
ने उठाए हैं। उनकी वरिष्ठता एवं तजुर्बों का प्रभाव उनकी वैचारिक परिपक्वता के रूप
में लेखन में स्पष्टता प्रतिविंबित होता है ।
एक और कहानी जो अपने काबिले
तारीफ सलीका-ए-बयां के लिए याद की जाना चाहिए और सुंदर उपमाओं के लिए पढ़ी जाना
चाहिए वह है “मर्यादा की बेदी पर”, कथानक बहुत सामान्य ही है, बिटिया के ससुराल वालों का धन की लालसा एवं उसी के चलते बेटी को कष्ट देना,
इस विषय पर अनगिनत कहानियां लिखी गई किंतु रमेश जी ने एक तो इस
कहानी में अतीत से वर्तमान एवम पुनः अतीत में पहुंचा देने की खूबसूरत कला का सुंदर
प्रदर्शन किया है।
विभिन्न छोटे छोटे दृश्यों में
भी उपमाओं के द्वारा एक विशिष्ट खूबसूरत तरीके
से सजा कर प्रस्तुतियां दी है जो की विषय की गंभीरता के साथ कदम दर कदम बढ़ते हुए
नीरसता से बचाए रखते हुए कथानक एवं पाठक के मध्य पुख्ता संपर्क सूत्र बनाये रखती
है।
जैसा कि उल्लेख किया, कथानक एक
हंसमुख,कुछ हद तक बिंदास युवति पर
केंद्रित है जिसके साथ साथ उन्होंने पिरो दिया है यादों
को कुरेदते हुए अन्य छोटे छोटे दृश्यों को, जो कुल मिलाकर प्रस्तुति को अत्यंत
रोचक बना गए हैं ।
“रिटायरमेंट”, ऐसा नहीं की सभी के जीवन में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो जिनका सब कुछ अच्छा
हुआ उन्हें भी कहीं न कही असंतोष ही दिखता है अपनी किस्मत से, भाग्य से परिवार से वगैरह वगैरह।
प्रस्तुत कहानी बैंक के एक ऐसे
उच्च अधिकारी की है जिसने जीवन का सर्वस्व परिवार के लिए न्योछावर कर दिया किंतु
अब रिटायरमेंट के दिन उस के साथ सिर्फ
उसकी तन्हाई है, वह अकेला ही खड़ा है। यूं तो वर्तमान सामाजिक परिवेश में यह अत्यंत सामान्य सी
बात है, किन्तु कहीं न कहीं यह कहानी भावनाओं के अतिरेक
प्रवाह समेटे हुये लगी।
शब्द, भाव अच्छे हैं किंतु
कथानक प्रभावित करने में चूकता प्रतीत हुआ। अब यह तो कहा ही गया है की हर किसी को
मुकम्मल जहां नहीं मिलता ....।
रिटायरमेंट के पश्चात पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन में बिता दिए जीवन के प्रति पछतावा दर्शाती एवं भावनाओं में
नकारात्मकता लिए हुए कहानी है ।
यह एक संयोग ही कहा जायेगा या
फिर लेखक स्वयं इस पर कुछ प्रकाश डाल सकेंगे की क्यूँ उनकी पुस्तकों के शीर्षक राह, सड़क से जुड़े हुए होते हैं जैसे की “इस मोड़ से आगे”, “यह रास्ता कहीं नहीं जाता” या फिर “ढलान के उस तरफ” ।
शीर्षक कथा “ढलान के उस तरफ”
प्रारंभ में तो सामान्य सा किसी चाल का चित्रण ही लगा जहां भिन्न भिन्न कामों से
जुड़े लोग उनकी सामान्य सी दिनचर्या में अथवा कहीं कहीं कुछ कुछ खास या असामान्य
व्यवहारके संग जीवनयापन कर रहे हैं, किंतु कहानी का अंत अत्यंत भाव प्रधान है जहां व्यक्ति के एकाकीपन को, उसके जीवन के अंधेरों
को अत्यंत सटीक उपमा दी है
रमेश जी अपने लेखन में उपमाओं
को अत्यंत सुंदर वाक्यांशों के रूप में प्रस्तुत करने की अद्भुत कला के स्वामी है
चंद बानगी देखें :
“उसने अपने हाथ पैर चारों ओर इस
तरह फैला रखे हैं मानो पेड़ की शाखाएं निकल आई हों कटीली झाड़ियों की तरह बिखरे
हुए संबंधों में वह पूरी तरह से घिरा हुआ है”।
“तभी हवा का एक आवारा झोंका
ड्राइंग रूम में घुसा और उसने वहां पसरे स्तब्धता के कतरों को बुहारना शुरू कर
