Gumshuda Credit Cards Editor Neelam Kulshreshth
गुमशुदा क्रेडिट कार्डस
समीक्षा क्रमांक : 93
कहानी संकलन :
गुमशुदा
क्रेडिट कार्डस
नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा संपादित एवं
वनिका पब्लिकेशन्स द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 280.00
प्रस्तुत कहानी संकलन “गुमशुदा क्रेडिट कार्डस ” , की समीक्षा निश्चय ही अत्यंत दुरूह कार्य था ,14 श्रेष्ठ लेखिकाओं की श्रेष्ठ रचनाओं को स्वतंत्र रूप से पढ़कर उसे अलग अलग यूं समीक्षित करना की संपूर्णता के साथ एक दूसरे के प्रभाव से कतई प्रभावित भी न हों। यूं तो समग्र रूप से पुस्तक के विषय में एवं संकलन में सम्मिलित कहानियों के विषय में एक सामान्य राय दी जा सकती थी किन्तु मैंने उसे प्रत्येक विदुषी लेखिका के लेखन के विषय में, उनकी लेखन शैली को जानने समझने हेतु प्राप्त एक सुअवसर के रूप में देखा एवं सभी कहानियों को इत्मीनान से पढ़ कर उन पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं ।
सभी कहानियों में मूल भाव लगभग एक ही है और हो भी क्यों न ,जब की विषय ही माँ पर केंद्रित हो। हर मां लगभग समान परिस्थिति को झेलती है इसीलिए तो हर रूप में नारी की कसमसाहट , मां की उहापोह के हालात , पत्नी द्वारा अपनी योग्यता को दबाकर परिवार चलाने में एवं मां की जिम्मेवारियां निभाने में संलिप्त हो जाने की विवशता , पति का पत्नी को ही बच्चों की जिम्मेवारियां संभालने हेतु उत्तरदायी मानना , पत्नी का अपने सपनों को न सही, बच्चों व पति के सपनों को पूरा करने में स्वयम को न्योछावर कर देना, आदि आदि । वहीं कुछेक महिलाओं द्वारा माँ के दायित्वों से मुक्त होने के पश्चात ढलती उम्र में पुनः अपने सपनों को जी लेने के प्रयास प्रारंभ करते हुए दर्शाया गया है जो की निश्चित ही एक बेहतर व स्वस्थ सोच को जन्म देती है।
यूं तो प्रत्येक रचना इतनी अर्थपूर्ण एवं सुंदर भाव सँजोये हुए है कि प्रत्येक कहानी पर विस्तार से लिखा जाना चाहिए किन्तु फिलहाल तो कहानियों के संकलन के पुस्तक रूप में ही सम्पूर्ण पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत कर रहा हूँ अतः प्रत्येक कहानी के विषय में संक्षिप्त टिप्पणी ही उल्लिखित है , विस्तार से फिर कभी , या फिर जब लेखिकाएं इन कहानियों को अपने एकल कथा संग्रह में रख कर प्रस्तुत करेंगी तब पुनः इन पर विस्तृत विचार आपके सम्मुख रखूंगा ।
अमूमन समस्त लेखिकाओं की भाषा
सरल है सभी की शैली एवं वाक्य विन्यास सहज एवं सुंदर है तथा विषय पर विचारों की
स्पष्टता एकदम साफ है कहीं भी उलझाव अथवा भटकन नज़र नही आती । कहानियां कहीं से भी
अपने कहानी होने का परिचय नहीं देती अपितु शैली इतनी सुंदर है कि लगता है मानो
आत्मकथ्य ही पढ़ लिया जा रहा है एवं यही वह क्षण होता है जब पाठक पूर्ण रूप से
स्वयम को कथानक से जुड़ा हुआ महसूस करता है एवं मेरे दृष्टिकोण में वहीं लेखन अपना
गंतव्य पा लेता है। प्रस्तुति अत्यंत रोचक है जो कथानक के संग बांध
कर रखती है ।
प्रत्येक लेखिका की कहानी एक
सुंदर किन्तु गंभीर भाव एवं विचारण हेतु विषय प्रस्तुत करती हुई है ।
अपनी शैली में माहिर ,प्रतिभावान
