Heti By Sinwali
हेति
सुकन्या : अकथ कथा
द्वारा
: सिनीवाली
रुद्रादित्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
प्रथम संस्करण: 2023
मूल्य: 300.00
पुस्तक समीक्षा क्रमांक 86
“हेति” सुकन्या
: अकथ कथा, पौराणिक पृष्टभूमि में , स्त्री विमर्श आधारित उपन्यास है जो कि सिनीवाली जी का प्रथम प्रकाशित उपन्यास भी है। इससे पूर्व सिनीवाली जी के कहानी-संग्रह
"गुलाबी नदी की मछलियाँ" जो कि गांव की पृष्ठ भूमि पर केंद्रित एक कथा
संग्रह है एवं “हंस अकेला रोया” , को भी सुधि पाठकों का उत्तम प्रतिसाद प्राप्त हुआ
था। सिनीवाली जी दोनों कहानी -संग्रह एवं अन्य व्यापक साहित्यिक
गतिविधियों के चलते बखूबी जानी जाती हैं।
प्रस्तुत उपन्यास में स्त्री विमर्श के विभिन्न
आयामों को लेखिका ने अत्यंत गंभीर विचारण
के पश्चात प्रस्तुत किया है। पौराणिकता
संबंधित विषय, एवं विषय पर केंद्रित गहन शोध के दृष्टिगत दुरूह विषय की श्रेणी में
आते हैं एवं इस विषय को चुनकर के अपने
प्रथम उपन्यास की विषयवस्तु बनाना निश्चय ही उनकी अपने लेखन के प्रति निष्ठा एवं
आत्मविश्वास को दर्शाता है। सम्पूर्ण
कथानक पर किया गया गहन , केंद्रित तथा विस्तृत तार्किक शोध , एवं प्रस्तुतीकरण
इतना सधा हुआ है की कहीं भी यह प्रथम प्रयास होने का आभास नहीं देता।
आम लीक से हटकर पौराणिक कथा के मार्फ़त साहित्य जगत में उपन्यास की विधा में उनकी सशक्त दस्तक निश्चिय ही प्रबुद्ध पाठकों को चौंकानें वाली साबित हुयी है l
विगत समय में पुस्तक बहुतेरे
सुधि पाठकों द्वारा पढ़ी गई एवं इस पर बहुत कुछ लिखा भी गया किन्तु अचंभित हूँ यह
देख कर की अधिकांश मनीषियों की समीक्षा
मात्र पुस्तक की भाषाई विशिष्ठता पर जाकर
केंद्रित हुई व वहीं समाप्त भी हो गई। मेरे विचार से पुस्तक पर सिर्फ भाषा के विषय
में चंद शब्दों में विचार व्यक्त कर देना विदुषी लेखिका के गंभीर प्रयासों का
अनादर है। सत्य है कि पुस्तक की वैदिक
शब्दावली बरबस ही पौराणिक काल में खींच कर
ले जाती
है तथा
भाषाई विशिष्ठता कथानक को वास्तविकता से जोड़ने में अहम भूमिका अदा करती है, भाषा
का प्रवाह भी सहज एवं सरल है जो कि पाठक को भावों के प्रवाह में अत्यंत सरलता
से ले जाता है, किन्तु इस सबके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है पुस्तक में जिस पर चर्चा
होनी चाहिए।
सर्व प्रथम बात करें शीर्षक की तो ‘हेति’ का अर्थ है सूर्यपुत्री एवं इस का एक पर्याय सूर्य किरण भी है, तथा दोनों ही अर्थों में वह, जिसमें सूर्य समान तेज का अंश विद्यमान हो , इस नाम से संबोधित किया जा सकता है जिसे कई बार ज्वाला अथवा अग्नि के समकक्ष भी मान लिया जाता है । अत्यंत स्वाभाविक है कि स्वयम लेखिका ने संभवतः अपनी नायिका को उसके आत्म बल, तेज , स्वाभिमान, एवं उसके सतत संघर्ष शील रहने जैसे श्रेष्ठ गुणों के चलते ही ‘हेति’ नाम दिया जहाँ वे नायिका को एक सशक्त विदुषी के रूप में प्रस्तुत करती हैं । वे सुकन्या के अंतर्मन की पीड़ा को दर्शाते हुए, उसके गुणों पर प्रकाश डाल कर आगे बढ़ती हैं और समकालीन स्त्री के संघर्ष और विजय की अकथ कहानी को तत्कालीन भाषा एवं परिवेश में अपनी लेखनी से प्रस्तुत करती हैं।
