Kuchh Khas Nahin By Satish Sardana

 

“कुछ खास नहीं

 

कहानी संग्रह “कुछ खास नहीं”

द्वारा : सतीश सरदाना

विम्ब प्रतिबिंब प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 

मूल्य : 250.00

पुस्तक समीक्षा क्रमांक : 92

सतीश सरदाना जी का समीक्षाधीन कथा संग्रह “कुछ खास नहीं” 17 बेजोड़ कथाओं का संग्रह है जो कि निश्चय  ही एक  संग्रहणीय  कृति है। मूलतः भाव को आकार देती रचनाएं हैं  इस के पूर्व सरदाना जी का काव्य संग्रह “माँ  अंधेरा ढोती थी”  प्रकाशित हुआ था एवं   विभिन्न पत्र पत्रिकाओं  इत्यादि में उनकी रचनाएँ निरंतर प्रकाशित होती ही  रहती हैं ।  प्रचार प्रसार से दूर निरंतर स्तरीय साहित्य सृजन में  व्यस्त रहने वाली शख्शियत सरदाना जी सुस्थापित साहित्यकार हैं । 

इस पुस्तक के पूर्व मैने  उनके कविता संग्रह “माँ  अंधेरा ढोती थी” कि समीक्षा की थी एवं तभी यह स्पष्ट हो गया था कि सतीश सरदाना जी की लेखनी में वह बात है की वे अत्यंत शांत भाव से  अपने भाव व्यक्त कर देते है, वर्तमान में जो भी घटित हो रहा है वह उनकी कविताओं में अथवा उनकी कहानियों के कथानक में स्पष्ट दिख जाता है और जहां वे खुलकर नहीं आते वहाँ कथानक  के भाव यह स्पष्ट कर देते हैं की वे किस संदर्भ में लिख रहे हैं । वे घटनाओं  के मूक दर्शक बन कर बैठ नहीं जाते , वे अपने भाव प्रधान कथानक के जरिये अपना विरोध अपनी प्रतिक्रिया या अपना  पक्ष प्रस्तुत कर देते हैं । 

उनकी संवेदनशीलता उनके कथानकों में स्पष्ट लक्षित होती है । विषय संबंधित सहज जिज्ञासा एवं सामाजिक विद्रूपताओं, घटनाओं एवं परिवर्तनों पर उनकी दृष्टि निरंतर बनी रहती है । अपने विषय एवं भाव को लेकर बेहद सहज सरल एवं स्पष्ट हैं । कहीं कोई उलझन अथवा विचारों  की अस्पष्टता नहीं है , उनकी लेखनी सशक्त एवं सुलझी हुयी मानसिकता के धनी रचनाकार होने की परिचायक है। 


     सतीश जी पात्र के माध्यम से , अपने अंतर्मन के भाव एवं घटनाओं ,  तथा जीवन के खट्टे मीठे तजुर्बों और विभिन्न एहसासों को शब्द दे कर कथानक  में ढालने में निपुण है। उनकी अभिव्यक्ति में सौम्यता  है, कठोरता अथवा मारक शैली नहीं है । सरल बोधगम्य शब्दों में अपने विचार साझा करते हैं।  वर्तमान स्थिति  एवं परिवेशपर भी वे विचार साझा करते हैं , उनके पात्र मुखर हैं , अपनी राय खुलकर रखते हैं , अपने नजरिए के विषय में भी स्पष्ट हैं। आम तौर  पर अव्यवस्थाकुप्रथाअसामान्य गतिविधियां उनकी नज़रों से बचते नहीं हैं ।

सतीश जी कि कहानियां गंभीर, गहन, विषयपरक  बेहद गहरी सोच का परिणाम है जिनमें  उथलापन अथवा  अपरिपक्व विचारों को कोई स्थान  नही है। उनके कृतित्व एवं  उनकी शैली को साहित्य जगत ने भी अत्यंत आदर भाव से स्वीकार किया है।

“बूढ़ा हो गया हुआ पौधा” : 