इन लेखिकाओं की श्रेष्ठतम कृतियों पर एक ही बार में लिखने के साथ ही यह स्मरण रखा
गया है कि प्रत्येक लेखिका की शैली की विशेषता को प्रमुखता से पहचानते हुए
उल्लिखित भी किया जाए । अपनी टिप्पणी को सटीक एवं संक्षिप्त रखने का हर संभव
प्रयास करते हुए प्रत्येक रचना पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।
सर्व प्रथम तो वर्तमान काल में
साहित्य जगत की चंद अत्यंत प्रतिभाशाली
लेखिकाओं की चुनिंदा रचनाओं को एक ही पुस्तक में प्रस्तुत करने के इस उत्तम
प्रयास हेतु संपादिका नीलम कुलश्रेष्ठ जी को साधुवाद । श्रेष्ठ कृति है, एवं नीलम जी
ने भूमिका में ही सम्पूर्ण पुस्तक का सार जिस खूबसूरती से प्रस्तुत किया वह अद्वितीय है। सभी कहानियां मां पर केंद्रित हैं एवं जिस
खूबसूरती से प्रत्येक लेखिका ने अपनी कहानी प्रस्तुत
की है वह उनकी विलक्षण प्रतिभा एवं लेखनी की शक्ति बयां करती हुई विशिष्ठ प्रतिभा की परिचायक है ।
डॉ. जया आनंद की कहानी “मैं नहीं, तू ही” में महिला की मां और कामकाजी महिला के बीच की उहापोह की स्थिति को दर्शाया गया है । नायिका हेतु उसका कैरियर पहले एवं परिवार विस्तार उसके बाद में है , जो कि पति पक्ष के विचारों के विपरीत है हालांकि प्रत्यक्ष विरोध तो नहीं है व पति एवं ससुराल पक्ष के अन्य सदस्यों का सहयोग भी दिखता है जो कि वस्तुतः दिखावटी ही प्रतीत होता है , बस शब्द मीठे हैं , व्यवहार सहयोगी एवं प्रेमपूर्ण नजर आता है उपेक्षा नहीं है किन्तु उनकी प्राथमिकता नायिका से विपरीत है । घटना क्रम का अत्यंत रोचक वर्णन है तथा अंत का तो क्या ही कहूँ अचंभित करता है, सामान्य शब्दों को सरल वाक्यों में पिरो कर बेहद रोचक शैली में प्रस्तुत वास्तविकता है जहां नारी समझौता भी कर रही है किन्तु न तो जतला सकती है और न ही कुछ कह सकती ।
“गुमशुदा क्रेडिट कार्डस” जो की इस संकलन की शीर्षक कहानी भी है , नीलम जी
के अनुभव का निचोड़ प्रस्तुत करती हुई कहानी , जिसमें नायिका अपने कैरियर को भुला
कर सम्पूर्ण जीवन परिवार के लिए अर्पण कर चुकी महिलाओं का प्रतीक रूप है। कहानी दर्शाती
है कि माँ के त्याग का क्या वाकई कोई
मूल्य भी होता है अथवा क्या कभी उसके त्याग को उचित स्थान भी प्राप्त होता
है , संभवतः नहीं , क्या बीतती है उस माँ पर जब बच्चे बड़े होने पर दो टूक कह देते है कि माँ आप हर बात का क्रेडिट मत लो, अर्थात
सामान्य बोलचाल में कथानक से इतर इसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि तुम ने
किया ही क्या है , आज हम जो हैं वो तो स्वयम हमारे ही प्रयास और मेहनत से हैं।
प्रतीकात्मक वर्णन में कैरियर और क्रेडिट कार्ड्स की भावनात्मक समरूपता दर्शाई गई है
। अत्यंत सीमित शब्दों में अपनी बात बहुत ही सटीक तरीके से पाठकों तक
पहुंचाने में सफल रहीं हैं और काबिले गौर
है कि संक्षिप्तता के चलते सरलता से कतई समझौता नहीं किया गया है अर्थात सामान्य
बोलचाल के शब्द व वाक्यों को क्लिष्टता से बचाते हुए ही अपनी बात कह गई हैं।
अंजू खरबंदा की “पल पल
दोराहा”, समाधान प्रस्तुत करते हुए , नारी मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति को दर्शाती
है। अपने दोनों ही दायित्व अर्थात शिशु के
