Ye Rasta Kahin Nahin Jata By Ramesh Khatri

 

ये रास्ता   कहीं नहीं जाता

द्वारा     : रमेश खत्री

मोनिका प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित 

विधा : उपन्यास 

“ये रास्ता कहीं नहीं जाता”

    वरिष्ठ कथाकार रमेश खत्री द्वारा मूलतः नारी विमर्श पर केन्द्रित रहते हुए निम्न वर्गीय समाज के विभिन्न पात्रों को भिन्न भिन्न काल , परिस्थितियों एवं सामाजिक परिवेश में विभिन्न परेशानियों एवं विषम हालात में डूबते उतराते हुए उनकी मानसिकता एवं व्यवहार को बखूबी प्रस्तुत किया गया है ।   

लेखक  :

वरिष्ठ कथाकार , समालोचक रमेश खत्री जी दीर्घ काल से साहित्य सृजन एवं प्रकाशन के क्षेत्र से सम्बद्ध हैं  एवं साहित्य की अमूमन प्रत्य्र्क विधा में उनकी विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है,  पूर्व में वे आकाशवाणी से सम्बद्ध रहे साथ ही उनका साहित्य संग रिश्ता भी निरंतर बना रहा है।  

उनके विभिन्न कहानी संग्रह जैसे “साक्षात्कार” “देहरी के इधर-उधर” ‘”महायात्रा” ,”ढलान के उस तरफ”,   इक्कीस कहानियां” आदि प्रकाशित हुए हैं वही कहानी संग्रह “घर की तलाश” आलोचना ग्रंथ “आलोचना का अरण्य” व आलोचना का जनपक्ष हैं प्रस्तुत उपन्यास “यह रास्ता कहीं नहीं जाता”   के सिवा उनका उपन्यास “इस मोड़ से आगे” भी काफी चर्चा में रहा ,  वहीं   नाटक ‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे” उनके प्रकाशित साहित्य है।


साथ ही लोक कथाएं परी कथाएं संपादन इत्यादि के कार्य में भी वे निरंतर लगे हुए हैं तथा समय समय पर उन्हें साहित्य जगत को उनकी सेवाओं हेतु विभिन्न पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया है ।  

पुस्तक चर्चा

“ये रास्ता कहीं नहीं जाता” का  कथानक एक मंझोले आकार के शहर के निम्न वर्गीय चंद पात्रों की अपनी अपनी मनोव्यथा के वर्णन से शुरू होती है। संतान के सिवाय लगभग हर स्थिति एवं व्यक्ति से असंतुष्ट व्यक्ति जिसके दिल में पत्नी के प्रति प्रेम के स्थान पर नफरत के भाव है जिसे उन्होंने कुछ इन शब्दों में उल्लिखित भी किया है  “ उसे याद नहीं आता मुकेश के लिए कभी उसके मन में इतनी तड़प पैदा हुयी हो।  उससे तो अब न जाने कितनी घिन आने लगी है।  यह अचानक भी नहीं हुआ है।  शुरू से ही मन के किसी गहरे कोने में यही सब दबा हुआ था।  जो अब समय की आंच पाकर बाहर निकल आया है। अब पूरी तौर पर उनके बीच पसर गया।

      मात्र शारीरिक आवश्यकताओं के सम्बन्ध ही निभाए जा रहे हैं , अपनी आजीविका से असंतुष्ट, आय व्यय की दौड़ में हमेशा ही व्यय का आगे रहना, ससुराल पक्ष के व्यवहार से भी दुखी, पत्नी के व्यवहार के चलते घर से, परिवार से दूर भागने की मानसिकता वहीं इसे ही पत्नी द्वारा अपनी जीत मान कर चलना पति को निकृष्ट समझना, अपने मायके के प्रति आवश्यकता से अधिक झुकाव और अपनी मां के सुझावों पर चलते हुए अपने घर का का सुख चैन समाप्त कर बंटवारा करवा लेना आदि मूल भूत कारण थे जो आगे जाकर विकराल  रूप लेते गए। नतीजतन घर बिखर गया ।  

कथानक का मूलतः संदेश यही है कि अनैतिकता फिर चाहे वह किसी भी स्तर पर हो किसी के भी द्वारा हो, परिवार के विनाश का कारण  होती है ।  वहीं समाज की स्थापित मान्यताओं के खिलाफ बगावत से भरे  फैसले  सब कुछ तबाह कर जाते है किसी को भी कुछ भी हासिल नहीं होता एवं स्वयं के जीवन के साथ परिवार का नाश व सामाजिक अपमान सभी कुछ झेलना पड़ता है  