विदुषी लेखिका ने जहां अपनी नायिका के दर्द को महसूस कर उसे शब्द दिए हैं वहीं उसके प्रेम को सम्मुख रखना भी लेखनी से चूका नहीं है। उनकी लेखनी के माध्यम से सुकन्या के रूप में में हमें एक ऐसी युवती देखने को मिलती है जो सुंदर है, विवेक से परिपूर्ण है, स्वाभिमानी है व अपना भला बुरा समझ सकती है। इस तरह पुस्तक की नायिका के रूप में पाठकों का परिचय एक स्वविवेकी ,मुखर एवं प्रगतिशील तेजस्वी युवती से करवाती हैं किन्तु साथ ही वे नायिका की मानसिक पीढ़ा को अनुभव करती हैं और उसे मर्यादाओं व जीवन मूल्यों का पालन करने वाली संस्कारित युवती के रूप में भी प्रस्तुत करती हैं।
"हेति" का कथानक वैदिक काल से
सम्बद्ध एक पौराणिक गाथा पर आधारित है (जिसका संक्षिप्त परिचय आगे रखूँगा) , किन्तु
वर्तमान पितृ सत्तात्मक पुरुष प्रधान समाज
के परिप्रेक्ष्य में भी स्त्रियों की पारिवारिक व सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन कुछ
विशेष उल्लेखनीय नहीं हैं। स्त्रियों की
सामाजिक एवं पारिवारिक स्थितियों का जैसा चित्रण
लेखिका ने “हेति ” में किया गया है कमोबेश आज भी हालत वैसे ही अथवा उसके बहुत करीब
ही प्रतीत होते हैं।
बहुधा स्त्री पात्र मूल में होते हुए भी स्त्री
विमर्श संग उचित न्याय न होना विभिन्न कथानकों में पाया गया हैl आज सामाजिक
स्थितियां चाहे जो हों वास्तविकता अत्यंत भिन्न है व नारी की स्थितियों में
परिवर्तन लक्षित नहीं होते अथवा हस्बेबामूल ही है तथा उसकी बेहतर स्थिति की तस्वीर
मात्र प्रचार एवं दिखावे हेतु ही हैं। अमूमन लेखिका के मानस में ऐसे ही विचारों के
उद्वेलन का परिणाम प्रस्तुत उपन्यास “हेती”
है जो नारी की विभिन्न मनोदशाओं व देश
काल एवं अवस्था के परिप्रेक्ष्य में रचित है।
प्रस्तुत उपन्यास राजा शर्याति की पुत्री, ऋषि
च्यवन की पत्नी सुकन्या “हेति ” के विषय
में है। सम्पूर्ण कथानक उसी के इर्द गिर्द घूमता हैl सुकन्या
ही कथानक के मूल में है यह उसके साहस आत्मसम्मान और गौरव की कथा है। कथानक नायिका प्रधान है एवं च्यवन ऋषि का पात्र,
नायिका की छवि के समक्ष बौना ही प्रतीत हुआ l
जैसा
की पहले ही लिखा कि यह एक पौराणिक उपन्यास है एवं संवेदनशील लेखिका ने बहुत ही
सुंदर शब्दों में पुनः यह स्थापित कर दिया है की स्त्री को अपनी अस्मिता की लड़ाई स्वयम ही लड़ना होती है। उपन्यास की भाषा विशिष्ठ है क्लिष्टता से
