Raagmahal By Mukesh Sohan

 

रागमहल

द्वारा: मुकेश “सोहन”

दृष्टि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित

  

 

कथाकार :

मुकेश सोहन जी मूलतः राजस्थान से हैं एवं  अरसे से हिंदी लेखन से जुड़े हुए हैं एवं अमूमन साहित्य की समस्त विधाओं में आपने अपना रचनात्मक योगदान दिया है किन्तु आपका अधिक झुकाव उपन्यास की ओर  प्रतीत होता है यथा प्रस्तुत उपन्यास  “राग महल” के पूर्व आपके पांच उपन्यास “द्रोंण  की व्यथा” , “स्वयंसिद्धा” ,   “व्यर्थ का प्रलाप” , “इर्द गिर्द” व “राग हवेली”  प्रकाशित हो चुके हैं जिन्हें उनकी विशिष्ठ विषयवस्तु के दृष्टिगत आम जन के बीच काफी सराहा गया  तथा राज्य स्तर पर विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थानों द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया एवं “साहित्य सुधाकर” , “साहित्य श्री” व  “साहित्य कुसुमाकर” जैसी श्रेष्ठ उपाधियों से नवाज़ा गया।   

भाषा शैली :-

भाषा सामान्य है बोलचाल की ही भाषा है जो पात्रों  के स्तर एवं परिवेश के  उपयुक्त है। वाक्य विन्यास , सुन्दर है किन्तु चंद वर्तनी सम्बंधित कमियां आनन्द दायक पाठन में व्यवधान उत्त्पन्न अवश्य करती हैं  जो खलती हैं। लेखक की  आध्यात्म पर गहरी पकड़  है एवं विभिन्न अवसरों  पर  उचित पात्रों के संभाषण के ज़रिये काफ़ी गहरी बातें भी कही  गयी हैं यथा : “दुख का कारण ही सुख है जो आकर  के चला जाता है यदि सुख ना होता तो शायद दुख भी दुख नहीं होता इंसान सुख को पकड़े रहना चाहता है परंतु ऐसा होता नहीं है लंबे समय तक दुख उठाने वाले लोग दु:ख के अभ्यस्त हो जाते हैं वह उनके लिए इतना भारी नहीं रहता

या फिर : “ जीवन में हर विषय की आवश्यकता होती है और वह कभी भी हो सकती है. इसलिए उसकी तैयारी हमें सदैव रखनी चाहिए.

कथानक :-

प्रस्तुत कृति  की विषयवस्तु समाज के बीच से ली गयी समाज की ही कहानी है निम्न मध्यमवर्गीय जीवन शैली जो एक मंदिर से जुड़ी हुयी हवेली में रहने वाले विभिन्न पात्रों के  जीवन के साथ साथ आगे बढती है। पुस्तक में किसी विशेष मुद्दे को नहीं उठाया  गया है अर्थात विशिष्ठ विषय वस्तु केन्द्रित कथानक नहीं है।  सामान्य जीवन के बीच से ही कथानक को लिया गया है  रोज़मर्रा की बातें मेल मिलाप इत्यादि प्रमुखता से है।   

पात्र परिचय :-

 वर्धमान और गौतम दो युवक जो गाँव से शहर में पढ़ने  आये  हैं और इस हवेली में अपने परिचित वरिष्ट सज्जन माणक दास जी का कमरा उनका आश्रय स्थल है। वहीं  सुखपाल एक भगत है जो कीर्तन इत्यदि धार्मिक कर्मकांड में व्यस्त है।  विदुर एक ऐसा पात्र है जो शासकीय  सेवक है जिस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी है संभवतः पौरुष सम्बंधित समस्याओं के कारण और मामला  कचहरी में है फ़िलहाल अपने वृद्ध माता पिता के संग उसी हवेली के एक कमरे का निवासी है। विदुर  के माता पिता विदुर को भोला  समझते हैं वे  यह मानकर चल रहे हैं कि उसकी पत्नी जब से उसे छोड़कर गई है वह इधर-उधर मारा मारा फिरता है और उसके पास पैसे देखकर मतलबी  लोग  ले जाते हैं लेकिन जब पैसा खर्च हो जाता है  तो उसे छोड़ देते हैं उन्होंने उसे लाख समझाया किंतु वह समझता ही नहीं है  

