Bhavyah Makad Jalam By Suresh Singh

 

समीक्षा क्रमांक : 99

भव्यः  मकड़जालम्

द्वारा    - सुरेश सिंह 

विधा   -   कविता

न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन,दिल्ली द्वारा प्रकाशित

मूल्य : 250.00

पृष्ठ संख्या --136

 


सुरेश सिंह, जमीन से जुड़े हुए  , आम आदमी के दिल की बात को  प्रस्तुत करने वाले एक ऐसे मुखर कवि है जिन्हें   बेहद खरी खरी बात  कहने हेतु जाना जाता है।  अपनी जड़ों से    जुड़े हुए   माटी   के सच्चे सपूत, जीविकोपार्जन के उद्देश्य से भले ही कृषि से जुड़े हुए  हैं, लेकिन यदि वास्तव में देखें तो आज भी साहित्य ही उनकी आत्मा में बसता है एवं वही उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता भी  है, और साहित्य सेवा ही उन्हें एवं उनके हृदय को वास्तविक सुख एवं शांति पहुँचाती है।अतः  वे कर्म से कृषक होने के बावजूद मन से अत्यंत संवेदनशील साहित्यकार हैं बगैर किसी चाटुकारितापूर्ण लेखन के, अपनी कृतियों में बेहद  स्पष्ट एवं कठोर शब्दों में पीड़ित आम जन के अंतर्मन के भावों को मुखरता से शब्द रूप  प्रस्तुत करने में वे कतई नहीं हिचकिचाते। सच को बगैर लाग लपेट के सच कह देना मानो उनकी विशिष्ठ शैली हो । वे अपनी रचनाओं में वह कह जाते हैं जिसे साहित्य जगत में  नामचीन मूर्धन्य साहित्यकार कहने से बचते रहते है

उनकी कविताएं अत्यंत युक्तियुक्त , गंभीर किन्तु सरल कवित्त है जो छद्म  , पाखंड और ढकोसले से कोसों दूर है तथा तुकबंदी जैसे बंधे हुए लीक आधारित पैटर्न को भी वे नहीं मानते । उनकी कविता या कहें की उनके भाव कहीं भी सीमाओं के दायरे में नहीं हैं , भाव स्वतंत्र हैं जिसके पीछे कवि की स्वयं की फितरत है जिसके चलते वे स्वयं को भी शासकीय सेवा  के बंधन में अधिक समय तक बांध कर नही रख  सके और स्वतंत्र रूप से कृषि कार्य व साहित्य सेवा करने में लिप्त हैं । उनकी लगभग 75  श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह है  “भव्यः  मकड़जालम्” जो हाल ही में प्रकाशित हुआ है । इसके पूर्व भी  "आज फिर धूप मैली है" शीर्षक से उनका कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका है। जिसे सुधि पाठक जन का अच्छा प्रतिसाद प्राप्त हुआ था। वे एक ऐसी शख्शियत हैं जिसके अंदर के भाव शब्द रूप में सुंदर कविताओं में ढल कर कविता के रूप में नज़र आते है उनकी कविता  सहज , सुलझे हुए स्पष्ट विचारों के लेख हैं । उनकी अभिव्यक्ति में कहीं भी भटकाव , अथवा अस्पष्टता नहीं दिखती।

उनके जीवन की सरलता उनकी कविताओं में भी स्पष्टतः झलकती है एवं उनकी समस्त रचनाए, सरल एवं बेहद सादगी लिए हुए हैं। उनकी भावनाओं को प्रदर्शित करने में भाषाई क्लिष्टता का आवरण बीच में नहीं आता जो सुखद है। उनकी कविताएँ प्रासंगिक होते हुए अत्यंत सरलता लिए हुए हैं एवं सामान्य वार्तालाप , संवाद या कथनोपकथन का भाग प्रतीत होती हैं किन्तु वास्तव में वे जीवन के गूढ़ार्थों एवं उनके मर्म तक ले जाती हैं ।