परिपूर्ण है किन्तु कथावस्तु की मांग उसे तर्कसंगत बनाती
है। पात्रों के द्वारा उस काल की भाषा के प्रयोग ने उस कालखंड को पुनः सम्मुख
ला खड़ा किया है एवं निःसंदेह ही वैदिक
शब्दावली में सृजित ‘हेति’ पाठक
को पौराणिक काल से रूबरू करवाती है एवं वह कथानक को बेहद करीब से अनुभव करता है। उस
काल में प्रयुक्त होने वाली विभिन्न वस्तुओं के
तत्कालीन नामों के प्रयोग से भी कथानक की मौलिकता झलकती है तथा कथानक से
सम्बद्ध करने के साथ साथ कथानक की खूबसूरती को द्विगुणित कर देती है, जो की मात्र
गहन अनुसन्धान से ही संभव है जिसके पीछे लेखिका द्वारा की गई कठिन तपस्या व
प्रयासों हेतु वे अवश्य ही बधाई की हकदार हैं।
प्रस्तुत कथानक के पाठन के दौरान प्रस्तुतीकरण की रोचक शैली एवं वास्तविकता के करीब से गुजरते हुए दृश्य कथानक
की गहराइयों में ले जाते है ।
प्रारम्भ
में ही जिस तरह से एक तरुणी जो वय की उस अवस्था
से गुज़र रही है जब मन एवं देह एक अवर्णनीय प्यास में व्याकुल होते
हैं उस अवस्था की मनोदशा का चित्रण या कहें की सद्य युवा अवस्था में अपने अनजाने
प्रियतम से मिलन की
अभिलाषा को अत्यंत मनोरम एवं शालीनता से प्रदर्शित
किया है, वे कहती हैं कि "पुष्प, प्रेम
तो भ्रमर से ही पाता है" यह पंक्ति मात्र , वह सब कुछ
कह जाती है जो बाज़ दफा कई सफे रंगने के बाद भी नहीं व्यक्त होते । युवती के
मनोभावों को, उस अव्यक्त प्रेम पिपासा को , इस स्थल पर यूँ व्यक्त किया जाना तथा ऋषि मुख से स्वयं
को ऋषि होने के पूर्व एक साधारण मानव जिसके हृदय में
भी प्रेम और आकर्षण की भावनाएं है जतलाना , कथानक
में आगे आने वाले मोड़ों का आमुख है ।
महर्षि भृगु की संतान ऋषि च्यवन , यूं तो ऋषि थे किन्तु काफी क्रोधी स्वभाव हेतु विख्यात भी।
शिक्षा पूर्ण कर गुरुकुल से वापसी के दृश्य हों अथवा विवाह पश्चात पत्नी के संग
बिताए अंतरंग क्षणों की प्रस्तुति ,उनका काम
व्यग्र, रसिक, व्यक्ति होना दर्शाता है । महर्षि च्यवन का कामसिक्त मन व उनके
विवाह पश्चात अपनी पत्नी संग बिताए सुंदर
पलों का उद्दीपक विवरण है वहीं पत्नी की अकाल मृत्यु पर उनका दुखित हृदय से क्रंदन
भी बखूबी वर्णित किया गया है।
नगर में उत्सव का वर्णन ,राजकुमारी के सौन्दर्य का वर्णन , उत्सव हेतु
राजकुमारी के श्रंगार के दृश्य तथा राजकुमारी की राजकुमार कुमार
प्रद्योतन से मुलाकात जिन्हें वे पहली
ही मुलाकात में अपना दिल दे बैठी, उस
सम्पूर्ण परिदृश्य को भी बेहद मर्यादित तरीके से , सौम्यता , शालीनता एवं खूबसूरती
से प्रस्तुत किया है तथा पाठक को घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी हो जाने का एहसास करवा
दिया है।
कथानक ,
मनु के पुत्र राजा
शर्याति की एक मात्र पुत्री एवं च्यवन ऋषि की पत्नी
सुकन्या के स्वाभिमान, प्रेम, करुणाद्र
हृदय, वनस्पतियों
