Badchalan By Shwet Kumar Sinha
बदचलन
समीक्षा क्रमांक :
97
उपन्यास :बदचलन
द्वारा : श्वेत कुमार सिन्हा
बोधरस प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
पृष्ट संख्या : 146
मूल्य : 249.00
नवोदित युवा साहित्यकार “श्वेत कुमार सिन्हा” विभिन्न सामाजिक बुराइयों व तथाकथित प्रगतिशील समाज में व्याप्त दोषों को अपने लेखन का केंद्र बिंदु बना कर अपने पहले उपन्यास “बदचलन “ के साथ उपस्थित हुए हैं , जो की मूलतः नारी विमर्श केंद्रित होते हुए समाज की अमूमन हर उस बुराई को सामने रखता है जो कहीं न कहीं समाज की जड़ों में पैठी हुई है व भीतर ही भीतर उसे खोखला कर रही है।
साहित्य समाज का दर्पण होता है
एवं सामाजिक विषयों को अपने लेखन का केंद्र बिंदु बनाने वाले लेखकों का समाज के
विकास एवं सुधारात्मक गतिविधियों में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
लेखक की समाज के प्रत्येक गुण अवगुण, भाव दुर्भाव, एवं प्रगति तथा विकास से जुड़े लगभग प्रत्येक मुद्दे पर गहरी नजर एवं पकड़ होती है साथ ही साहित्य की भी समाज में गहरी पैठ होने के कारण , लेखन के द्वारा समाज को सुधारने एवं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रमुखता से सबके सामने लाने की व्यापक संभावनाएं होती हैं जिसे श्वेत ने अपनी पुस्तक के द्वारा चरितार्थ किया है इसी बात को और भी पुख्ता तरीके से पेश करता हुआ ,अकबर इलहबादी का एक खूबसूरत शेर है कि :
खींचो न कमानों
को न तलवार निकालो ।
जब तोप
मुकाबिल हो तो अखबार निकलो। ।
इस हेतु दरकार मात्र इतनी ही होती है कि , लेखक का
दृष्टिकोण समाज की समस्याओं के प्रति संवेदनशील और जागरूक होना चाहिए। उन्हें समाज
के विभिन्न पहलुओं को गहराई से समझने की क्षमता होनी चाहिए ताकि उनके लेखन से
जागरूकता और परिवर्तन उत्पन्न हो सके। यही कारण है की विभिन्न ज्वलंत विषयों को केंद्र बिंदु बना कर वांक्षित परिणामों को
प्राप्त करने की दिशा में विभिन्न जागरूक कला कर्मियों , लेखकों एवं कवि बंधुओं
द्वारा अपनी अपनी विधा में सार्थक पहल एवं प्रयास निरंतर किए जाते रहे हैं और
श्वेत जी भी उन कथाकारों की अग्रिम पंक्ति में अपनी उपस्थति दर्ज करवा चुके हैं।
बात यदि लेखन की करें तो साहित्य जगत में भी विभिन्न साहित्यकारों द्वारा समय समय पर समाज
में व्याप्त जातिवाद, लिंग भेद, आर्थिक असमानता, वर्गवाद
एवं वर्णवाद जैसे सामाजिक अन्याय से जुड़े
हुए मुद्दों पर सशक्त लेखन कर्म प्रस्तुत किया गया है तो वहीं सामाजिक सुधार से
जुड़े हुए विषय , शिक्षा , एवं सामान्य जागरूकता से जुड़े हुए विषयों पर लेखन भी लोगों को
जागरूक कर उन्हें बेहतर जीवन देने में सक्रिय योगदान प्रदान कर रहा है ।
इन विषयों पर रचना कर्म करने
वाले साहित्यकारों द्वारा सामाजिक संरचना में जिन
कारणों से बदलाव हो रहे हैं, और उन परिवर्तनों का समाज पर कैसा
प्रभाव पड़ रहा है इन विषयों पर भी लिखा जा रहा है । वर्तमान में चंद युवा