प्रति माँ का उत्तरदायित्व वहीं परिवार के प्रति भी अपने दायित्व को समझते हुए नायिका
द्वारा उठाए गए कदमों का वर्णन है। जहां आज के बढ़ते हुए खर्चों वाले समय में एक व्यक्ति की कमाई स्वाभाविक रूप से कम
पड़ ही जाती है वहां नायिका भी चाहती है कि घर खर्च में अपनी अर्जित योग्यता का लाभ उठा कर कुछ योगदान करे किन्तु पशोपेश में है कि कैसे काम पर जाए और
6 माह के शिशु से उसकी मां को कैसे छीन ले। साथ ही उसे अपना बचपन भी याद आता
है जो स्वयम उसने बगैर माँ के ही बिताया था अतः वह उस कमी को बेहतर अनुभव करती है।
विदुषी लेखिका द्वारा समस्या का सुंदर हल प्रस्तुत कर के समान किस्म की जद्दोजहद
में फंसी अनेकों महिलाओं को रास्ता दिखाती हुई कहानी है जहां भाव भाषा सरल हैं और सहज
ही दिल में उतरते चलते हैं ।
शैली खत्री जी की “मेरा फैसला” भी कामकाजी मां के द्वारा बच्चों के लिए अपने कैरियर की आहुति देने का किस्सा है। जहां पति बराबर की सहभागिता न करते हुए बच्चे को मां की एकल जिम्मेवारी समझ सब कुछ उस पर छोड़ देता है,तब पत्नी सब संभालती भी है किंतु ताने उलाहने से उसका पीछा फिर भी नही छूटता , और थक हार कर वह स्वयं अपना कार्य छोड़ने व बच्चों पर समग्र ध्यान केंद्रित करने का फैसला करती है और विडंबना यह है की वह फैसले को लेकर संतुष्ट दिखने को बाध्य भी है, कौन उसका अंतर्मन पढ़ पाया है । क्या यह संतुष्टि हालात से समझौते के बाद वाली प्रतीत नहीं होती है। यही दबी हुई इच्छा बच्चों के बड़े होने पर फिर मुखर होती है, किन्तु समय व उम्र की सीमायेँ क्या वही बीता समय उसे दिलवा पाएंगे जो खोकर उसने बच्चों को सक्षम व पति को सफलता के शिखर तक पहुंचा दिया ।
डॉ पूनम गुजरानी की “संदूक
में बंद सपना” सुंदर भाषा व आकर्षक प्रस्तुति में एक
सफल नृत्यांगना के जीवन के संघर्ष की और जिंदा सपनो को फिर से जी लेने की कहानी है
जो शायद कहती है कि सपनो को ज़िंदा तो रखिये उन्हें मरने न दें शायद कभी सच ही हो
जाये।
यह कहानी है जो नारी की विवशता
को उसके सपनों को पारिवारिक दायित्वों के बोझ के तले दफन कर देने को दर्शाती है।
नारी के जीवन में भले ही वह कितनी भी प्रतिभाशाली एवं योग्य क्यू न हो , (पुरुष के
विपरीत) नारी की पारिवारिक प्राथमिकतायेँ सदैव उसके स्वयं के सपनो से ऊपर ही होती है। घर व
बच्चे के प्रति उसके दायित्वों के चलते स्वयम के सपने
तो सपने ही रह जाते हैं एवं दिल को समझाने के लिए वह उन्हें बच्चों में फलीभूत
होते देखना चाहती है व सौभाग्यशाली हुई तो देख भी लेती है । अत्यंत भावनात्मक कहानी है , अपने साथ प्रवाह
में ले जाती है।
विनीत शुक्ल की “टीस”, कामकाजी महिला और घरेलू महिला के बीच पिसती नारी
को लेकर है किंतु यहां स्थिति उलट है परिवार चाहता है कि जॉब किया जाए ,जिसके पीछे
निश्चित ही आर्थिक कारण हैं एवं महिला की प्रतिभा का सम्मान करने जैसा कोई भाव
इसमें लक्षित नहीं होता । पति का लगभग नाकारा होना, ससुराल पक्ष के लोगों के
द्वारा बच्चे को भी मां के खिलाफ कर देना, पति का अन्य महिला की ओर झुकाव एवं अन्य रोज़ के घरेलू सास बहू के बीच के मुद्दों को सहजता
से सरल प्रवाह में उठाया गया है व नायिका की दिली कड़वाहट को बहुत खूबसूरती से शब्द
