Is Mod Se Aage By Ramesh Khatri
इस मोड़ से आगे
समीक्षा क्रमांक
: 100
इस मोड़ से
आगे
विधा : उपन्यास
द्वारा :
रमेश खत्री
मंथन
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
पृष्ठ : 200
मूल्य : 490.00
संस्करण : 2019
उनके विभिन्न कहानी संग्रह जैसे “साक्षात्कार” “देहरी के इधर-उधर” ‘”महायात्रा” ,”ढलान के उस तरफ”, “इक्कीस कहानियां” आदि प्रकाशित हुए हैं वही कहानी संग्रह “घर की तलाश” आलोचना ग्रंथ “आलोचना का अरण्य” व आलोचना का जनपक्ष हैं प्रस्तुत उपन्यास “यह रास्ता कहीं नहीं जाता” के सिवा उनका उपन्यास “इस मोड़ से आगे” भी काफी चर्चा में रहा एवं सुधि पाठकों द्वारा उसे बेहद उत्तम प्रतिसाद प्राप्त हुआ है, वहीं नाटक ‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे” उनके प्रकाशित नाट्य साहित्य है।
लोक कथा, संपादन इत्यादि के कार्य में भी वे सतत
प्रयास रत हैं एवं
उनके श्रेष्ट साहित्यिक योगदान को साहित्य जगत ने बखूबी पहचानते हुए समय समय पर विभिन्न श्रेष्ट
साहित्यिक पुरस्कारों से भी नवाज़ा जा
चुका है ।
वरिष्ठ कथाकार रमेश खत्री द्वारा समीक्ष्य
पुस्तक में मूलतः निम्न-माध्यम
वर्गीय समाज के विभिन्न पात्रों का, आजादी
प्राप्ति के ठीक बाद बटवारे वाले काल
का , उस
समय उत्पन्न विपरीत परिस्थितियों तथा तत्कालीन
सामाजिक परिवेश में विभिन्न परेशानियों एवं विषम
हालात में डूबते उतराते हुए आम
जन का, उनकी मानसिकता एवं
व्यवहार का
बखूबी चित्रण
प्रस्तुत किया गया है
पुस्तक आज़ादी पूर्व के माहौल से शुरू होकर आगे बढ़ती है तथा उस दौर के विभिन्न पहलुओं को कथानक में बेहद खूबसुरती से समेटा गया है । पुस्तक प्रारम्भ में प्रेम कथा लेकर पररम्भ होती है किंतु साथ ही कथानक में अन्य विषयों का समावेश भी किया है । रोचकता बनाये रखने हेतु प्रणय दृश्यों का भी सहारा लिया है । किंतु कथानक में कुछेक स्थानों पर मंथरता आभासित हुई ।
युवाओं का क्रांति कारियों के आव्हान पर सक्रिय होना , नेताजी सुभाष चंद्र की दुर्घटना में मृत्यु आदि विषयों पर केंद्रित करा
गया है तो वहीं नेहरू का नेतृत्व संभालना व जिन्ना की
सत्ता लोलुपता के कारण विभाजन के साथ आज़ादी को भी अत्यंत सहजता से लिखा है। तत्पश्चात
विभाजन के दर्दनाक दृश्यों का चित्रण किया गया है जिसकी बीभत्सता को न दर्शाते हुए
मात्र उस विकरालता का आभास कराता है, जो वर्तमान सामाजिक ढांचे व आपसी सद्भाव को
देखते हुए , जहां बिना बात के बतंगड़ बन जाना आम है , एक स्वागत योग्य कदम ही कहा
जाएगा ।
खत्री जी के कथानक एवं शैली की विशेषता ही कहेंगे की पात्र
की आवश्यकता न रहने पर उन्हें मुख्य दृश्य से हटा दिया जाता है तथा पात्रों की
अनावश्यक भीड़ पाठक को भ्रमित नहीं करती।
अपने इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने जहां एक ओर
आज़ादी के आंदोलन के दौरान उत्तपन्न विभिन्न अराजक स्थितियों को शब्द देने का प्रयास किया है वहीं उस वक्त के