साहित्यकारों ने ज्वलंत मुद्दों यथा पर्यावरण संरक्षण, दलित
विमर्श , नारी शिक्षा , समलैंगिक समुदाय के अधिकार, लिव इन रिलेशनशिप , सिंगल पेरेंटिंग आदि पर भी
श्रेष्ठ कार्य किया है एवं अपने लेखन के
द्वारा समाज में सकारात्मक परिवर्तन को प्रोत्साहित किया है ।
पुस्तक “बदचलन” के द्वारा श्वेत जी ने भी एक ऐसे ही गौढ़ मुद्दे को सामने रखा है जिस के द्वारा उन्होंने एक
ऐसी महिला की जीवन गाथा प्रस्तुत करी है
जो शराब के नशे में चूर एक व्यक्ति की वासना का शिकार होती है एवं दुर्योग तथा सामाजिक
व्यवस्थाओं एवं नजरिए के चलते तमाम उम्र अपने माथे पर बदचलन का दाग लिए घूमती है। यद्यपि
उस के साथ जो घटित हुआ उसे तो बलात्कार की
श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता वह एक प्रकार से पारिवारिक व्याभिचार एवं कुत्सित
विचारधारा वाले व्यक्ति के गंदे मंसूबों एवं विचारों का परिणाम था किन्तु अंततः तो
सजा नारी के ही पक्ष में गई एवं वही प्रताड़ित हुई ।
इस कथानक की स्थितियाँ थोड़ी सी भिन्न होते हुए भी तब जबकि सहमति से संबंध स्थापित नहीं किए गए किन्तु फिर भी उस महिला को ही दोषी माना जाना, तथा वास्तविक दोषी के गुनाह को अनदेखा कर देना, समाज के दोहरे माप दंड को दर्शाता है एवं पीड़िता के प्रति "बदचलन" शब्द का प्रयोग जहां एक ओर उनकी दुर्दशा को समझने में कठिनाइयों को उत्पन्न करता है वहीं सामाजिक तौर पर उन्हें अत्यधिक दुर्दशा की ओर धकेलने वाला कदम होता है। उस महिला की सामाजिक एवं मानसिक स्थिति को श्वेत जी बखूबी दर्शाने में सफल रहे हैं।
कथानक का
मूल नारी विमर्श केंद्रित होते हुए विस्तार से ऐसी स्त्री के जीवन के विभिन्न
पहलुओं को दर्शाता है जिस पर स्वयं के किसी दोष अथवा कृत्य के बगैर ही लांछन लगा
दिया जाता है और वह उस का बोझ सारी उम्र ढोती
रहती है तथा उसके चलते जहां अपनों की ही नजर में गिर जाती है वहीं तमाम तरह
की मुश्किलात से दो चार होती है, किन्तु निरंतर अपनों के द्वारा व समाज द्वारा
प्रताड़ित होने के बावजूद वह समाज के लिए ही संघर्ष करती रहती है अपने वज़ूद को
समाप्त नहीं होने देती, हर कष्ट उठाती है, अपने ही रिश्तेदारों के विरुद्ध खड़ी
होती है किन्तु समझौता कदापि नहीं करती और अंत में अपना सम्मान प्राप्त कर ही लेती
है , भले ही उसके लिए कुर्बान गई हो ।
बाज़ दफा समाज द्वारा बदचलन कहे
जाने वाले व्यक्ति वास्तव में नेक भी हो सकते हैं। अव्वल तो इस तरह के शब्दों के
प्रयोग से बचना ही चाहिए एवं यदि कहीं प्रयुक्त हो भी तो , बदचलन शब्द का प्रयोग करते
समय समाज को सजग रहना चाहिए और उस घटना के परिप्रेक्ष्य एवं विभिन्न संबंधित
विषयों को समझने की कोशिश करनी चाहिए तथा किसी के भी प्रति दिए गए ऐसे निर्णय से
पूर्व , उनकी पूरी कहानी उस परिपेक्ष्य में सोचनी चाहिए।
इस मुख्य विषय के साथ साथ श्वेत
कुमार जी द्वारा , विभिन्न गौढ़ किन्तु महत्वपूर्ण विषयों , यथा मानसिक विकलांग
