Dhappa Zindgi By Arvind Yadav

 

धप्पा ज़िंदगी

समीक्षा क्रमांक  : 96

धप्पा ज़िंदगी

कहानी संग्रह

द्वारा अरविन्द यादव

बोधरस द्वारा प्रकाशित

मूल्य: 240.00

पृष्ट :144


अरविन्द यादव, एक युवा जिंदादिल और जोशीले लेखक ने  अपनी  प्रथम एकल कृति के संग हिन्दी साहित्य जगत में पदार्पण किया है, अपनी 17 बेशकीमती कहानियों के संग्रह “धप्पा ज़िंदगी” के साथ। पूर्व में वे एक पुस्तक अपनी जीवन संगिनी के संग मिलकर “अनायरा टेल्स” के नाम से भी प्रस्तुत कर चुके हैं, तथा उस को पाठकों द्वारा प्राप्त प्रतिसाद ही उन्हें इस पुस्तक के लिखने की  प्रेरणा कहा जा सकता है। यूं तो शिक्षा एवं कर्म से वे एक इंजीनियर हैं किन्तु उनकी पुस्तक पढ़ कर उनके स्थापित साहित्यकार न होने पर विश्वास कर पाना निश्चित तौर पर बहुत ही कठिन होगा, क्यूंकी उनकी प्रत्येक कहानी बेहद मँजी हुई शैली व कसाव के संग गढ़ी गई है।  कथानक में परिपक्वता एवं कसाव स्पष्टतः लक्षित है, तथा उनकी कहानी पाठक को किसी भी स्थल पर बोझिल अथवा उबाऊ जैसा प्रतीत न करवाते हुए एक सहज जिज्ञासा एवं आगे पढ़ने की उत्सुकता बनाए रखती  है।

      बात यदि उनकी लेखन शैली की करें, तो कहूँगा की सहज ही लोकप्रिय हो जाने वाली शैली है उनकी, एवं उसका मूल कारण शायद उनका आम जन की एवं आम जन से जुडी बातों को इतनी सहजता से अपने शब्दों में पिरो कर प्रस्तुत करना  है कि, पाठक बगैर किसी अतिरिक्त सोच के सहज ही स्वयम को विषय से सम्बद्ध कर लेता है, उसे यूं  महसूस होता है मानो यह उसकी या  उसके अपने  ही आस पास की बातें हों, अथवा करीब ही घटित कुछ घटनाएं हैं।  संभवतः उनकी लेखन कला की यही सरलता एवं सफलता है  की वह किसी से प्रभावित नहीं दिखती, जो कुछ भी दिल में होता है उसे सहज ही शब्दों में पिरो कर प्रस्तुत कर देते हैं। उनके लेखन से प्रतीत ही नहीं होता की यह उनकी शुरुआती कृति है, इस संग्रह की अधिकतर कहानियाँ ज्वलंत समस्याओं पर केंद्रित हैं , किन्तु घटनाओं को, समाज को, देखने का उनका नजरिया , वर्षों का सामाजिक परिवेश का सूक्षम अवलोकन, एवं तजुर्बा अवश्य ही लक्षित होता है।   विशिष्ट विषय , कहानियों की सरलता , सामान्य शब्दों का प्रयोग एवं सुलझे हुए वाक्यांश उन्हें अधिक रोचक बनाते  है, एवं पाठक को कथानक से जोड़ के रखते  है।

सरल एवं आसान शब्दों में भी सुंदर भाव प्रगट  किए हैं , इसी पुस्तक में वे कहते हैं:

“जिंदगी का फलसफा भी अजीब होता है जब जिंदगी में तूफान आते हैं तो बहुत सारे लोग एक छांव चुनकर तूफान से बचने के उपाय सोचते हैं। बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं जो अपनों के लिए तूफान से लड़ने की सोचते हैं।“

किसी भी कथानक से जब पात्र स्वयम को जुड़ा हुआ महसूस करने लगे एवं पाठक, पात्र में स्वयं को देखने लगे वही लेख की मेहनत सफल हो जाती है.

