Devendra Nahi Devan By Devendra Kumar

 

देवेन्द्र नहीं देवन ( आत्मकथ्य )

देवेन्द्र कुमार

प्रखर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित

पुस्तक समीक्षा क्रमांक : 89

मूल्य : 500.00

देवेंद्र जी को एक लेखक, अनुवादक, अथवा पत्रकार कहने की अपेक्षा उन्हें बाल साहित्य सृजन का श्रेष्ठ गुरुकुल कहना अधिक उचित एवं उपयुक्त प्रतीत होता है। एक ऐसी शख्सियत जिसने  जो भी सीखा अपने तजुर्बों से, जीवन में पारिवारिक हो आर्थिक अथवा सामाजिक , प्रत्येक स्तर पर अमूमन हर उस मुश्किल को झेला जिससे हर कोई किनारा करता है व बचना चाहता है,  न तो कोई आधारभूत शिक्षण, न साधन, और न ही कोई सहयोग अथवा गॉड फ़ादर जैसी सीढ़ी, जो उन्हें सफलता के शिखर पर ले जाती ।

अत्यंत संघर्षपूर्ण किन्तु प्रेरणास्पद जीवन रहा है जिससे जहाँ एक और बहुत कुछ सीखने को मिलता है वहीं  उन्होंने बहुत  से ऐसे विषय भी बगैर  स्पष्ट कहे ही मात्र संकेतों द्वारा  सामने रख दिए हैं जिन पर आज भी  हमारे सुधारोन्मुखी प्रगतिशील समाज को गहन विचारण एवं मूलभूत सुधारों के प्रयास की आवश्यकता है। उन्होंने स्वयं कैसे लिखने का यह सफ़र शुरू किया यह जानना वाकई अत्यंत चोंकाने वाला एवं अत्यंत प्रेरणास्पद है।

हालाँकि उनका बाल्यकाल काफी असहज रहा या  कहें की एक सामान्य मध्यमवर्गीय बालक के बचपन समान भी नहीं रहा और अभावों में संघर्षों के साथ ही निम्नवर्गीय परिवेश में बचपन बीता किन्तु उन्होने अपनी कहानियों के ज़रिये जो संस्कार एवं शिक्षाएं ६० -७० के दशक में “नंदन” जो उस समय बच्चों की एक प्रतिष्ठित पत्रिका थी एवं  उन प्रमुख पत्रिकाओं में से एक थी जिसका इंतजार हर बच्चा करता था , संभवतः बड़े भी उसे रस ले कर पढ़ते थे । पत्रिका  के माध्यम से  वर्तमान बुजुर्ग होती पीढ़ी का बचपन का दौर था,  वे  शिक्षा ग्रहण करने के शुरूआती दौर में थे , उन्होंने उस वर्ग को अपनी रचनाओं द्वारा सुसंस्कारों के  पाठ पढाये और जो आगे जाते हुए अगली पीढ़ी में पहुंचे ,यह कार्य उन्हें एक श्रेष्ठ गुरु , मार्गदर्शक एवं बालमित्र का दर्ज़ा सहज ही दे देता है। निश्चय ही यह उनका समाज निर्माण में अप्रतिम योगदान रहा है। ।

यूं तो वे प्रतिष्ठित लेखक है ही , अनुवादक एवं पत्रकार के रूप में भी अच्छे से जाने जाते हैं एवं नंदन जैसी पत्रिका को दिए गए उनके जीवन के बहुमूल्य समय एवं साहित्यिक योगदान  को कदापि भुलाया नहीं जा सकता ।  उन्होंने विभिन्न बाल साहित्य, अनुवाद, उपन्यास कवितायें इत्यादि लिखे या  कहें कि उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के द्वारा साहित्य की हर विधा को अपने स्वर्णिम योगदान से नवाज़ा और उनकी आत्म कथा पढ़ कर ही यह ज्ञात होता है की उनकी शिक्षा दीक्षा तो बस नाम की ही थी स्कूल से रिश्ता उतना ही था जितना परिवार में नानी ने ज़बरदस्ती भेज भेज कर बनवा दिया था अन्यथा दिल तो लायब्रेरी व किताबों में बसा था ।

प्रस्तुत पुस्तक उनकी आत्म कथा है जिसे पढ़ते हुए जाने कितनी बार बचपन और नंदन से जुड़ी बेशुमार यादों में खो जाता हूँ । पूर्व में भी कुछ आत्म कथाये पढ़ी किन्तु ऐसी रचनात्मकता कहीं नहीं मिली, इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह एहसास भी नहीं होता की यह आत्म कथ्य है। एक सामान्य उपन्यास का कथानक सा प्रतीत होता है .