व्यक्ति के साथ उसके ही अपनों के द्वारा स्वार्थवश दुर्व्यवहार, गरीबी के चलते
बेमेल व्याह , युवाओं में व्याप्त जुआ, शराब जैसी बुराइयाँ , बच्चे के जन्म पर
किसी की मृत्यु हो जाने पर उस बच्चे को मनहूस करार दिया जाना , आदि अनेकों सामाजिक
कुरीतियों को भी अत्यंत रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है ।
वहीं मनहूस"
या "अपशकुनी" जैसे शब्दों का प्रयोग भी
किसी के साथ किया जाना जहां एक ओर उनकी भावनाओं को आहत कर सकते हैं वहीं
ऐसे सम्बोधन अपने आप में अत्यंत नकारात्मक होते हैं। देखा जाए तो ऐसे शब्दों का
प्रयोग करके किसी व्यक्ति को उस घटना हेतु जिम्मेवार ठहराया जा रहा है जिस घटना हेतु न तो वे जिम्मेवार हैं
और न ही ऐसे सम्बोधन के हकदार किन्तु इन शब्दों के प्रयोग से उतत्पन्न दुषपरिणाम
अवश्य ही उन्हें ही झेलने होते हैं ।
प्रस्तुत उपन्यास में बच्ची के
जन्म के पश्चात उसके वृद्ध दादा दादी का निधन हो जाना एक सामान्य घटना है जिसके
लिए वह बच्ची तो कतई उत्तरदायी नहीं है , किन्तु परिजनों द्वारा उसे मनहूस करार
दिया जाता है एवं मनहूस का यह तमगा उसे
जीवन भर ढोना पड़ता है । इस विषय में विचारणीय है कि समाज में स्त्री का महत्व होना
चाहिए और उन्हें समान अधिकार के साथ साथ उचित आदर सम्मान भी मिलना चाहिए। वहीं बच्चों को किसी भी कारण से मनहूस
करार दिया जाना उनकी प्रगति ,स्वतंत्रता और समृद्धि को प्रतिबंधित कर सकता है और
उनके आत्म सम्मान को कमजोर करता है।
एक और बुराई जिस पर श्वेत जी ने अपनी पुस्तक में
ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है वह है शराब का नशा । कथानक में शराब के नशे में किसी और स्त्री को
पत्नी समझ उस से शारीरिक संबंध बना लेना समाज द्वारा
स्थापित न्यूनतम जीवन मूल्यों, आदर्शों और परस्पर विश्वास का उल्लंघन है जो कि सिर्फ
और सिर्फ संबंधों में विश्वासघात ही है। ऐसा कृत्य क्यूंकि शराब के नशे में किया गया , अतः नशे की
आढ़ लेकर किसी भी प्रकार से व्यक्ति के दोष को कमतर नहीं किया जा सकता , न ही उसकी
भूल को नशे में किया गया कृत्य जान कर उसे
किसी भी प्रकार के रहम अथवा दया का पात्र बनाता है। अपितु मेरे विचार से तो नशे
में किया गया ऐसा घृणित कृत्य उसके अपराध
को द्विगुणित कर देता है।
सभी पक्षों की भावनाओं का सम्मान करते हुए, सामजिक और परिवारिक मानदंडों एवं समाजिक मूल्यों का पालन करना आवश्यक होता
है। नशे में हुई भूल का प्रायश्चित समाज और कानून द्वारा निर्धारित किया जाता है।
प्रायश्चित की प्रक्रिया और मात्रा
स्थानीय कानूनों और प्रावधानों पर निर्भर कर सकती है। यह दोषी द्वारा किए गए कृत्य, उसके
परिणाम और उसके पिछले इतिहास पर भी निर्भर करता है। प्रस्तुत पुस्तक में प्रायश्चित
दर्शाने में भी कथानक सफल तो रहा किन्तु मालूम होता है की विलंब अत्यधिक रहा ।
नशे के प्रायश्चित में विभिन्न प्रक्रियाएँ शामिल हो