उनकी रचनाओं की सरलता पाठक को पढ़ने के प्रति लगन बढ़ाती है ,  उनकी कविताओं में व्याप्त संवादधर्मिता पाठकों से संवाद स्थापित कर पाठक को जोड़ लेती है उनकी कविताएँ व्यवस्था पर तीखी चोट करती हुई व भावात्मक होने के साथ ही विश्लेष्णात्मक भी हैं और ऐसे ही कुछ भाव उनकी कविता “चिता की आग सा” से उभरते हैं । उपमाएंक्लिष्ट शब्दों का बेवजह प्रयोग ,प्रतीक एवं विशेषण आमतौर पर नज़र नहीं आते हैं किन्तु यदि भाषा के सामान्य प्रवाह स्वरूप कहीं प्रयुक्त हुए भी हैं तो उनका अतिरिक्त आग्रह या अनावश्यक प्रतिस्थापन वहां लक्षित नहीं है। उनकी कविताओं में भावनाएं भी आम आदमी के मन की बात ही अधिक प्रतीत होती है सहज असहमति , अंतर आत्मा का विरोध, असंतोष अथवा अप्रकट रूप में भीतर ही भीतर घुटता सा एक आम आदमी का क्रोध  स्पष्ट लक्षित है मात्र भावों को व्यक्त करने हेतु शब्दों का सुंदर चयन किया गया है जो पूर्णतः उपयुक्त हैं।  कहीं भी अलंकारिकता या  भावों को विशेष रूप से सजा कर प्रस्तुत करने का अतिरिक्त प्रयास  नही किया गया

इस कविता संग्रह के शीर्षक से एवं कविताओं को पढ़ने के पश्चात सहज ही स्पष्ट हो जाता है की उनकी कविता वस्तुतः विचारों का एक जाल है जो उनके चिंतन को  दर्शाता है। इस विश्व की सांसारिकता में कहीं पारिवारिक तो कहीं सामाजिक मोह माया  का मकड़जाल है एवं यह सब कुछ  भौतिक रूप में दृष्टव्य है।

कविता के माध्यम से उन्होनें आम आदमी के मन में उठते विचारों के भवंडर को उसी आम जन के सम्मुख प्रस्तुत करने में सहायता की है जो स्वयं  आम आदमी ही शायद सदियों से कहने में हिचकिचाता रहा है।  भाव शब्दों के माध्यम से अपने सरलतम रूप में व्यक्त हो रहे हैं और सहज ही पाठक से बेहतर संवाद करने की स्थिति में है । पाठक का कविता से सहज ही जुड़ जाना आसान हुआ है क्यूंकी कविता के विषय आम आदमी के जीवन से उस की रोजाना की जरूरतों व मुशकिलात से जुड़े हुए हैं , कविताएं पढ़ते हुए प्रतीत होता है मानो हमारे भीतर जो कुछ भी उबल सा रहा है एवं बाहर आने को बेताब है वही अंदर का क्रोध शब्दों में किसी और ने बयान कर दिया हो। 

हमारे आपके सामान्य जीवन कि कटु सच्चाई ही शब्द रूप में हमारे सम्मुख प्रस्तुत हुयी है अतः जुडाव त्वरित , सहज एवं सरल हो सका ।  उनकी कविताओं से एक आम इंसान की संघर्षशीलता सहज ही नजर आती है। उनकी कविताओं में भाषा एवं अभिव्यक्ति   में सरलता एवं सादगी है |

कविता अभिव्यक्तों का आइक ऐसा माध्यम है जो सटीक रूप में एवं पूर्ण सत्यता से वास्तविकता को सामने लाते हुए समाज का दृश्य सामने रख देती है और कहा जा सकता है की  वह पैमाना है जो देश काल व स्थितियों विभिन्न दशाओं एवं परिस्थितियों  का चित्र प्रस्तुत करती है, जो की कवि हृदय के  संवेदनशील मन की अभिव्यक्ति मात्र है। सुरेश जी की कविताएं समसामयिक होते हुए स्वयम में एक तार्किकता समेटे हुए हैं एवं देश काल समाज व वैश्विक पटल पर भी जो घटित हो रहा है जो कवि हृदय को कहीं न कहीं उद्वेलित करता है वह सहज ही कविता रूप में ढल कर हमारे सम्मुख आ जाता है।

सुरेश सिंह जी के, सद्यप्रकाशित कविता संग्रह "भव्य मकड़जालम्" में प्रस्तुत कविता "उठाना ही होगा खतरा" में वे कहते हैं की तमाम विपरीत परस्थितियों  के बावजूद  कवि खतरे से बचकर नहीं निकलना चाहता "उठाना ही होगा खतरा

क्योंकि दुनिया खतरे की पीठ पर ही खड़ी हो सकती है

और खतरा विश्व व्यापी दिक्  होकर

संवेदना को आबद्ध कर रहा है

लगानी होगी छलांग

उतरना होगा समुद्र में

उठाना ही होगा खतरा! " 

इनके अलावा और भी कई अच्छी और बेहतरीन मर्म को छूती हुई अपने समय के प्रति सजग कविताएं इस संकलन में मौजूद हैं।

उनकी कविता उनके आस पड़ोस की सामान्य जन जीवन के परिवेश की कविता है , सारा समय प्रकृति की गोद में बने रहने के फलस्वरूप उनकी कविता प्रकृति की कविता है। कोई भी अद्भुत अथवा विशिष्ठ विषय वे नहीं खोजते ।   