हिंदी में आत्मकथा लेखन की परंपरा अन्य भाषाओँ की अपेक्षा कम है । साहित्य में आत्मकथा किसी व्यक्ति द्वारा अपने ही जीवन का वर्णन करने वाली कथा हैं। आत्मकथा स्पष्ट , सत्य , निश्छल , सहज , सरल एवं निर्भीक अभिव्यक्ति है।  यह विधा व्यक्तिगत अनुभवों , अनुभूतियों व संवेदनाओं की त्रिवेणी है।  आत्मकथा किसी व्यक्ति की स्वलिखित जीवनगाथा है। संस्मरणात्मक होते हुए भी आत्मकथ्य को संस्मरण की श्रेणी में रखना उचित नहीं होगा क्यूंकि यह उससे बिलकुल ही जुदा विधा है तथा इसे साहित्य की गद्य विधा के अंतर्गत एक प्रमुख विधा कहा जा सकता है।

देवेन्द्र जी की आत्मकथा , अपनी बेबाकी में चैंकाने वाली आत्मकथा है। इसमें सच्चाई की महक है . अपने अवगुणों को , कमजोरियों के विषय में भी साफ बयानी व  उनका स्वकथित जीवन वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में भी अपने वर्तमान तक पहुंचने की कथा का निर्वाह विशिष्ट चेतना के साथ करता है। अपने बचपन ,भाव-जगत् और युवावस्था का वर्णन प्रस्तुत किया है, वहीं अपने कुल, परिवेश का भी अत्यन्त रोचक तथा सरस शैली में वर्णन किया है। 

आत्मकथा में  बाल्यकाल की स्मृतियाँ, विवाह, दाम्पत्य भाव, विभिन्न प्रेस की नौकरी , आदि से सम्बन्धित घटनाओं के साथ रचना-प्रक्रिया की शुरुआत , परिपक्वता की और अग्रसित होते जीवन तथा साहित्यिक जीवन का भी  विवेचन है।

उनकी सहज लेखन शैली जो उन्हें नंदन से 27 वर्ष के लम्बे समय तक जोड़ने में कामयाब रही वही इस पुस्तक को भी अत्यंत पठनीय बना देती है .  प्रतीत होता है मानो वे सम्मुख बैठ कर अपने बारे में बस बताते जा रहे है या कोई पुराना किस्सा सुना रहे हों एक अच्छे चतुर किस्सागो की मानिंद।  किसी भी आत्मकथ्य में लेखक अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों, घटनाओं को , पारिवारिक, आर्थिक तथा राजनीतिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में लिखता है। अपने जीवन में घटित मार्मिक घटनाओं का वर्णन भी करता है। यह संस्मरण से मिलती-जुलती तो होती है  लेकिन उसकी वर्णनात्मक व  गुणात्मक भिन्नता उसे संस्मरण से अलग खड़ा करती है।

जहाँ संस्मरण में लेखक अपने आसपास के समाज, परिस्थितियों व अन्य घटनाओं के बारे में लिखता हैं वहीं  आत्मकथा में केन्द्र लेखक स्वयं होता है। आत्मकथा हमेशा व्यक्तिपरक होती हैं, यानि वह लेखक के दृष्टिकोण से लिखी जाती हैं। इनमें लेखक अनजाने में या जानबूझ कर अपने जीवन के महत्वपूर्ण तथ्य छुपा सकता है या फिर कुछ मात्रा में असत्य वर्णन भी कर सकता है किन्तु देवेन्द्र जी ने जिस सच्चाई एवं स्पष्टता से अपने बारे में लिखा है वह निश्चय ही उन्हें उच्च दर्जे पर आसीन करता है 

अमूमन  व्यक्ति आत्मकथ्य  अपने जीवन के उत्तरार्ध में लिखता है उस समय जीवन की सम्पूर्ण घटनाएँ यथातथ्य उसके समक्ष होती हैं, उन्हीं यादों के सहारे स्मृति पटल पर अंकित चित्रों को पुनः शब्द रूप में उकेरता है अतः कह सकते हैं की लेखक स्वयं अपने अतीत को एक व्यवस्थित एवं रोचक रूप से प्रस्तुत करता है तथा अपने जीवन के अच्छे बुरे घटित का वर्णन निष्पक्ष भाव एवं पूर्ण सत्यता के साथ  स्पष्टवादिता के संग  अपने समस्त गुण दोषों को बयां करता है । देवेन्द्र जी की आत्मकथा पढ़ने के पश्चात यूं प्रतीत होता है की अभी बहुत कुछ कहा जाना बाकि है व  इस आत्मकथा के पश्चात भी और लिखा जाना चाहिए, दूसरा एवं शायद तीसरा भाग भी यथा हरिवंश राय बच्चन जी की आत्म कथा जो विभिन्न खण्डों में प्रस्तुत की गयी .     