सकती हैं जैसे कि समाज सेवा इत्यादि साथ ही उन्हें चिकित्सा सहायता सुविधाएं मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा आदि भी प्रदान की जाना चाहिए। शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य सुधारक
उपचारों से इतर प्रायश्चित का उद्देश्य व्यक्ति दिल से उसकी गलतियों का एहसास होना
अथवा करवाया जाना , उस को सही मार्ग पर लाना और उन्हें समाज में पुनर्मिलन करना
होता है। जैसा की प्रस्तुत पुस्तक के कथानक में श्वेत कुमार जी ने भी दर्शाया है ।
नशाखोरी सदा
से ही समाज के लिए
नुकसानकारी होती है, क्योंकि यह व्यक्ति की सेहत और परिवार को प्रभावित करती है। यह जीवन के
विभिन्न क्षेत्रों में समस्याएँ पैदा कर सकती है, जैसे कि प्रस्तुत
पुस्तक में वर्णित किया गया है।
प्रस्तुत कथानक में गाँव में
हैजा का भी चित्रण किया गया है जिसका मुख्य कारण साफ-सफाई न रखना ही है। साफ-सफाई की अवश्यकता हमारे स्वास्थ्य और
पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है। हैजा एवं उसी के समान गंभीर बीमारियों का प्रसार
होने की संभावना बढ़ जाती है जब साफ़-सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता है। उस विषय को लेकर
भी एक जन जागृति बनाने का प्रयास किया गया है ।
मानसिक काजोरी
अथवा अपहिजता को एक रोग अथवा कुदरती प्रकोप भी मानें तो भी किसी भी प्रकार से मानसिक
विकलांगों के शोषण को उचित नहीं ठहराया जा सकता , मानसिक विकलांगों को समाज में समान अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए।
उन्हें समाज में शामिल होने के लिए आवश्यक सुविधाएँ और मौके प्रदान किए जाने चाहिए
ताकि वे भी समृद्ध और खुशहाल जीवन जी सकें तथा समाज की मुख्य धारा से जुड़े रहें ।
श्वेत जी ने अपनी इस कृति में, व्यक्ति की मानसिक
विकलांगता का फायदा उठा कर तथा परिजनों को धोखे में रख कर, कुटिलता से पैतृक
संपत्ति हड़प लेने का चित्रण किया है यहाँ कुटिलता से तात्पर्य परिजनों को इस भ्रम
में रखना, कि मानसिक रूप से कमजोर का पालन पोषण उनके द्वारा उचित तरीके से किया
जाएगा, किन्तु बाद में संपत्ति हड़प कर उसे
दर दर की ठोकरें खाने व दाने दाने को
मोहताज हो जाने को विवश कर दिया जाता है । यह छल, या अनैतिक
तरीकों से अपने परिवार की संपत्ति को अपने कब्जे में करने का प्रयास दर्शाता है कि
यह मात्र अनैतिकता ही है जो समाज में कतई
स्वीकार्य नहीं है।
इस प्रकार के हथकंडों का संबंध उस व्यक्ति के मानसिक
स्थिति और विचारधारा से होता है। जब कोई व्यक्ति पैतृक संपत्ति हड़पते हैं, तो वे अक्सर अपनी विफलता या अयोग्यता को छिपाने की कोशिश करते हैं और
उन्हें अपनी सामर्थ्य का आभास कराने के लिए यह रास्ता दिखलाई देता है । फलस्वरूप उनका
अहंकार बढ़ता है और वे खुद को समाज से परिजनों से ऊपर मानने लगते हैं ।
इस प्रकार के व्यक्तिगत और सामाजिक विश्लेषण से यह
स्पष्ट होता है कि कुटिलता से पैतृक संपत्ति हड़पना न केवल आर्थिक परंपरा को अनुचित