दिए हैं , प्रस्तुति अत्यंत सहज है फलस्वरूप घटनाक्रम वास्तविक ही प्रतीत होता है ।
कहानी का सुखांत नारी शक्ति की जीत , पति समेत ससुराल पक्ष के कलुषित
विचार एवं ओछी मानसिकता सामने आ गए हैं
एवं बेटे के हृदय परिवर्तन को दर्शया है ।
डॉ रंजना जैसवाल की “आधे अधूरे” एक ऐसी महिला के बारे में है जिसके सपने स्वयं उसकी मां भी नही समझती और
व्याह कर जिस घर में जाती है उनसे तो उसे उम्मीद ही क्या थी फिर भी सबके विरोध के बाद भी नौकरी करती है
किंतु परिवार तो सिर्फ उसके पैसों से खुश होता है और वह सभी जिम्मेवारियों और दायित्वों के बीच पिसती है और यहाँ भी पति उसकी
जिम्मेवारियों को बांटने को तैयार नहीं है । फिर क्यों और किस मानसिक अवस्था में वह सबके विरोध
के बावजूद बेटे के निर्णय में उसका साथ देने को खड़ी
होती है यह जानना रुचिकर भी है व नारी मन की शक्ति व जुझारूपन का परिचायक भी ।
“रेवा और रंग” सीमा जैन
द्वारा रचित कहानी जहां नारी जीवन की प्राथमिकताएं , स्वयं चुने और बुने
हुए सपने , उन्हें आधा अधूरा पूरा होते देखना जैसे कई विषयों
को समेटे हुए है , साथ ही परिवार का और परिवार को सहयोग जैसे
मुद्दों को भी बहुत अच्छे से संजोया गया है , ऐसे ही नारी जीवन के विभिन्न रंगों को समेटे
हुए है यह रचना । आकर्षक व लुभावन प्रस्तुति है।
डॉ. प्रभा मुजूमदार की "निर्णय"
, अत्यंत प्रभावी शैली में ज़िंदगी में अपने कैरियर के उत्कर्ष एवं
पश्चातवर्ती समझौते के चलते सपाट अर्थहीन चलती परिवार
की सेवा में गुज़रती ज़िंदगी , तथा अंत में पुनः उड़ान की
तैयारी को दर्शाती हुई, नारी के हौसले व कुछ कर गुजरने के सलामत रखे हुए जज़्बे को
दर्शाती है। प्रेरणादायक कथानक है।
अनीता दुबे की “एक चिट्ठी”
बिटिया की प्रेरणा से पुनः अपने शौक को जीवित करने के प्रयास करती हुई व किसी
परिचित का अपनी पत्नी को सहयोग करना जिसने पहले इनसे ही प्रेरित हो कर काम किया अब ये उनसे प्रेरित हो
गयी । लेखिका ने कहानी में काम वाली बाई का और दूध देने आने वाले व्यक्ति के
उद्वरण को अत्यंत सहजता से कथानक में अपनी बात रखने हेतु प्रयोग किया है । जीवन के
किसी मोड़ पर कभी हम प्रेरणा बन जाते हैं तो कभी हम प्रेरित होते हैं अन्य की
सफलताओं से , उनके प्रयासों से। कहानी व्यवस्थित
विस्तार लिए हुए आगे बढ़ती है एवं
बिटिया का सहयोग व प्रोत्साहन भी अपने सपनो को पुनः आकार
देने हेतु प्रेरित करता है।
प्रगति गुप्ता जी की कृति “गुम
होते क्रेडिट कार्ड्स ” , प्रेम विवाह , समान
प्रोफेशन एवं लगभग सभी अनुकूल स्थितियों के बावजूद पत्नी पर ही घर परिवार का भार
छोड़ दिया जाना, भले ही उस के लिए वह अपने सारे सपने, सारी मेहनत से अर्जित हुनर, और शोहरत, दांव पर
लगा दे जो कि शायद फिर कभी वापस न पा सके । टूटते सपने, खत्म होता कैरियर, कितने
मिलते जुलते हैं क्रेडिट कार्ड्स के स्वरूप से । दोनों ही आवश्यकता में इस्तेमाल
हुए और जब जरूरतें पूरी हो चुकी तब
दरकिनार कर दिए गए। आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किये गए और वहाँ पैसों से तो यहाँ ज़िंदगी के लम्हों से खाता खाली होता गया । जब सभी की ज़रूरतें पूरी हो गयी