आम आदमी के मन में उठ रहे सवालों एवं संबंधित माहौल तथा परिदृश्य पर सुंदर विचारों को भी विस्तार से प्रस्तुत किया है ।
यूं तो खत्री जी की लेखनी से बेहद सुंदर कृतियों का
प्रादुर्भाव हुआ है, व उस रस का आस्वादन करने का सुअवसर मुझे भी प्राप्त हुआ है ,
लेखक की कृति उसके अपने विचारों का लिखित दस्तावेज़ ही तो है एवं उस पर वही सबसे
सुंदर तरीके से स्पष्टता व्यक्त कर सकता है किन्तु मैं यदि एक पाठक की दृष्टि से अपने विचार रखूँ तो मुझे इस पुस्तक में कहीं कहीं कुछ पात्रों
का अवतरण एवं चंद घटनाओं के पीछे की
तार्किकता स्पष्ट नही हुयी , जैसे कि राजन का सहसा प्रगट होना एवं शंकरलाल का राजनीति में ध्यान
देना, जबकि शुरुआत में तो मात्र उसे अपनी प्रेयसी व नायक तक ही सीमित दर्शया गया है । वही पात्र जो राजनीति में अत्यधिक
सक्रिय रहा उसका एकदम ही निष्क्रिय हो जाना या स्वयं को अलग थलग कर लेना
वास्तविकता से परे लगता है।
एक और शंका, शंकर लाल की पत्नी को लेकर भी हुई, कि शांति,
जो कि शंकरलाल की पत्नी है उसे युवा अवस्था में तो सहज शुद्ध भाषा आर्ट खड़ी बोली बोलते
दर्शाया गया है किंतु शादी के पश्चात क्यों वह अचानक ही ग्रामीण बोली बोलने लगती
है, तनिक भ्रमित कर जाता है। शांति के माता पिता का क्या हुआ यह भी अंत तक स्पष्ट
नहीं हुआ वही उसकी तीन लड़कियों के किस्सों को कथानक में शामिल करने की तार्किकता
प्रमाणित नहीं होती न ही यह की क्यों शंकरलाल बार बार स्वयं को अकेलेपन में धकेलने से नहीं रोक पाते यह भी स्पष्ट नहीँ
हुआ। वे अकेलेपन में घुटते तो है किंतु क्यों , भरा पूरा परिवार है त-जीवन अच्छी नौकरी कर ली फिर
क्या कारण है उसका भी खुलासा करना बकाया रहा । कथानक सहज रहते हुए मंथर गति से बढ़ता रहा है । रमेश जी द्वारा रचित
पूर्व के उपन्यासों से कथानक में भिन्नता तो अवश्य है किंतु पाठक संबद्धता प्राप्ति
में कथानक कितना सक्षम हुआ है यह निर्णय पाठक का ही होगा तथा संबद्धता के विषय में
तो व्यक्ति विशेष ही बतला सकेंगे।
स्वतंत्रता आंदोलन , विभाजन एवं कथानक
के संग संग चलती प्रेम कथाओं पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, फिल्मांकन भी हुआ है , यह उपन्यास भी उसी क्रम में एक कड़ी है जिसने
सम्पूर्ण परिदृश्य को जो आजादी मिलने से प्रारंभ हो कर आजादी , विभाजन , व बाबरी मस्जिद जैसे तमाम विषयों को अपने
में समेटे हुए है ।
विभाजन पर आम आदमी का दर्द , समीक्ष्य पुस्तक में बार
बार विभिन्न पात्रों के माध्यम से हमारे सामने आता है जो बरबस ही उन दृश्यों को
सामने ला खड़ा करता है।
खत्री जी , गंभीर एवं कठिन विषय को अत्यंत सरलता से प्रस्तुत करने में सक्षम हुए हैं तथा आधुनिक पीढ़ी के सामने उस दौर का एक चित्र प्रस्तुत करने में कामयाब हुए हैं जो की निश्चय ही एक सराहनीय कदम है।
शुभकामनाएं एवं साधुवाद,
अतुल्य
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