इस संग्रह की कहानियां समाज की अनेकों बुराइयों , दोषों कुप्रथाओं व अपने आस पास की देखी  हुयी घटनाओं पर, तो कुछ रोज़ मर्रा की जिंदगी से उठाई गयीं हैं। ज़िंदगी में भले  ही तजुर्बे किसी और के हों या स्वयं के, अमूमन कुछ न कुछ सिखा कर ही जाते हैं, और यह कथा संग्रह भी जिंदगी की राह में गुजरते हुए अनुभव किए व देखे हुए बहुत से तजुर्बों और हालात का निचोड़ है।

अमूमन जैसा होता है उस लीक से हटकर, पुस्तक के  शीर्षक “धप्पा ज़िदगी” के नाम से कोई भी कहानी नहीं है। जहां तक मुझे याद पड़ता है यह बचपन के एक खेल से लिया गया शब्द है जिसमें जिसका अर्थ खेल में out होना होता था , और वैसा ही कुछ रवैया उनकी कहानियों से दिखता है,  जहां ज़िंदगी के उतार चढ़ाव को बहुत भाव न देते हुए उस को धौल जमाते हुए धप्पा बोल आगे निकाल जाते हैं । मुश्किलात्  पर विजय प्राप्त  करते हुये। प्रत्येक कहानी किसी न किसी मुद्दे पर केंद्रित है एवं  प्रतीत होता है मानो लेखक ने हर उस घटना एवं (कु)प्रथा को, जिसने उन्हें कहीं न कहीं उद्वेलित लिया उसे शब्द रूप में प्रस्तुत कर दिया है ।

सामन्यतः जन जीवन के किस्सों से जुड़ी बातें ही हैं, चाहे तो उन्हें कहानी भी कह लें, अपनी सामान्य सी बाते ही लगती हैं, क्यूंकि अरविन्द जी ने  पात्र और घटना क्रम का  जिस ख़ूबसूरती से तालमेल बैठाया है, घटना क्रम को सृजित कर उसका अत्यंत आकर्षक  प्रस्तुतीकरण किया गया है, वह वास्तविकता के बेहद करीब तक ले जाता है। पात्रों को इतनी सुन्दरता से गढ़ा गया है की वे सजीव हो उठे हैं। बिना किसी बाह्य आडम्बर के एक सरल पठनीय पुस्तक है। 

अरविन्द जी उत्तम सहज एवं सरल साहित्य प्रस्तुत कर सहज ही अपना एक मुकाम बनाने में सक्षम प्रतीत होते हैं या कहूँ कि हुए हैं। यह पुस्तक अवश्य ही पाठक को उनके नाम व काम से  बखूबी परिचित करेगी । समीक्षित पुस्तक  उनका पहला एकल कहानी संग्रह है उन्होनें अपनी रचनाशीलता का प्रयोग समसामयिक विषयों पर अच्छे सरल एवं सहज ,साफ सुथरे, सार-गर्भित, साहित्य को रचने में किया है। उनके विचारों में एक स्पष्टता है एवं प्रत्येक कहानी में सरल सहज व सामान्य भाषा का प्रयोग  पाठक को कथानक से जोड़ कर रखता है जो कि विषय के प्रति लेखक की सच्चाई एवं निष्ठा एवं साहित्य के  प्रति उनके लगाव को दर्शाता है ।

उनकी  पुस्तक सफलता के किस पायदान पर पहुचती है , हाल फिलहाल यह कहना तो निश्चय ही बहुत जल्दी होगी किन्तु आम जन पुस्तक पढ़ कर आनंद प्राप्त करेंगे यह निःसंदेह कहा जा सकता है । उनका  कहानियां कहने का  तरीका उनके  प्रबल आत्मविश्वास, विचारों की स्पष्टता  एवं  स्वयम की कलम की दक्षता पर पूर्ण भरोसे का परिचय देते हैं ।  उनकी शुरूआती कहानियों में भी , कहीं से अपरिपक्वता की मामूली सी भी झलक नहीं मिलती। लेखन में उच्च गुणवत्ता व विचारों में स्पष्टता है जो की उज्ज्वल भविष्य की परिचायक है।  

जहां एक ओर पुस्तक की भाषा सरल है तो साथ ही साथ जो संवाद है वह भी आम जन की बोल चाल ही है कहीं संवाद का विशेष प्रयास द्वारा लिखा जाना प्रतीत नहीं होता। बोलचाल के   सहज प्रवाह में,  घटनाक्रम पात्र एवं परिवेश के मुताबिक भाषा है, वक्यांश छोटे ही हैं। विषय अवश्य ही विशेष है किन्तु कथानक अलग से चुन कर उन्हें कहानी लिखने हेतु अथवा कथानक के रूप में ढालने हेतु तोडा मरोड़ा गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता, वरन कहानी लिखने हेतु कोई प्रयास कथानक को लेकर किया हो ऐसा भी नहीं है, क्यूंकि कहानी आम जन से जुड़ी  उनके जीवन की रोज़ की बातें ही हैं कोई विशिष्ठ घटना क्रम नहीं अतः कथावस्तु विशिष्ट होते हुए भी बेहद सरल है, किसी विशेष तैयारी  जैसा आभास नहीं मिलता।