कहानी सांकेतिक रूप से व्यक्ति की कलुषित मानसिकता, परिस्थिति, मानसिकता एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाहन संबंधित विषयों पर गहनता से बूझने हेतु आधार निर्मित करती है । शीर्षक के विषय में थोड़ा संशय है की वास्तव में वे इन  शब्दों के उलट पलट से कुछ विशेष कहने का प्रयास कर रहे हैं चूंकि कथानक बचपन से वृद्धावस्था  तक का है तो क्या वे इसे  “बूढ़ा हो चुका पौधा” रखना चाह रहे थे ।

पारिवारिक परिवेश एवं रिश्तों के  परिप्रेक्ष्य में रचित  एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो बचपन में बतौर एक विभाजन शरणार्थी के रूप में भारत आता है किंतु कहानी उसके संघर्ष की अथवा मुश्क़िलों की न होकर उसकी धूर्तता एवं रिश्तों से हर संभव लाभ उठाने पर केंद्रित रहती है । अंत तक भी वह किसी से संवेदना अथवा सहानुभूति नही प्राप्त कर पाता ।

"दो बरगद" कहानी में जो मेरी पसंदीदा बात रही और उस कहानी  की सबसे ज्यादा खूबसूरत बात है वह है उसकी क्षेत्रीय  भाषा जिस के कारण  भाव बहुत खुल कर उभरे हैं, जो कि संभवतः सामान्य तौर पर यदि लिखे जाते तो शायद इतने प्रभावी न होते। किसी विशिष्ट विषय पर केंद्रित कथानक नहीं है , जीवन की रोज़मर्रा की समान्य सी  कहानी है, जिसमें रिश्तों में थोड़ी बहुत नाराज़ी , थोड़ी चुहल तो दर्शायी गयी हैपरंतु अंत, जो कि बड़ों के आदर सम्मान से संबंधित है, प्रभावित करता है। लघु कथा तो नहीं है किंतु बहुत ज्यादा व्यर्थ विस्तारित कथानक भी नहीं है ।

“टोकस तो गया” कहानी व्यक्तियों के परस्पर व्यवहार , विचारधारा पर केंद्रित,  कोरोना काल के शुरुआती दौर की कहानी है । कहानी मतभेद से मनभेद तक चली जाती है । आम सामाजिक जीवन का चित्रण है जहां सभी की विचारधारा समान होना न तो संभव है एवं ना ही सामान्य । फिर भी बाज़ दफा अपने से भिन्न विचारधारा वालों से व्यक्ति सहज ही मन में दुर्भावना  रख लेता है  फलस्वरूप व्यक्तिगत संबंध भी प्रभावित होते हैं और व्यक्तिगत प्रतिशोध की अप्रिय  स्थितियां भी बन जाती हैं , वहीं कोरोना काल के दौरान तार तार  होते रिश्ते व स्वार्थ एवं भावना शून्य मानसिकता का भी भावनात्मक चित्रण किया है ।

पारिवारिक संबंधों में व्याप्त होती रिक्तता पर है कहानी “बोझिल शाम”,  जिस में एक व्यक्ति के जीवन के विभिन्न विरोधाभासी दृश्यों को प्रस्तुत किया गया है जहां एक ओर  उसे परमार्थ व दूसरों को मुश्किल वक्त में सहयोग करता हुआ दर्शाया गया है , वहीं पत्नी के संग मिलकर स्वयं की मां के प्रति उसका अनादर पूर्ण एवं क्रूर  व्यवहार, अचंभित करता है किंतु अशक्त एवं मजबूर हो जाने की स्थिति में उसके ही पत्नी व बच्चों द्वारा उसकी उपेक्षा एवं उसका तिरस्कार किया जाना उसके द्वारा  उसकी मां के प्रति किये गए दुर्व्ययवहार के परिप्रेक्ष्य में अधिक विचलित नही करता तथा पाठक उसे उसका कर्म दंड मान कर  संभवतः जैसी करनी वैसी भरनी की  स्थिति के रूप में लेते हैं   