उसके बाद क्या ... एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है जो हर उस कामकाजी महिला के मन में सदा चलता
रहता है जिसे घर और कैरियर दोनों में बैलेंस ही न बनाना हो बल्कि घर की पूरी जिम्मेवारी के संग अपना काम भी देखना पड़े ।
एक बहुत प्रैक्टिकल सोच के साथ
मुखर महिला की कहानी , किन्तु एक प्रश्न सहज ही उभरता आता है कि क्यों नहीं महिला कभी भी ज़ोर दे कर कह पाती की मैं तुमसे ज्यादा या बराबर
ही कमाती हूँ क्यू न तुम जॉब छोड़ दो । हमेशा महिला ही समझौता करती है , त्याग पत्र भेजती है।
पुरुष प्रधान समाज में नारी की इस विवशता के शीघ्र निराकरण हेतु सामाजिक ढांचे में
बहुत सारे बड़े बदलाव बहुत शीघ्र आवश्यक हैं सुधार मांग रहे हैं ।
वहीं डॉ . लता अग्रवाल की सुंदर
प्रस्तुति है “आभासी दुनिया के आभास” , जहां एक ओर सब आज के मीडिया और
टेक्नोलॉजी को दोष देते नजर आते हैं वहीं यह कहानी बेहद सार्थक प्रतीत होती है जो
कि इसी सोशल मीडिया के ज़रिए एक गुम होती जाती ज़िंदगी को वापस ले आती है । जहां
बच्चों के व्यवहार से दुखित और विखंडित टूट चुकी एक ऐसी नारी की व्यथा है जो बरबस
ही अकेलापन ओढ़ ले रही थी एवं सब कुछ जान कर भी उस मोहजाल के भंग होने पर भी उस से
बाहर नहीं आना चाहती और टूट जाती है। उचित सलाह से वह स्वस्थ हो पुनः सक्रिय हो
जाती है । माँ के दिल का टूटना पति का सहयोग बहुत ही सिलसिलेवार तरीके से संजोया
है शब्दों में । मानसिक चिकित्सा का नज़ारा होता है इस में।
“पद्मश्री” , संतोष श्रीवास्तव
जी की वह रचना है जो कि, उन सपनों को पुनः संवारने की कोशिश करती दिखलाती है जो
मां, बच्चे की ख़ातिर अधूरे या कहें बीच
राह में ही तब छोड़ आती है जब वह अपनी मंज़िल के बहुत बहुत करीब होती है किंतु फिर
कुदरत के खेल के आगे असहाय हो जब बच्चे उस सपने को पूरा करने में असमर्थ हो जाते है
तब माँ ही फिर कमर कस कर अपने अधूरे सपने को एक नई दिशा देने के लिए आगे बढ़ती है ।
एक सफल नृत्यांगना की सफलता की यात्रा के मोड़ और फिर अन चाहा अंत दिखलाती नारी की लगन,
प्रेम, त्याग, एवं जुझारूपन की सुंदर मिसाल पेश करती हुई कहानी है। विस्तार और भी
हो सकता था किन्तु अच्छा संतुलन रखते हुए अपनी बात रखी है।
“और कितने युद्ध” , ज्योत्सना कपिल की बेहद अर्थपूर्ण रचना , जहां बच्चे की फिक्र में अपनी मोटी कमाई वाली नौकरी छोड़ देंने पर पति को आपत्ति होती है, और जो कुछ उसके अपने साथ बीता वह बच्चों को न
झेलना पड़े वे अपनी ज़िंदगी खुलकर जी सकें, यही सोच कर वह बच्चों के बच्चों को
शिक्षा एवं संस्कार देने में कोई कसर नहीं
छोड़ती किन्तु इतिहास फिर अपने को दोहरा जाता है , बेटा बहु
उसके त्याग और सेवा को जिस तरह से नगण्य समझते हुए उसको महत्वहीनता का एहसास करवा
देते हैं वह उसे पुनः अपने लिए जीने हेतु जागृत कर देता है । कहानी की सरलता प्रभावित करती है ,विषयवस्तु
के मर्म को बहुत भावनात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है जहां
शब्दों का चयन एवं भावप्रवणता प्रभावी है ।
प्रस्तुत
कथा संकलन की सभी रचनाएं अपनी शैली , कथानक , शब्द चयन एवं सरल वाक्यविन्यास से
प्रभावित करती हैं ।
शुभकामनाओं सहित,
अतुल्य
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