वाक्यांश अत्यंत सुंदर हैं, किन्तु स्पष्ट करता चलूँ की सुन्दर वाक्यों के कहने हेतु क्लिष्टता लादी जाये, या उसका उपस्थित होना अनिवार्य हो,  ऐसा  तो कदापि नहीं  हैसंक्षेप में कहें तो भाषा,  भाव एवं उसकी अभिव्यक्ति के अनुकूल सहज सरल एवं बोधगम्य है। 

अब बात इस संग्रह की कहानियों की, तो, पहली ही कहानी, “मुर्दों का गांव”, लेखन कला की छाप छोड़ जाती है । कोई विशेष कलात्मक अथवा विशेषणात्मक शैली नहीं, न ही शब्दों का भारी भरकम जाल और न ही बड़ी बड़ी बातें, बस किस्सागो शैली में एक बात सुना गए जिसे हम और आप कहानी समझ लेते हैं ।  एक क्षेत्र विशेष में , खाप, ऑनर किलिंग का मुद्दा दर्शाते हुए कहीं न कहीं पीड़ित की  बद्दुआओं के असर को भी सामने लाने का सफल प्रयास किया है जो निश्चय ही विषय के संग उसके प्रभाव व कुप्रभाव को भी बखूबी दर्शाता है।

पढ़ना शुरू करने के पश्चात बीच में रुक पाना  कदाचिद्   मुश्किल ही है ।  सामान्य सी बोलचाल ही लगती रही और कहानी बन गई । पिछले समय में ऑनर किलिंग को लेकर जो कुछ या बहुत कुछ हम सभी ने सुना विशेष तौर पर एक क्षेत्र विशेष में उस पर ही ध्यानकृष्ट किया है । किंतु आज जुल्म करने वाले आने वाले कल को,  उस के परिणाम को शायद भूल जाते है कहते हैं ना की ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती, कुछ वैसा ही परिणाम दर्शाते हुए अंत है ।

लेखन छाप छोड़ता है । पढ़ने को बाध्य करता प्रतीत होता है । बेहद सजहजता से लिखे गए सरल वाक्य हैं, कहीं कोई लाग लपेट नहीं, किसी भी कथाकार के लिए विशेषतऔर पर युवा साहित्यकार जिसकी प्रथम रचना पाठकों के सम्मुख आ रही हो इतना सरलता से लिखने का अर्थ मात्र यही कहा जा सकता है की उसे अपने लेखन पर  भरोसा एवं स्वयम पर विश्वास है। 

समीक्षाधीन पुस्तक “धप्पा जिंदगी”, उनकी बेहतरीन कहानियों का संग्रह है जो उनकी लेखन प्रतिभा का श्रेष्ठ परिचायक भी कहा जा सकता है एवं वह भी एक नवोदित युवा साहित्यकार द्वारा सम्पूर्ण आत्मविश्वास के साथ और तब जब की वह सर्वथा भिन्न पृष्टभूमि (इंजीनियरिंग) से आता हो जिसका साहित्य एवं लेखन से कोई रिश्ता न हो। 

जिंदगी को करीब से देखने समझने का नजरिया अवश्य ही बहुत स्पष्ट है जो उनके लेखन को अधिक सटीक बनाता है । युवा हैं, पहली ही पुस्तक है, किंतु कथानक अत्यंत वजनदार चुने हैं जैसे की पहली ही कहानी में ऑनर किलिंग जैसे मुद्दे पर बात रखना,  ये ऐसे विषय हैं जिन पर स्थापित रचनाकार भी लिखने से बचते हुए ही देखे गए हैं ।

अनरई की ईद”,  सांप्रदायिक सौहार्द जैसे  बेहद नाजुक मसले को केंद्र में रख कर रचित कृति है यह, एक ऐसा मुद्दा जिसे बड़े बड़ों को समझा पाना मुश्किल होता हो उसे कितनी सरलता से बच्चों के द्वारा कहला दिया है, यह मात्र अरविंद जी के सरल ,सुगम प्रवाह के द्वारा ही संभव है एवं भाईचारे व जातिगत भेदभाव की दीवारों को तोड़ परस्पर प्रेम  का सुंदर उदाहरण है, साथ ही एक बेहतरीन संदेश  भी, अगर आम जन उस से कुछ सीख ले सकें तो ।

अरविन्द यादव जी के लेखन में , एक बात जो विशेष प्रतीत हुई वह यह कि, अमूमन जितने संवेदनशील ,अनछुए, गंभीर किस्म के मुद्दे हैं अथवा ऐसे विषय जिन पर आम तौर पर अन्य लेखक लिखने से गुरेज करते हैं उन्होंने उन्हीं विषयों को मुख्यत अपनी कथाओं की केंद्रवस्तू बनाया है ।