आत्म कथ्य में, लेखक अपने अंतर्जगत को वहिर्जगत के सम्मुख प्रस्तुत करता है। इस में आत्म विश्लेषण होता है तथा मुख्यतः  आत्मकथा का उद्देश्य लेखक के जीवन के अनुभवों और उपलब्धियों को चित्रित करना है। अतः अपेक्षा होती है की लेखक आत्म-प्रशंसा से बचें, घिसे-पिटे निष्कर्ष देने से बचते हुए पाठक पर छोड़ दें की वे उसे किस रूप में ले रहे हैं न की अपने निष्कर्ष उनपर थोपें । अर्थात  आत्मकथा में व्यक्ति के जीवन - संघर्ष , वैयक्तिकता , आत्मोद्घाटन , आत्मविश्लेषण आदि का यथार्थ एवं प्रमाणिक वर्णन होता है एवं देवेन्द्र जी की आत्मकथा इस का श्रेष्ठ उदाहरण है तथा आत्मकथा लेखन हेतु सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में लिया जा सकता है . 

आत्म कथ्य को बाज़ दफा जीवनी के सामान अथवा जीवनी भी समझ लिया जाता है . जीवनी में किसी अन्य व्यक्ति (महापुरुष अथवा कोई अन्य ) के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया जाता है जबकि आत्मकथा में लेखक स्वयं अपने जीवन के अनुभवों का अपने अच्छे बुरे का तथा अपने गुण दोषों का वर्णन करता है। जीवनी किसी अन्य के द्वारा लिखी जाती है परंतु आत्मकथा स्वयं के द्वारा लिखी जाती है। जीवनी में कुछ काल्पनिकता हो सकती है जबकि आत्मकथा केवल सत्य घटनाओं पर आधारित होती है।

बचपन में ही परनानी के बेटे के अन्य स्त्री से संबंधों के चलते कुछ दुनियादारी की समझ आयी । भले ही मजबूरी में हो किन्तु स्कूल की पढाई से इतर पढ़ने के प्रति जो प्रेम बचपन में ही चौराहे पर पेड़ के नीचे अख़बारों के पढ़ने से शुरू हुआ और फिर अनथालय की लायब्रेरी से होता हुआ उम्र संग पनपता रहा तथा विभिन्न प्रेस इत्यादि की छोटी छोटी अस्थायी नौकरियां करते हुए अपने छूटते टूटते आत्म विश्वास  को बार बार संजोते एकत्र करते सफ़र चलता रहा। सब कुछ ज़रा भी आसान तो नहीं था किन्तु फिर भी देवेन्द्र को लेखक देवेन्द्र बनना था शायद कुदरत ने सोच ही लिया था और वह हुआ भी ।

माँ  के अल्पायु में ही विधवा हो जाने के पश्चात उनको  5 बच्चों के विधुर से व्याह दिए जाने व उन्हें माँ से अलग कर दिए जाने का जो दर्द  था उसके चलते उनका बाल मन सदैव माँ को  ही दोषी ठहराता रहा , व राघव के विषय में भी बताते हैं जो विधवा माँ को अपनाना चाहते थे किन्तु नानी को वह रिश्ता स्वीकार्य न था, शायद उन्हें स्वयं के एकाकी पन  का डर रहा हो , खैर यह बात कभी भी न तो नानी ने बतलाई न ही वे समझ सके , संभवतः कुदरत ने ही सब रच रखा था, यदि माँ  का साया न हटता  तो शायद वे वह न होते जो उन्हें समय के थपेड़ों ने बना दिया।     

स्कूलिंग पूरी हुयी नहीं सो कालेज के तो दर्शन ही न हुए,  कारण शिक्षा के प्रति कोई विशेष रूचि न थी दुसरे परिवार में भी कोई बहुत सुन्दर या पढाई वाला माहौल नहीं कहा जा सकता था, फिर भी प्रेस में कम करते करते परिवार की ओर से एकाकीपन , कहीं न कहीं गली की अख़बारों की ढेरी  को सहेजते हुए और अनाथाश्रम की लायब्रेरी में पुस्तकें पढ़ते पढ़ते लेखक बनने की नींव भी पड़ती गयी .  अपने उस दौर के मित्र कुमारिल द्वारा अपने पैसे से छपवाई हुयी पुस्तक को स्वयं ट्रेन में घूम घूम कर बेचना दिल को चुभता है तथा इस उल्लेख के द्वारा वे कहीं न कहीं सम्पूर्ण लेखक वर्ग को एक विषय दे जाते हैं गहन विचरण हेतु।