भावना , विदुर की भतीजी है जो कि विवाह योग्य है सुन्दर एवं सुशील है तथा कहा जा सकता है कि इस कथानक की नायिका होने का श्रेय  भी उसी को जाता है। 

हवेली के अन्य कमरे में कमलाशंकर जी सपत्नीक रहते हैं जिनके साथ उनकी युवा परित्यक्ता बेटी सुशीला  भी रह रही है जिस पर काम पिपासु  विदुर की  कुदृष्टि बराबर बनी रहती है  हालाँकि आगे चलकर इस सम्बन्ध में मांग  एवं आपूर्ति का सिद्धांत प्रभावी होता है और दोनों ही अपनी अपनी पिपासा शांत कर लेते हैं बगैर किसी भविष्य कालीन समझौते या विचार के वहीं एक पुलिसवाला भी है जो स्वयं को थानेदार बताता है जो की वास्तविकता से कोसों दूर है एवं उसका भी भांडा  बाद में फूट ही जाता है । 

पुस्तक के विषय में :-

दो नवयुवक जो शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से शहर आये हैं मंदिर से लगी हुयी  उस हवेलीनुमा मकान  के एक कमरे में अपने एक परिचित वरिष्ठ सज्जन मानक दास के यहाँ रुकते हैं जहाँ वे विदुर, के मित्र बनते हैं। वर्धमान एवं गौतम अपनी पढाई  के प्रति गंभीर हैं किन्तु न चाहते हुए भी स्थानीय रहवासियों से उनके रोज़मर्रा के मसलों में जुड़ते चले जाते हैं। स्थान एवं किस काल का कथानक है इसका पता कहानी से नहीं चलता किन्तु कथा के विभिन्न दृश्यों के विवेचन से  संभवतः 70 के दशक की बात जान पड़ती है। आधुनिकता का कोई प्रभाव कथानक पर दूर दूर तक नज़र नहीं आता।  साफ़ सुथरी भाषा शैली में सीधी  सरल बातें कही गयी हैं।  बात उस ज़माने की है जब प्यार का इज़हार पत्र  को पाठ्य पुस्तक में रख कर देकर किया जाता था।  एवं लोग सिनेमा हाल में जाकर पिक्चर देखा करते थे।    

जाने अनजाने एवं अन्य रहवासियों की अप्रसन्नता के बावजूद विदुर, वर्धमान एवं गौतम से दोस्ती बना लेता है। जो कि कालांतर में उसके स्वार्थ को प्रगट करती है जब पता चलता है की वह अपनी भतीजी का रिश्ता वर्धमान से करवाने की मंशा रखता है। वर्धमान एवं भावना की प्रेम कहानी भी बेहद साफ़ सुथरे तरीके से चल पड़ती है।  पश्चात भावना की  छोटी बहन का रिश्ता गौतम से जोड़ने हेतु प्रयास रत हो जाता है। इधर उसका स्वयं का वैवाहिक जीवन समाप्त  प्राय ही है।

व्यक्ति को जब कुछ ज्ञान हो जाता है तो  वह स्वयं ही कुछ सिद्धांत बना लेता है लेकिन व्यवहार में स्वयं उसको भूल जाता है यह सब वह दूसरों पर थोपने लगता है वह कभी अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखता कि उसने खुद ने नियमों व आदर्शों का जीवन में कितना पालन किया है यह सब व्यक्ति जीवन में अनायास ही करता चला जाता है लोग भी संकोच और उससे कभी कुछ कह नहीं पाते हैं जैसे कि कोई विदुर को नहीं कह पा रहा और यदि कभी कुछ हिम्मत करके कह भी दे तो सामने वाले के अहम् को चोट पहुंच जाती है और कोई विवाद या घटना भी हो सकती है इंसान वैदिक हो चुका है उसमें संयम नहीं है वह सत्य को, अपनी कमियों को ना तो सुन सकता है ना ही सहन कर सकता है  व्यक्ति अपने चारों ओर के इंसानों के बारे में कभी भी पूर्ण रूप से नहीं सोच पाता उसे यह पता भी बहुत सी बार तभी चलता है जबकि उसे उसके प्रति किए गए अपने त्याग या एहसानों का लेखा-जोखा पेश करता है 