“अबला”:- एक बहुत ही साधारण सी वैयक्तिक आदत सी होती है जो इस कदर सर्व व्यापी है की उसे मानव स्वभाव भी कहा जा सकता है, वह है, किसी और को तकलीफों से घिरा देख कहीं न कहीं आत्मिक तौर पर आनंद अनुभव करने की,  उस पर यदि मुश्किल में महिला हो, तो आनंद उठाने वाले अधिक हर्षित हो उठते हैं, और  फिर कहीं अचानक से वह मुश्किलें हल हो जाए, सब सुखांत के स्तर पर आ जाए, तो वे अवश्य ही भौंचक रह जाते हैं।

कोई यह नहीं सोचना चाहता की उस महिला, या मुश्किल में घिरे व्यक्ति पर क्या बीत रही है। रेल यात्रा के दौरान हुई बेहद सामान्य सी घटना है जिसके द्वारा जनमानस की एक विशिष्ट सी मानसिक दशा का बहुत सुंदर चित्रण किया है, जो बेहद वास्तविक सच्ची घटना सा लगता है और अमूमन हर किसी की नजर से यह दृश्य गुजरा होगा जिसे लेखक की कलम ने बहुत सुंदरता से शब्द दिए।

“दुर्गा”:- फिर एक बार एक अनछुए विषय को उठाती हुई कहानी , इस कथा में  केंद्रित है शिशु जन्म में व्याप्त लिंग भेद , कन्या होने पर येन  केन प्रकारेण उस से छुट्टी पा लेना, उसे किसी न किसी तरह मार देना और उस पर भी अति यह कि ऐसे घ्रणित कार्य को करने वालों को इसका कोई पश्चाताप भी नही होता। कहानी ग्रामीण परिवेश में  रचित है, किंतु शहरी तथा कथित  पढे लिखे समाज भी तो दबे छुपे कहां इन सब रूढ़ी वादी मान्यताओं से बाहर आ सका है आज भी स्त्री पर दबाव तो बेटा पैदा करने का ही होता है, भले ही उसका कहने मनवाने का तरीका थोड़ा बहुत बदल गया। हो ।

सामाजिक बुराई, कठिन विषय अनछुए टॉपिक्स पर सरल भाषा में कहीं न कहीं  कटाक्ष भी किया ही है भले ही वह स्पष्टता शब्दों से बयान न हो रही  हो । कहानियां विशिष्ट विषय को लेकर हैं अतः बहुत विस्तार नहीं है, किंतु समस्या को बखूबी उठाया है और उस स्तर तक ले कर गए हैं जहां पाठक सोचने हेतु विवश होता ही है ।

वहीं अपनी सरलता को बरकरार रखते हुए गांव में आज भी विद्यमान संस्कारों एवं रिश्तों के निर्वाह की छोटी सी कहानी है “गांव की बेटी” जिसे  पढ़ते हुए यूं ही लगा ज्यों  कोई अपना यात्रा वृतांत सुना रहा हो अर्थात इतना सहज लेखन की आप को पता भी न चले की आप एक कहानी पढ़ रहे है । कथानक में कहीं भी कोई बोझिलता अथवा भटकाव नहीं।

“सावन अखियां” सोने के पिंजरे की मैना अर्थात प्रेम के अतिरिक्त सम्पूर्ण सुख सुविधाओं के बीच ब्याही गई युवती की असफल प्रेम कहानी  से शुरू होकर, बेमेल मानसिक स्तर के व्यक्ति से विवाह एवं फिर तलाक तथा अंत में अपने मूल विषय  नेत्र दान  पर आती है . बीच बीच में कुछ भाव अच्छे पिरोए हैं शब्दों में, जैसे  की “प्यार में भी नफा नुकसान देखते हैं क्या” , या फिर , “लड़की के अफेयर का मामला उठ जाने के बाद घर वालों को लड़की बोझ लगने लगती है” । प्रारंभ से अंत तक किसी भी स्तर पर बगैर बोझिल हुए संदेशपूर्ण अच्छी कहानी ।

पुस्तक की प्रिंटिंग स्तरीय है वर्तनी , व्याकरण भी सही है किंतु पेपर गुणवत्ता पर थोड़ा ध्यान देना होगा, वह कमी जरूर खलती है ।