अपने बाल साहित्य लेखन को वे 3 खण्डों में विभाजित करते हैं जो की मूलतः नंदन के इर्द गिर्द ही हैं , पहला नंदन में आने से पूर्व , दूसरा नंदन के साथ व तीसरा नंदन के पश्चात ।

उनके आत्म  कथ्य में स्पष्टता है। सत्यता से गुरेज़ नहीं है न ही स्वयं को महिमा मंडित एवं दूध का धुला दिखलाने का प्रयास किया है। जो है जैसा भी हुआ है सब सम्मुख रख दिया है। अत्यंत प्रेरणा दायक है । कैसे पराग के संपादक का एक पात्र उन्हें एक संबल दे गया । जीवन में विभिन्न अवस्थाओं में जो भी पात्र सामने आये है उनका चित्रण पूर्ण स्पष्टता व निष्पक्षता से व  सुन्दरता से किया है  यथा पडना नी के बड़े बेटे जिन्हें सभी बाबूजी कहते थे उनका रखैल कलावती, व कोठे वाली जुबैदा से  सम्बन्ध और इस सब के बीच घुटती  सी उनकी पत्नी जिनकी मानसिक अवस्था का चित्रण बखूबी करा है वहीं जुबैदा के यहाँ उनकी मुलाकात जिस मजबूर सी लड़की जूही से हुयी थी जिसे वे शायद कभी भुला नहीं पाए,  उसका भी उल्लेख करना भूले नहीं हैं।

आगे चलकर मोहन से मित्रता  और उस की संगति में हुए विभिन्न ऐसे तजुर्बे जो उनका बाल  मन कभी स्वीकार नहीं कर सका यथा टेकरी पर पुलिसवालों से मुलाकात होना या फिर नाले को पार  कर ३बटा 6 जाना । आत्मकथ्य होने के साथ साथ यह अत्यंत रोचक व कुछेक सन्दर्भ में रोमांचक है अत्यंत सरसता संग सहज वाक्यांशों में लिखी गयी सच्ची और स्पष्ट बातें है जो उन्हें जानने की ललक और बाधा देती हैं। 

बचपन के अकेलेपन में किताबों को ही उन्होंने दोस्त बनाया। उनकी सोच में कहीं न कहीं बाल साहित्य को प्रकाशकों की दृष्टि में उचित स्थान न मिलना एक चिंता दिखलाता है। साथ  ही वे क्रत्रिम रचनाकर्म अर्थात किसी दबाव में किये गए रचनाकर्म एवं स्वतंत्र रचनाकर्म के फर्क पर भी बात करते हैं।  नंदन के दौरान किये गए कार्य को वे अपने रचना कर्म से अलग रखते है एवं उसे स्वतंत्र रचनाक्रम की श्रेणी से अलग रख कर देखते हैं  क्यूंकि वह  नौकरी का दौर था अतः  लेखन पत्रिका की नीति के अनुरूप ही हुआ किन्तु लेखक मन को चाहिए थी एक उन्मुक्तता व वह स्वतंत्र रचना जो कहीं अन्दर पनपी वह उन उपन्यासों से उभर कर बाहर  आई जो नंदन के उसी कार्यकाल के दौरान लिखे गए एवं पुरुस्कृत भी हुए। वे मानते है की बच्चों से उनकी भाषा  और  उनके ही भाव में किया गया संवाद अधिक प्रभावी होता है।   

यह लिखने में मुझे कतई संकोच नहीं है की इस आत्मकथ्य पुस्तक के विषय में लिखते हुए मैं  अत्यधिक भावुक रहा हूँ तथा बचपन का बाल पत्रिका नंदन के प्रति लगाव एवं उस से देवेन्द्र जी की सम्बद्धता कहीं न कहीं मुझे सीधे उनसे जोड़े रही क्यूंकि उनकी शैली है ही इतनी सुन्दर की आप सहज ही उससे जुड़े रह जाते हैं जो की मेरे साथ भी हुआ। एवं अंतर्मन में कहीं न कहीं उनसे रूबरू मुलाकात करने के भाव प्रबल हो उठे हैं।

सविनय

अतुल्य        

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Thaluaa Chintan By Ram Nagina Mourya

kuchh Yoon Hua Us Raat By Pragati Gupta

Coffee with Krishna by Bharat Gadhvi