“इश्क़ का क्या है” , कहानी कहने का तरीका जो इस कहानी में सरदाना  जी ने चुना है बिल्कुल ही नया सा  है । एक लड़की या कहें महिला से अनायास मुलाकात को क्या नाम दें , उसे क्या इश्क़ नाम दिया जा सकेगा इस बिन्दु पर कहानी शुरू तो होती है किन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बन रही हैं कि न तो नजदीकियां बढ़ रही है ना ही अलग कर रही है फिर भी एक अनाम सी भावना बनी हुई है जिसे समझना मुश्किल है । वह क्या इश्क़ है अथवा  महज एक मुलाकात । कुछ कुछ हालात भी ऐसे बनते हैं कि वे इश्क़ के समानान्तर से चलते रहते हैं । और फिर ऐसे ही मोड़ पर कहानी भी छोड़ जाती है । हल्की, मनोरंजक कहानी है किंतु प्रेम कहानी तो नहीं ही है हाँ संभावनाएं बनी हुई हैं और हो सकता है भविष्य में शायद इस रिश्ते को भी कुछ नाम मिल जाए  

“मकान नंबर 145” आज के प्रगतिशील या कहें आधुनिकता एवं आवश्यकता के चलते नैतिकता के बलिदान की कहानी है जहां एक आधुनिक युवती है जिसे  अपनी आवश्यकताओं के लिए शारीरिक संबंध बनाने से गुरेज नहीं है किन्तु नहीं चाहती की उसे पेशेवर कॉल-गर्ल समझा  जाए। पढ़ाई पूरी करने हेतु पैसों की आवश्यकता पूरी करने के लिए कान्ट्रैक्ट मैरिज करती है किन्तु किसी एक से बंध कर रहने की मंशा भी नहीं प्रतीत होती उसकी। कारण तो प्रत्येक सच एवं झूठ को मन मुताबिक साबित करने हेतु अनेकों घड़े जा सकते हैं।  आधुनिकता व आगे जाने की आंधी दौड़ में नैतिकता के गिरते हुए मूल्यों पर परोक्ष रूप से करारी चोट करती हुई कहानी है।     

“टूथपेस्ट” : आस्था के व्यक्तिवादी होने पर मशविरा देती हुई तथा व्यक्ति पूजा के स्थान पर ज्ञान पूजा को उचित बतलाती कहानी है । यहां गुरु की तुलना उस टूथपेस्ट से की गई है जिसे हम नित्य ही विश्वास के साथ इस्तेमाल तो  करते हैं किंतु दांतों में आये किसी भी प्रकार के दोष को अपने खान पान की गलती मानते हैं, और या तो  टूथपेस्ट बदलते है या फिर वापस उसी को इस्तेमाल करते रहते  हैं , किन्तु टूथपेस्ट की किसी भी प्रकार की कमी पर हमारा ध्यान नहीं जाता या हम देखना ही नहीं चाहते । 

तात्पर्य की मन  मस्तिष्क उस बात को ही मानता है जो हम उस से मनवाते हैं, पात्रों के ज़रिए अत्यंत खूबसूरत विचार प्रस्तुत कीयरए गए हैं,  जो ज्ञानवर्धक होते हुए अनुकरणीय भी है। टी वी के प्रसार का यदि सर्वाधिक फायदा किसी ने ने उठाया है तो वे जो आज बाबा या धर्म गुरु बन विभिन्न चैनलों पर उपदेश देते दिखलाई पड जाते है एवं  ये लोग वही है जो पूर्व में मात्र अच्छे वक्ता थे, क्योंकि इसके पूर्व इनकी धर्म गुरुओं के विषय में कोई जानकारी अथवा इतिहास  उपलब्ध या तो है ही नहीं अथवा विरले ही उपलब्ध होगी ।