तात्पर्य यही है की ऐसे कदम सिर्फ और सिर्फ तबाही ही लाते हैं व विनाश के आलावा कहीं भी नहीं ले जाते ।  हँसता  खेलता परिवार, गलत आदतों एवं फैसलों के चलते समाप्त हो जाता है यह भाव शीर्षक को सही मायनों में युक्ति युक्त होते हुए सार्थक करता है ।

विभिन्न पात्रों की अलग अलग सोच दर्शाने से यह उपन्यास शुरू होता है मानो हर पात्र आ कर अपने बारे में सफाई दे रहा हो इसे यह कह पाना की पात्र अपना परिचय स्वयं दे रहा है युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता क्यूंकि वस्तुतः पात्र काफी कुछ कह जाते हैं जो कि कथानक का भाग न होते हुए भी एक मुख्य भूमिका सृजित करता है।  उनके विचार , उनके भाव उलझन भरे हैं उनके संवाद अधितम स्वयं से ही होते हुए कथानक को गतिमान रखते हैं।  वे पात्रो की जिंदगियों के घटनाचक्र को बेहद बारीकी से, इस उपन्यास में  प्रस्तुत कर सके है वह निश्चय ही बेमिसाल है।

उपन्यास का कथानक दिलचस्प है एवं उसे दिलचस्प बनाये रखने हेतु प्रत्येक स्तर पर बेहद सुन्दर प्रयास किये गए हैं जो की गूढ़ होते हुए भी अपने उपस्थिति दर्शाते हैं। रोज़ के जीवन की भागमभाग , निम्न मध्यम वर्गीय परिवेश , सामाजिक मान्यताएं एवं बंदिशें व उन्हें तोड़ते हुए समाज को चुनौती देते बगावती फैसले, सफलता , असफलता के बीच झूलती ज़िन्दगी की कशमकश को जिस खूबसूरती से सहज सरल वाक्यांशों में संजोया है वह वाकई काबिले तारीफ है ।

निम्न माध्यम वर्गीय परिवारों द्वारा असमानता , अव्यवस्था के विरुद्ध जीवन के दोनों छोरों को मिलाने के लिए मांग व आपूर्ति के गणित को समझने में उनकी जिंदगी की रोज़ की खींचतान ,सारे जोड़ तोड़, स्पष्तः प्रस्तुत किये गए हैं । हर एक पात्र की मनोदशा समझने का प्रयास है उसका  मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। हर घटनाक्रम को वास्तविकता के साथ पूर्णतः न्याय करते हुए उसके सम्पूर्ण सच के साथ रखा गया है , कहीं भी कोई कृत्रिमता अथवा नाटकीयता नहीं है, बेहद सरल एवं सामान्य बोलचाल की भाषा में ही संवाद करते हुए पात्र हैं ।

पुस्तक से चंद सुन्दर भाव

 “इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच काफी समय तक चलती रहती और कोशिश करती सामंजस्य बनाने की किन्तु कोई भी इन दो छोरों के बीच में सामंजस्य कैसे बना सकता है।  यदि थोडा सा भी एक और झुकती तो दूसरा तन जाता , उसे तने हुए को शांत करना ज़रूरी होता ।  तनाव जीवन के लिए और उसकी अधपकी उम्र के लिए कितनी देर तक बर्दाश्त हो सकता है। ”

 “वह प्रेम और ममत्व की परिधि से निकल समय की परिधि में चली गयी। समय की परिधि तो भागदौड से शुरू होती है। समय अपने साथ सबको लगाये फिरता है।इन्सान इसी के वश में आता है । ”

 ”व्यक्ति का स्वार्थ ही सारी सीमाओं को तोड़ता है।  अभी भी सीमायें तो टूट रहीं हैं जिसे उसने टूट जाने दिया।  संयम की सीमा , मर्यादा की सीमा , और नारी अस्मिता की सीमा।  

“क्या अतीत का प्रतिरूप ही वर्तमान होता है ।  क्या वर्तमान की परछाई भविष्य होगी। ”

पुस्तक में दो प्रेम कथाएं आती हैं एक को तो प्रेम कथा न कह कह कर दोनों ही पक्षों का मात्र वासना पूर्ती का साधन कहा जाना अधिक उचित प्रतीत होता है एवं बेशक नारी पात्र उसे उचित ठहराने हेतु अपने पति के असंख्य दोष लिपिबद्ध कर दे, उसका माली से रिश्ता जोड़ने हेतु कोई भी तार्किक कारण नहीं दिया गया है अतः वह रिश्ता तो अनाचार ही हुआ, हाँ  दूसरा रिश्ता अवश्य कम उम्र के प्रेम से शुरू हुआ ,किन्तु यहाँ भी प्रेम के भोलेपन के स्थान पर शारीरिक भूख ही अधिक लक्षित हुयी ।  अंत इस का भी दुखांत ही हुआ।