शहर में पढाई ज्यों ज्यों समाप्ति के करीब आ रही है दोनों युवाओं वर्धमान व  भावना की मोहब्बत का रंग गाढ़ा होता जा रहा है। साथ ही विदुर की मित्रता का भी।  उसी सन्दर्भ में किंचित आक्षेप  के साथ कहते हैं की पुरुष प्रधान समाज में स्त्री का स्वरुप एक वस्तु से अधिक कुछ भी नहीं है वह तो मात्र पुरुष की सहमती , इक्षा अथवा आदेश की  गुलाम मात्र है समय के साथ । वही   विदुर के  असफल वैवाहिक जीवन के संदर्भ में कही गयी बात  कि एक औरत को पुरुष से क्या-क्या चाहिए, वक्त बदल गया है अब यह नहीं चलेगा कि लाख कमियों के होते हुए भी वह पुरुष को स्वर्ग तक ले जाने वाला साथ ही मानती रहे विचार एक होने चाहिए आपसी सहयोग होना चाहिए भावनात्मक एकता भी होनी चाहिए आज की नारी नारी का स्थान चाहती है वह पति से सम्मान भी उतना ही चाहती है जितना कि वह उसका करती है ऐसे में यदि कोई अपने को महत्वपूर्ण समझने का अहम पालने लगे तो जीवन विवाह नही है एवं साथ में रहकर घुटने से तो अच्छा है कि अलग हो जाओ चाहे उसे आर्थिक सहायता ही क्यों न देनी पड़े अब वक्त निकल चुका है .

आध्यात्मिक चिंतन का अच्छा मेल करते हुए कथानक को आगे ले जाने में सफल हुए हैं. विदुर के पिता विष्णु जी विदुर को लेकर अपने  मन की  पीढ़ा  व्यक्त करते हुए   कहते हैं कि “आत्मा और बुद्धि एक ही  चीज है जो शरीर पर अपना नियंत्रण रखती है शरीर की दशा चाहे कितनी भी अच्छी हो अच्छा भोजन दिया गया हो मगर यदि मन स्वस्थ नहीं है तो शरीर पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है और वह लाख अच्छा भोजन देने पर भी उसे यह नहीं कर पाता और रोगी  हो जाता है इसलिए इंसान को मानसिक रूप से मजबूत एवं स्वस्थ बनना चाहिए जिससे वह शरीर पर अच्छा नियंत्रण रख सके यह भी सत्य है कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति अच्छी ना हो तो वह शरीर को जरूरी तत्व प्रदान नहीं कर पाता और समाज व परिवार की जरूरतों को पूरा ना कर सकने के कारण उसके मन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है

 

आगे चलते हैं  , दोनों युवा पढाई  पूरी कर  अपने गाँव आ जाते हैं शहर में हवेली से संपर्क न के बराबर बना हुआ है जहाँ आगे पता चलता है की हवेली के पुराने वरिष्ठ रहवासी समय के साथ साथ अपनी सद्गति को प्राप्त होते जाते हैं।   

किन्तु अभी भी बहुत कुछ अनुत्तरित है जैसे विदुर का उसकी पत्नी से मिलन हुआ या नहीं अथवा सुशीला विदुर के संबंधों ने आगे क्या मोड़ लिया रिश्ता (?) आगे  बढ़ा या नहीं।  साथ ही  वहीं  पता चलेगा की भावना एवं वर्धमान के प्रेम का क्या अंजाम हुआ एवं  क्या विदुर गौतम व  भावना की बहन का विवाह करवाने में कामयाब हो गया।

सामान्य  भाषा शैली में एक पठनीय कृति का सृजन किया है जहाँ  रचना को किसी दायरे में बाँध कर नहीं रखा गया है , सहज प्रवाह है किन्तु कथानक किंचित मंथर गति से आगे बढ़ता है । पात्र संख्या सीमित है एवं प्रत्येक  पात्र के संग न्याय हुआ है ।

शुभकामनाएं

अतुल्य

 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Thaluaa Chintan By Ram Nagina Mourya

kuchh Yoon Hua Us Raat By Pragati Gupta

Hargovind Puri Chayanit Kavitayen