कथानक एक विख्यात बापू अथवा प्रवचन कर्ता अथवा वक्ता जिसे एक बहुत बड़ा वर्ग गुरु मान कर पूजने लगा, उसे ही केंद्रित करके लिखा गया है जिन पर बलात्कार का आरोप होते हुए भी भक्त आस्था वश या अज्ञानता वश उनके लिए विलाप कर रहे हैं । कहानी में ऐसे ज्ञानान्ध भक्तों हेतु अच्छा संदेश  है वे कहते हैं कि : जैसे टॉर्च की रोशनी का सहारा लेकर हम घुप्प अंधेरे में भी देख लेते है किन्तु रास्ता टॉर्च ने नही रोशनी ने दिखलाया है । टॉर्च  तो मात्र एक माध्यम था। एवं यह माध्यम कुछ और भी हो सकता है ।

गुरु भी हमारी तरह ही देह धारी  प्राणी होता है उसके पास भी वही 5 इंद्रियां होती हैं जो हमारे पास होती हैं । सत्कर्मों के प्रताप से वह इंद्रियों को नियंत्रण में रख  कर ग्रंथों और जीवन का सार हमें कहता है। यह उपदेश ही हमें मार्ग दिखलाता है। यदि कल को देहधारी गुरु इंद्रियों पर नियंत्रण न रख पाए और विपरीत आचरण करने लगे तो हमें दुखी होने के बजाय धैर्य धारण करके उस की शिक्षाओं पर अमल करना चाहिए।

वे इसी संदर्भ में आगे बहुत ही सुंदर बात कहते हैं कि धर्म और विज्ञान जीवन को संचालित करने वाली दो शक्तियां हैं धर्म आस्था पर आधारित है और विज्ञान कार्य-कारण संबंध पर । विज्ञान का रास्ता सच  होने पर भी लोग धर्म के रास्ते पर चलना पसंद करते हैं क्योंकि धर्म हमें स्वाभाविक तौर पर संस्कारों में ही आ गया है जबकि विज्ञान हेतु अतिरिक्त प्रयास अनिवार्य  होते हैं ।

“साहब”,  भारत की राजनीति , जाती भेद से उपजते क्लेश व समर्थ द्वारा शोषित का शोषण जैसे कई मुद्दे एक लगभग लघुकथा में उठाये गए है एवं अत्यंत खूबसूरती से संवार भी दिए हैं । एक सरल प्रवाह है घटनाओं का भी जिस से कहीं कुछ भी थोपा हुआ या फिर व्यर्थ जोड़ा गया प्रतीत नहीं होता । एक ओर राजीव गांधी और वी पी सिंह जैसी शख्शियतों को लेकर कहा गया है तो वही वर्ण व्यवस्था का भी जिक्र है। कम शब्दों में बहुत सार्थक कथा कही है ।

“मंजुला” , कहानी एक  तंज है , महिला की कार्य क्षमता व एवं उसकी योग्यता पुरुष से बर्दाश्त नहीं होती तथा वह भले ही योग्य हो अथवा न हो स्वयं को महिला से ऊपर ही देखना चाहता है एवं यह भावना इतनी अधिक प्रबल है कि वह उस महिला से प्राप्त कोई अच्छा सुझाव भी अपनी फजीहत मान बैठता है । महिला के संघर्ष एवं उसकी प्रतिभा का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी उसका महिला होना ही हो जाता है क्योंकि पुरुष उसे मात्र महिला रूप में ही अवलोकित करते है ना कि उसकी कला या प्रतिभा के परिप्रेक्ष्य में।

इसी प्रकार अन्य कहानियाँ भी भिन्न प्रकार के विषय लिए हुए हैं , फिर वह “चोखा दाम” हो अथवा “गुरुदक्षिणा” या फिर “बुआ  सब जानती थी” और “आशा” । वहीं “कुछ खास नहीं” मानवीय संबंधों के गहरे और उथले दोनों पहलू साथ साथ दिखलाती है। कहानी संबंधों पर तीखा वार करती है। किसी की मौत भी अन्य हेतु जब कुछ खास न हो तब और कहा  ही क्या जा सकता है।

प्रस्तुत कहानी संग्रह, एक गंभीरता के संग पठनीय रचनाओं का संग्रह है ।

शुभकामनाओं सहित

अतुल्य

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