  कह सकते हैं की दोनों बहनों की प्रेम कथाएं (?) असफल रहीं व संभवतः दोनों ही अतृप्त इक्षाओं की पूर्ती के प्रलोभन में चतुर तथाकथित प्रेमियों द्वारा ठग ली गयी ।  बगावत से पूर्व के दृश्य  बेहद कमनीय व खूबसूरत बन गए हैं वहीं पश्चातवर्ती  वेदना हृदय विदारक है । जीवन की समूची लय को अपने में समेटे पाठकों को बांधे रखने वाला उपन्यास है । कथानक के पात्रों के संवाद के द्वारा सरलता और सहजता से जटिल बातें पेश की गई हैं वे पठनीयता के आनंद में इज़ाफ़ा करती हैं । 

विभिन्न पात्रों के जीवन के भिन्न भिन्न स्तरों पर कुछ उतार चढ़ाव भी देखने को मिलते है। यदि कथानक प्रेम आधारित होता तो अवश्य ही प्रेम की विफलता चुभती किंतु यहाँ कथानक का भाव भिन्न है अतः दोनों ही नारी पात्र पाठक की संवेदनाएं प्राप्त करने से चूक गए हैं व सारी सहानुभूति व संवेदना शराबी पति द्वारा समेत ली गयी है।  लड़की के घर से भाग जाने पर व उसके लौट कर घर आने पर पिता द्वारा उसके साथ मार-पीट पितृसत्तात्मक परिवार का दृश्य तो प्रस्तुत करते हैं किन्तु वह किसी निम्न वर्गीय अथवा माध्यम वर्गीय परिवार में भी क्रोधवश सहज प्रतिक्रिया हो सकती है अतः आलोच्य नहीं है।

क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग बहुतायत में किया है जो पात्र एवं परिवेश के दृष्टिगत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। भाषा सरल और सहज है व पाठक को बाँध कर रखती है।  

कहानी की नायिका सरिता की पति से असंतुष्टि एवं शराब की लत के कारण उसके प्रति एक नफरत का भाव संभवतः वकील माली  के प्रति आकर्षण का बड़ा कारण बनता है जो उसे  माली से जोड़ने में एक बड़ा कारक बना जबकि वकील माली द्वारा सोची समझी चाल के तहत सरिता की इन भावनाओं का फायदा उठाते हुए मात्र वासना पूर्ति हेतु उसे अपने चंगुल में फँसा लिया गया और इस के चलते सरिता के  लगभग  सम्पूर्ण परिवार का ही नाश हुआ किन्तु उसे स्वयं कुछ भी हासिल न हुआ ।   हर तरफ से ठोकर एवं तिरस्कार ही मिलना समाज की एक ऐसी तस्वीर दिखलाती है जो अक्सर सामने होती है किन्तु समाज सभ्यता एवं निजी मामले कहकर उनसे विमुख ही बना रहता है ।  कथानक में सरिता के मातृत्व लबरेज़ ह्रदय के भाव बार बार उभर कर सामने आये हैं किन्तु बच्चों का माँ  के घर छोड़ कर चले जाने के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्शाया जाना चौंकाता है । वहीं सरिता की छोटी बहन का प्रेम प्रसंग सुंदर , मासूम अंदाज़ में आगाज़ , और मार्मिक अंत , पितृ सत्ता के कठोर दुर्दांत निर्णय, रोचकता से उकेरे गए हैं।  चंद मार्मिक दृश्य बन गए है यथा उस बहन का अपने बच्चे से दूर किया जाना ।   

खत्री जी जहाँ एक और मार्मिकता का चित्रण गंभीरता से करते हैं तो वहीं चंद दृश्यों में  कामुकता को भी उसी शिद्दत से निभा ले जाते हैं । वात्सल्य रास का भाव अगर पूरे भाव के साथ  दर्शाते हैं  तो वहीं दाम्पत्य संबंधों की तनाव की स्थितियां व अन्य सामाजिक रिश्तों के भी वास्तविक चित्रण को प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं । 

समाज के हर शख्स के भीतर कुछ न कुछ दमित इक्षाएं होना कोई असम्भाव्य स्थिति नहीं है एवं वहीं मौका मिलने पर सामाजिकता व मर्यादाओं के दायरे में रहते हुए उन इक्षाओं की पूर्ती  भी प्रतिबंधित नहीं है , किन्तु अपरिपक्व सोच व संभावित परिणामों को विमर्श में लिए बगैर लिए गए कदम बाज़ दफ़ा तमाम मुश्किलात भी खड़ी कर देते हैं। इस पठनीय पुस्तक के सृजन हेतु खत्री जी को साधुवाद एवं असीम शुभकामनाएं ।  

सविनय,

अतुल्य     

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