से सहज लगाव और उनका औषधि के रूप में प्रयोग की कथा है ।
कथा के अनुसार च्यवन ऋषि अपनी पत्नी आरुचि की
अकाल मृत्यु पश्चात विरक्त भाव में सरोवर
के निकट तपस्या में लीन थे एवं उन की दीर्घकालीन तपस्या के कारण उनके शरीर को दीमक
की वामियों ने ढक लिया था व मात्र उनके नेत्र के स्थान पर दो सुराख थे ।
एक समय राजा शर्याति पुत्री सुकन्या पुत्र अनार्त
और रानी तथा सैनिकों इत्यादि के संग उस स्थान पर भ्रमण हेतु गए ,और चंचलता एवं सहज
जिज्ञासावश राजकुमारी सुकन्या ने वहां पर एक मिट्टी का लताओं से घिरा हुआ ढेर देखा
जिसमें से दो छिद्र थे, जिनमें से रोशनी आ रही थी । यह देखकर राजकुमारी को कौतूहल हुआ
वहीं से कुछ तृण उठाकर दीमकों के घर उस मिट्टी के ढेर को हटाना आरंभ कर दिया एवं
भूलवश वह तिनके से ऋषि की एक आँख को घायल कर बैठी पश्चात वहाँ से चली गई जिसे ऋषि
ने उन्हें अहंकारी , दंभी व राजकुमारी का
अभिमान मान , साथ ही अपनी इस पीढ़ा को ही सुकन्या को प्राप्त करने का अस्त्र बनाते
हुए श्राप दे दिया , ऋषि के द्वारा श्रापित हुई सैन्य शक्ति के हित में निर्णय करते हुए एवं राज धर्म को पितृ धर्म पर
वरीयता देते हुए राजा ने ऋषि च्यवन की
सुकन्या से विवाह की कतई अनुचित मांग को
स्वीकार कर लिया।
प्रतीत होता है मानो सुकन्या के रूप के वशीभूत
हो ऋषि च्यवन द्वारा छल वश ऐसी स्थितियाँ निर्मित कर दी गईं की राज्य प्रमुख
महाराज शर्याति को अपनी एक मात्र अनन्य सुंदरी पुत्री सुकन्या का विवाह उनके साथ
करना पड़ा । वृद्ध होते हुए भी सुकन्या से विवाह को उन्होनें स्वयम को कष्ट पहुचने
के प्रतिशोध के रूप में देखा एवं यह भावना उन्हें संतुष्ट करती रही और वे एक
स्वाभिमाननी स्त्री के समक्ष अपनी जर्जर काया
लेकर नवीन जीवन की कल्पना करते रहे। हालांकि उन्हें इस बात का भान था की
विवाह कर वे मात्र उस राजहठी ,माननी, राजपुत्री सुकन्या की काया ही अपने संग ला सकने में सफल हुए हैं उसका मन
नहीं जीत पाए, वह धर्मपत्नी तो अवश्य बनी किन्तु भार्या कदापि नहीं।
उन्हें यह भी भलीभाँति ज्ञात था की प्रकट रूप से उन्होनें सुकन्या द्वारा दिए गए कष्ट के दंड स्वरूप उस से विवाह किया था किन्तु वास्तविकता यह थी की कामवासना से वशीभूत हो सुकन्या पर उनकी दृष्टि गई थी एवं अब उन्हें समझ आ रहा था की भय के अस्त्र से विवाह तो किया जा सकता है किन्तु प्रेम नहीं प्राप्त किया जा सकता। सुकन्या की उद्विग्न, क्रोधित, चिंतित, हठी , किन्तु माननी एवं आत्मनिर्भर छवि उन्हें यह बात सदा ही स्मरण कराती रही। हालांकि वे सुकन्या के आत्मसम्मान के प्रति सदा सचेत रहने को उसका सबसे बड़ा दुर्गुण मानते थे । उनके अनुसार जिस स्त्री का आत्मसम्मान जागृत हो उस से सावधानी पूर्वक व्यवहार किया जाना चाहिए।