तरीके से वर्णित करता है बल्कि व्यक्ति की मानसिकता और संबंधों पर भी दुर्भावनाओं
का प्रभाव डाल सकता है।
वहीं कथानक का एक और महत्वपूर्ण भाग, जहां हवेली के सम्पन्न किन्तु कृपण एवं लोभी जामाताओं
द्वारा लाचार महिला की इज्जत पर डोरे
डाले जाते हैं एवं उन नशे में धुत तीनों जामाताओं द्वारा उस मेहनतकश
महिला संग अपनी मनमानी न कर पाने पर , अपने गलत मन्तव्य में असफल रहने पर , मौका
मिलते ही उस पर कुलटा होने का आरोप लगाना एक
ओर जहां नैतिकता की दृष्टि से बेहद गलत है वहीं यह उस मजबूर महिला के साथ अन्याय एवं प्रताड़ना
के साथ निष्पक्ष न रहते हुए मिथ्या धारणा बनाना एवं प्रसारित करना भी है। यह उस
महिला को वस्तु रूप मान कर उसका स्वार्थित उपयोग
का कुत्सित प्रयास ही है जिससे उसकी योग्यता को दबाया जा सके और उसे समाज के
समक्ष समर्पण हेतु विवश किया जा सके। जबकि नैतिकता का तकाजा है की प्रथम तो ऐसे
आरोप प्रत्यारोप से बचा जाए एवं किसी भी
ऐसे विवाद में पड़ने के पूर्व सत्यता और न्याय की दिशा में विचारण अवश्य किया जावे।
इस तरह का आरोप प्रत्यारोप परस्पर विश्वास को कमजोर अथवा समाप्त करता है।
वहीं कथानक के माध्यम से उठाया गया एक और विषय है ,
कच्ची उम्र की लड़कियों का शोहदों के चक्कर में आ जाना ,एवं पारिवारिक मज़बूरीयों का
ऐसे तत्वों द्वारा गलत फायदा उठाने हेतु हर संभव प्रयास किया जाना । युवा वर्ग
अक्सर उम्र के जोश में बहक जाते हैं क्योंकि उम्र के उस दौर में उनका उत्साह और
जिज्ञासा अधिक होती है, और वे नये अनुभवों तथा शारीरिक परिवर्तनों से वशीभूत हो विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होते हैं।
इस में सामाजिक प्रभाव, मीडिया, दोस्तों
का प्रभाव आधुनिकता की हवा आदि भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं । यह भी संभव
है कि उन्हें अपने स्वार्थों, सपनों, और
समाज की उम्मीदों के बीच में संतुष्टि नहीं मिलती, जिससे वे पारिवारिक
नियंत्रण एवं सलाह को अनदेखा करते हुए उस
ओर झुकते हैं जो उनके लिए अत्यंत हानिकारक होता है।
श्वेत जी ने सुंदर भाषा एवं सहज वाक्य विन्यास के माध्यम से अमूमन समाज की प्रत्येक बुराई को अपने कथानक
में खूबसूरती से सँजोने का प्रयास किया है , विषय से भटके भी नहीं किन्तु विषयों के आधिक्य से पुस्तक का तकरीबन आधा हिस्सा तो कथानक की मूल
विषय हेतु भूमिका बनाने में ही जाया हो
गया साथ ही पात्र संख्या भी बढ़ती चली गई । घटना क्रम को मूल विषय पर और अधिक
केंद्रित कर दिया जाता तो पुस्तक और अधिक रोचक होती।
तमाम सामाजिक बुराइयों को , स्त्री विमर्श को
केंद्रित रखते हुए एक ही कथानक में सँजो लेने का सुंदर पठनीय प्रयास है जो की
अवश्य ही सराहा जाना चाहिए, एवं प्रस्तुत पुस्तक भविष्य में श्वेत कुमार जी से
बेहतर पठनीय कृतियों की अपेक्षा निश्चय ही बढ़ा देती है ।
शुभकामनाओं
सहित,
अतुल्य
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