उनकी कविताओं में संघर्ष लक्षित है जो उन्हें अपराजेय , संघर्षशील  जुझारू मानस  का कवि बनाता है जो सहज ही उनके कृषक अवतार में पेश आए संघर्ष व रोज मर्रा की मुश्किलात का फल है ।

सदैव ही सत्ताधारी और प्रभावशाली वर्चस्ववादी शक्तियों के विरुद्ध , सत्ताधीशों की आम जन  विरोधी नीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाना एक गंभीर आपराधिक कृत्य माना गया है वे अपनी कविता "गवाह" के इस अंश में कहते हैं कि -

तुम मार दिए जाओगे 

गाड़ियों  के चक्कों में दबाकर 

या टक्कर से ...........! 

तुम गवाह बनो

उससे पहले काट दी जाएगी  

तुम्हारी जुबान

साहित्य संग उनकी संबद्धता अत्यंत दीर्घकालीन  है साथ ही सहज सरल जीवन जीते हुए कृषि कर्म भी अतएव कहा जा सकता है की सुरेश जी की कविताएं उनके संघर्ष एवं अंत:करण के आक्रोश का दस्तावेज़ है एवं जीवन के कड़वे एवं सच्चे अनुभव उनकी कविताओं से स्पष्ट लक्षित हैं ।

संग्रह की कवितायेँ आम आदमी , बेबस मजदूर, बेसहारा व प्रकृति के प्रकोपों से एवं सामाजिक तथा राजनैतिक विषमताओं से पीड़ित किसान की आवाज है। वैसे भी जब जब संवेदनशील व्यक्ति के मन की  पीड़ा असहनीय हो जाती है एवं वह उसे  नजरअंदाज करने में समर्थ नहीं हो पाता,तब वह अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति किसी न किसी माध्यम से करता ही है और उस स्थिति में रचा गया काव्य अथवा साहित्य भले ही विधा कोई भी हो समाज के वर्ग विशेष को आनंद और नई दृष्टि के साथ चेतन जागृत करता है।  सुरेश जी ने इस हेतु कविता को माध्यम चुना ।

सामंतवादी सामाजिक संरचना में भेदभाव पूर्ण व्यवहार,  और राजनीतिक उठापटक व दाँवपेंच के बीच सत्ताधीशों व समर्थ कार्यपालकों के तथाकथित उजले चरित्र का पर्दाफाश करती हुई रचनाएं, कमजोर, दबे हुए, आम जन की आवाज मुखर करती हैं।

|होशियार जन से सतर्क रहने की सीख देते हुए कहते हैं की लोग दूसरों को भ्रमित कर हुए स्वयं अपनी सफलता का  मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं । अतः व्यक्ति को बगैर किसी के बहकावे में आए अपने प्रयास निरंतर जारी रखने होंगे

अपनी कविता भविष्य में वे लिखते हैं कि-

वह खड़े हैं

और तुम्हें कहेंगे बैठ जाओ

पर तुम सोच नहीं पाओगे

कि बैठा हुआ बैठा रह जाता है

सदियों तक।

और खड़ा हुआ चलते-चलते पहुँच जाता है भविष्य में

भविष्य बैठे हुए लोगों का कभी नहीं होता । ।

कविताओं में  तनिक क्लिष्ट हिन्दी , उर्दू, एवं  आंचलिक शब्दों का प्रयोग बखूबी किया गया है, जो की भाव को अधिक खुलकर स्पष्ट करते हैं एवं कहीं भी कविता के पाठन में बाधा समान प्रतीत नहीं होते इसके उलट भाषा और शब्द कविताओं को गति और लय प्रदान करते हैं। दृष्टव्य है की वे अपनी कविता में भावों को खूबसूरती से सहेजते हुए सुंदर विचार प्रस्तुत करते हैं, सदा प्रयास करने वाले , प्रयत्नशील ,जागरूक एवं चलते रहने वाले ही सफल हो पाते हैं

किसी भी विधा में संदर्भ अथवा शब्द मायने नहीं रखते जितने कि कविता , नाट्य प्रस्तुति अथवा चित्र के भाव , अपनी एक कविता में उन्होंने नव वर्ष की मुबारकबाद के माध्यम से पिछलग्गू होने व अंधानुकरण की मानसिकता पर प्रहार किया है ,किसी विचार, वर्ग अथवा व्यक्ति विशेष के हाथों की कठपुतली  बन उनके हाथों में अपना सर्वस्व समर्पित कर मात्र उसका अनुकरण और अनुसरण करते हुए अपनी स्वतंत्रता , स्वाभिमान, मानव धर्म और अपने जीवन की सार्थकता को भुला देना कहाँ तक उचित है इस ओर ध्यान आकृष्ट किया  है। वहीं इसी से मिलते हुए भाव लिए हुए उनकी एक और कविता है :