एक और कहानी “तेहरी” (पुलाव एवं खिचड़ी के समरूप एक व्यंजन) सांप्रदायिकता , जातिगत भेदभाव, जैसे कठिन एवं सदैव विवादित विषय पर अत्यंत  सहजता से लिख गए हैं जो निश्चय ही सराहनीय है। कोरोना काल में विभीषिकाओं के अतिरिक्त  एक बात जो बहुत कहीं देखी  व सुनी गई वह थी परस्पर प्रेम एवं सामंजस्य, वह जातिगत भेदभाव के बावजूद इस कथानक में भी बहुत सरलता से पिरोया गया है।           परिस्थितियां, दृश्य निर्माण एवं अंततः मानसिकता का बदलाव निश्चय ही उल्लेखनीय हैं। जहां एक ओर कहानी में रोमांच बनाए रखते हुए पाठक को जोड़े रखना लेखक की विशेषता है वहीं समुचित भावुकता का भी अंश है, एवं एक अन्य विशेषता जो उनके कथानक में पाई , वह यह कि वे  अंत को अत्यंत सुरुचिपूर्ण तरीके से समाप्त तो करते ही है साथ ही उनके कथानक के  अंत भी अप्रत्याशित ही होते हैं।

भावनात्मकता से परिपूर्ण, फिर एक अनछुआ विषय लेकर बढ़ती है कहानी “माँ की जीत”। मां का, गर्भपात को लेकर लिया गया निर्णय इस कथा की केंद्रवस्तु है। अमूमन आज भी इस विशिष्ठ व्यक्तिगत निर्णय पर भी तमाम नाते रिश्तेदारों का होता है एवं उनकी सलाह न मानने पर उनका अहम आहत होता है। माँ जो किसी भी अन्य यहाँ तक की उसके पति से भी बहुत ज्यादा अपनी गर्भ में पल रही  संतान से सम्बद्ध होती है , अतः उस के विषय में निर्णय लेने का अधिकार मात्र उसे ही दिया जाना चाहिए। 

“बकेट  लिस्ट” अंग प्रत्यारोपण के संदेश पर  केंद्रित बहुत ही प्यारी सी वाचाल लड़की की कहानी है जो जिंदगी का हर पल जी लेना चाहती है,  ज़िंदगी जीते हुए  भी, और जीवन के बाद भी, किसी और को जीवन दे कर। वहीं अन्य प्रमुख पात्र को हर मायने में पूर्णतः विपरीत स्वभाव वाला दर्शाया गया है, जैसा की अमूमन समाज में बहुत बहुत सामान्य तौर पर देखा जाता है । कठिन विषय चुन कर उस पर लिखना ही जुनून प्रतीत होता है  इस युवा लेखक का ।

“चोर”,  मेरी जानकारी के मुताबिक शिक्षा का अधिकार के तहत बड़े नामी निजि  पाठशालाओं में भी कुछ सीट्स निम्न आय वर्ग के छात्रों रिजर्व रखने का नियम है  जो की उन  बड़े स्कूल की फीस का भार सहन नहीं कर सकते , किंतु वहां पढ़ने वाले उच्च वर्ग से आने वाले बच्चों की, निम्न व मध्यम निम्न परिवेश से आए बच्चों के प्रति क्या  मानसिकता होती है, वे उन्हें क्या और कैसे समझते हैं तथा उनके प्रति क्या भावना रखते हैं साथ ही  समय समय पर नीचा दिखाने की कोशिश भी करते हैं,  इस मुद्दे को उठाया है और यह भी की घर से बेशक वे अमीर न हों, किन्तु उनके जीवन मूल्य , उनके संस्कार कहीं से भी ओछे अथवा निम्न वर्गीय नहीं होते।

इतनी कहानियों की समीक्षा पढ़ने के बाद आप भी यह तो समझ ही चुके होंगे की उनके कथानक सदैव किसी विशेष विषय पर केंद्रित होते हैं जिसे वे सुंदरता से वर्णित कर प्रस्तुत करते हैं । अन्य कहानियां जैसे,  “ शिखंडी” “इज्जत” “घर वापसी” , “दावानल”, “अपने पराए”, “हाथ  का दिया” व “इच्छा मृत्यु” भी बेहतरीन कहानियाँ हैं किन्तु पाठक वर्ग का रोमांच बनाए  रखने हेतु मैं यहीं विराम लेते हुए अन्य कहानियों की केंद्रवस्तु अथवा विषय पर चर्चा न करते हुए  अनुरोध करूंगा की सुधि पाठकजन  सभी कहानियों को पढ़ें एवं इस खूबसूरत, सहज, सरल, संग्रहणीय  कथा संग्रह का आनंद लें ।

शुभकामनाओं सहित ,

अतुल्य     

 

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