कथा के प्रत्येक भाग को “हेति” में उचित विस्तार दिया गया है । पुस्तक के पूर्वार्ध में सुकन्या के सौन्दर्य , सखियों संग उनकी राजमहल की दिन ब दिन की विस्तृत गतिविधियां उसके कुमार प्रद्योतन के प्रति आकर्षण एवं उत्सव में दर्शन पश्चात अतिथी गृह में मुलाकात का अत्यंत सुंदर व मनभावन वर्णन किया है ।
विवाह के ठीक पहले के दृश्य अत्यंत मार्मिक बन
पड़े हैं । राजा शर्याति द्वारा पुत्री की विदाई में दिए गए आभूषण इत्यादि को
सुकन्या द्वारा लौटा देना उसके स्वाभिमान को बखूबी चित्रित करता है।
वहीं विवाहोपरांत सुकन्या का वन में ऋषि च्यवन के आश्रम में बीतता कठिन समय जिसे वे अपने चिकित्सकीय गुणों के उपयोग से परोपकार में लगा देती हैं परंतु आगे चल कर उनकी यह विशिष्टता भी कहीं न कहीं च्यवन ऋषि के भीतर के पुरुष को बर्दाश्त नहीं होती व शंकाओं को जन्म देती है । उनके समक्ष उनकी पत्नी का स्वतंत्र अस्तित्व होना वे बर्दाश्त नहीं कर पाते । वे कहते हैं की मैं जिसे प्रेम करूँ , उसे दया , सहानुभूति तो प्रदान कर सकता हूँ परंतु समकक्ष नहीं मान सकता। स्त्री की यह बात पुरुष की उस पर एकक्षत्र अधिकार की भावना के विरुद्ध जो है।
उनकी कुमार प्रद्योतन से वन में मुलाकात व सुकन्या द्वारा उनका प्रेम निवेदन ठुकराया जाना सुकन्या के संस्कारित सुदृढ़ चरित्र का परिचय देता है । वहीं ऋषि च्यवन अनुभव करते हैं की मानो उनकी शिराओं में रक्त नहीं वासना और प्रतिशोध के कीट रेंग रहे हों। ऋषि द्वारा विभिन्न दलीलें देकर सुकन्या से प्रणय निवेदन करना तथा सुकन्या द्वारा उसे ठुकराया जाना सुकन्या के स्वाभिमान को व च्यवन ऋषि के काम पिपासु होने को बखूबी दर्शाता है।
च्यवन ऋषि ज्यों ज्यों सुकन्या में अंतर्निहित
हो रहे थे सुकन्या अपना स्वतंत्र अस्तित्व निर्मित करती जा रही थी। इसी
संदर्भ में सुकन्या को ऋषि द्वारा कहा जाना की “ क्षुद्र रूप यौवन के लिए मैं अपना
तपोबल क्यू व्यर्थ करूँ, वहीं पश्चात में उनके द्वारा पौरुष वर्धन हेतु विभिन्न
औषधीय जड़ी-बूटियों का मँगवाया जाना परस्पर विरोधी होकर ऋषि के स्तर पर हास्यास्पद
बनाते हैं। वहीं सुकन्या का कथन की “वृद्ध ऋषि यह जल पुनः आपके कमंडल में नहीं लौट
सकता” द्विअर्थी होकर सटीक कटाक्ष है।
कथानक में सुकन्या की देवताओं के वैद्य से मुलाकात तथा ऋषि के द्वारा
पुनः तरुण वय व रूप प्राप्त कर लेने के दृश्य सुंदरता से वर्णित किए गए हैं। कथानक
रोमांचक है एवं भाषाई सौन्दर्य की क्लिष्टता के बावजूद समापन से पूर्व पुस्तक रख
पाना संभव नहीं हो पाता ।
पौराणिक कालीन ,बेहद शोधपरक एवं समकालीन भाषाई
विशिष्ठता को सँजोये हुए प्रस्तुति हेतु विदुषी लेखिका को साधुवाद एवं भविष्य में
भी पौराणिक कालीन विषय आधारित कृति की अपेक्षा के साथ अनंत शुभकामनाएं।
सविनय
अतुल्य
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