मैं पृथ्वी हूँ 

अपने लोक के तंत्र में बँधा हुआ 

तपते हुए सूर्य की प्रदक्षिणा के लिए अभिशप्त हूँ ।

अपने ही जाल में फँसी हुई 

मैं पृथ्वी हूँ। 

मेरे मन्तव्य से तो यह बात उन सभी पर लागू होती है जिन्होंने अपनी प्रकृति व प्रवृत्ति में ही दूसरों पर आश्रित रहना शामिल कर लिया है । स्वयम को सर्वस्व भूल चुके लोग जो परजीवी की श्रेणी में सहज ही रखे जा सकते हैं ।

 

कविता “पीठ” में  लिखते हैं।

नंगी पीठ किसी औरत की हो या मर्द की।

सबसे अच्छी जगह होती है 

वहाँ कुछ भी लिखा जा सकता है।

और वह आलेख की यातना भोगते हुए भी पढ़ नहीं सकता।

कहीं न कहीं यह उस प्रबुद्ध  वर्ग पर उनका आक्षेप है जो सब कुछ देखते हुए जान कर भी आँखें मूँदे बैठे रहते हैं। 

वहीं इस जीवन का कटु यथार्थ प्रस्तुत किया है इस कविता  “उतार दो” में , भाव देखिए

तुम्हारी यात्रा में अकेले मृत्यु इंतजार करती है।

और कोई नहीं।

जीवन केवल यात्रा का उत्सव है।

सहज सहभागिता के साथ उतरो इसमें।

यात्रा ही आनंद है ।

महा विलय में तो हम अकेले ही हैं।

नितांत अकेले।

उनकी यह  अत्यंत व्यापक गहरी सोच है जो सिर्फ कविता न होकर सम्पूर्ण  जीवन दर्शन ही दर्शाती है एवं जीवन के सच को सम्मुख प्रस्तुत  करती है। मृत्यु जीवन का कटु यथार्थ है, साथ ही सर्व विदित है कि इंसान अकेला ही दुनिया में आया है व अकेले ही यहाँ से विदा लेना होगी अमूमन हर कठिन परिस्थिति में भी अकेले ही रहते हैं  मृत्यु भी हमको अकेले ही प्राप्त होती है फिर भी हम इस कदर इस जीवन के मकड़ जाल में उलझे हुए हैं।

कविता “भव्य मकड़जालम्” जो की इस ग्रंथ की शीर्षक कविता भी है , में कविवर लिखते हैं कि

दुनिया एक नशे की दुनिया है।

रंगीन मोहक दुनिया वाद्यों और लय पर थिरकती हुई दुनिया।

और जब चलती है सुबह की लहरें सोई हुई चट्टान जागती है ।

किंतु पछाड़ खाकर रोती है औरत कोई ।

इसप्रकार छोटी-बड़ी समाज,मनुष्य शासन एवं सत्ता और प्रकृति की कथा कहती कविताओं से सज्जित यह संकलन पठनीय है।

 

इस कविता संग्रह ‘भव्य: मकड़जालम्’ में संग्रहीत कविताओं की बात की जाए तो यह कहना उचित होगा कि रचनाओं का शब्दात्मक और भावात्मक पक्ष मानवीय दृष्टिकोण है। आपकी कविताओं में आज के समय की  गूंज सुनाई पड़ती है, ग्राम्य जीवन के घटक कविताओं के बिम्ब हैं- लोक संस्कृति, प्रकृति, श्रमिक, कृषक, पालतू पशु आदि। मानवीय दृष्टिकोण की बात हो और कविताओं में अस्तित्ववाद न दिखे यह कैसे संभव है। इस संग्रह के अध्ययन से पता चलता है कि कवि सुरेश सिंह का स्वाभाविक चिंतन मानववादी है। कविताओं के माध्यम से यह चिंतन अपने पाठक तक सम्प्रेषण करने में सफल रहे हैं,

अंत में , एक कविता ‘आंख’ में वे कहते हैं की  

तुम चकित नहीं होना,

हो सके तो 

मेरी ही आँख से 

पढ़ना वो कविताएं 

जिन्हें मैं अभी तक 

शब्दों में नहीं ढाल सका। 

अंततः उनके इस विचार को आपकी सोच के साथ रखते हुए

शुभकामनाओं सहित

अतुल्य   

 

 

 

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