दिया। अतीत उसके साथ फर्श पर पसरने लगा, उसने धीरे से मेरे मन पर कब्जा जमाने की कवायद शुरू कर दी। मेरा मस्तिष्क उसी की
अंधी गुफा में चक्कर लगाने लगा जैसे अचानक
ही किसी ने तालाब के शांत पानी में पत्थर उछल दिया हो और उसमें तरंगें उठने लगी।
ठीक ऐसी ही लहरें मेरे मन के अंदर भी लहराने लगीं .. ..।
“बीता हुआ हर पल उसकी परेशानी
में इजाफा ही करता चला गया, आज पानी के रूप में विवशता ही उसकी छत पर बरस रही है और इसी विवशता से
उसका पूरा कमरा भर गया”।
उम्र की ढलान पर बैठा एक आम
आदमी क्या सोचता है : एक स्थान पर वे कहते हैं कि आदमी का वजूद क्या है? कुछ भी नहीं,आदमी तो मात्र परिस्थितियों का खिलौना
भर है। वही उसे एक छोर से दूसरे छोर तक घसीटती रहती है। आदमी इन सबके बीच का
खिलौना बन कर रह जाता है ।
उम्र के ढलान के स्तर तक पहुंचे
हुए इंसान से जब उसके साथी का साथ छूट जाए तब वह अंदर से कैसे टूटता है और उसका वह बिखराव उसे किस ओर ले जाए या क्या परिवर्तन उसमें ला दे कोई नही
जानता। “काइयां” भी कुछ ऐसे ही बिखरे हुए इंसान की कहानी है ।
गुजरते समय के साथ साथ पहले
करीबियों की मौत फिर बच्चों का बड़े होकर अपनी अपनी दुनिया में खो जाना और तब घेरता या डसता एकाकीपन। इसी
कहानी से लेखक के सुंदर विचार देखें : " में खुद भी तो
इस छत की तरह तार तार हूँ मेरे अंतर्मन
में भी तो असंख्य सुराग हो रहे हैं, जिनसे गुजरकर तूफान मेरे मन में बवंडर पैदा कर
रहा है। आज मैं जिस मुकाम पर खड़ा हूं वहां बस इंतजार ही शेष रह गया है ...............
इस इंतजार का कोई अंत नहीं, पर मन है की मानने को तैयार ही
नहीं है।
वही एक विवश पिता की “आत्मग्लानि”
अपने सगे बेटे के साथ न्याय न कर पाने, और दूसरी पत्नी के दबाव में आकर सब
कुछ उसके बेटे के नाम कर देने को लेकर है। जिसे उसका पहली पत्नी का बेटा अत्यंत सहज
भाव में चातुर्य एवं गरिमा के साथ स्वीकार करता है किंतु पिता को आत्मग्लानि के
भाव में जाने से नहीं बचा पाता। कहानी आत्मग्लानि इसी भाव को सुंदरता से समेटती
हुई है एवं पुत्रवधू के विचार तथा भाव अनुकरणीय हैं।
“एक चुप्पे आदमी की अंतिम
यात्रा” यूं तो एक बेहद सामान्य सी बात को लेकर है, किन्तु सामान्य बातों को ही
कथानक बना लेने में रमेश जी को महारथ हासिल है। वे कथानक का सृजन नहीं करते अपितु
उनकी कथाएं एवं पात्र उनके आस पास ही होते हैं।
पुनः यह एक आत्म केंद्रित शांत
व्यक्ति की कहानी है जो बढ़ती उम्र, एकाकीपन तथा अन्य कारणों के चलते एक
ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है जहां वह अकेला ही जीता है उसे दींन दुनिया से कोई
सरोकार नहीं, मां की मौत भी उस को सामान्य नहीं कर पाती। अत्यंत ही विचित्र सी
अवस्था है जिसका सुंदर चित्रण करा है।
“नेशनल हाईवे नंबर बारह” भी जीवन
साथी को खो चुके व्यक्ति की, उसके एकाकीपन की, जिम्मेवारियों की
कहानी है वहीं “अपने दुश्मन” एवं “दूसरी दुनिया” भी अपने कथानक एवं प्रस्तुतीकरण
से बांध कर रखती हैं।
समग्रता में कहा जा सकता है की
बुजुर्गावस्था से संबंधित निनमध्यम वर्गीय परिवारों से जुड़े कुछ किस्से हैं
जिन्हें बेहद सुंदर प्रस्तुतीकरण एवं सहज सरल भाषा द्वारा विशिष्टता की श्रेणी में
ला खड़ा किया है।
अतुल्य
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