Koyale Ki Lakeer By Poonam Ahmad
कहानी संग्रह : कोयले
की लकीर
बोधरस प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
प्रथम संस्करण : अप्रैल 2022
पूनम अहमद अपनी सहज सरल भाषा शैली एवं आम जन जीवन के बीच से लिए गए विषयों पर लिखने हेतु बखूबी जानी जाती हैं। इसके पूर्व मेरे द्वारा उनकी पुस्तक “मूनगेट” की समीक्षा की गयी थी जिसकी चारों कहानियों में नारी विमर्श को प्रमुखता से देखा गया था । उनकी प्रस्तुत पुस्तक “कोयले की लकीर” भी कहानी संग्रह है जिसमें विभिन्न विषयों पर 18 कहानियां हैं जो न तो बहुत बड़ी हैं न ही छोटी एवं अधिकंश में, स्त्री विमर्श प्रमुखता से देखने को मिलता है . पुस्तक के विषय में यदि संक्षेप में कहा जाये तो सभी कहानियां अत्यंत रोचक हैं सरल प्रवाह में किसी भी प्रकार की क्लिष्टता से दूरी बनाये रखते हुए मनोरंजक तरीके से कही गयीं हैं , विषय भी ऐसे हैं कि पाठक कहीं न कहीं उस से जुड़ ही जाता है और कहानी उसे अंत तक बाँध कर रखती हैं , हाँ अमूमन प्रत्येक कहानी के अंत में पहुँच कर कहानी के तनिक और विस्तार की आवश्यकता बेतरह महसूस होती है।
जैसा की मैंने प्रारंभ में ही कहा
कि , संग्रह की अधिकतर कहानियां नारी विमर्श पर केन्द्रित हैं, भाषा सरल होते हुए
भी अत्यंत प्रभावी है एवं अपने सन्देश बखूबी देती है । जहाँ एक और उनकी कहानियों
में भावनात्मकता मूल तत्व होता है वहीं वे नारी के मन के
अमूमन हर उस पहलू को उजागर करती हैं जो आम तौर पर अनदेखे कर दिए जाते हैं। विभिन्न
विषयों पर विचारों का उद्वेलन एवं नारी मन का अंतर्द्वंद कहीं खुल कर तो कहीं भावनाओं
अथवा विव श्ताओं की परतों तले गूढ़ता से उनकी कहानियों में नज़र आता है । उनकी
नायिका सशक्त होती है, जो वर्जनाओं एवं बेबुनियादी मान्यताओं के खिलाफ जूझती है तो
कभी विद्रोह करती है. अन्याय के सामने झुकती अथवा समझौता करती हुयी नायिका उनकी
कहानियों में नहीं है, जो कि उनकी प्रगतिवादी सोच , नारी सशक्तिकरण व नारी स्वातंत्र्य
को दर्शाती है, जो वगैर समाज की परवाह
किये तथा खोखली मान्यताओं को धता बतलाती हुयी अपने निर्णय स्वयं लेती है , सक्षम है, जागरूक है व अपने हक के लिए लड़ना जानती
है ।
कुछ
अनछुए विषय उन्होंने अपनी कहानियों में पात्रों के माध्यम से उठाये हैं, एवं उनमें
जिस तरह नारी पात्रों को संकीर्ण कुंठित
मान्यताओं एवं वर्जनाओं से बाहर आते दिखलाया है, रूढ़िवादी मान्यताओं के पोषक प्रबुद्ध जनों को
असामान्य लग सकता है किन्तु एक नया रास्ता भी दिखलाती हैं ।
कहानियों
के कथानक विशिष्ट विषय न होकर आम जीवन की सामान्य घटनाओं की , रोज़मर्रा की बातों
की रोचक प्रस्तुती है वहीं उनकी कहानियों के पात्र कहीं न कहीं उनके जीवन में हुए
किसी घटना क्रम से अथवा किसी न किसी वाकये से जुड़े होकर किन्हीं वास्तविक घटनाओं एवं पात्रों से प्रभावित हुए हैं ऐसे प्रतीत होते हैं। पूनम जी अत्यंत ख़ूबसूरती से पात्रों एवं घटना
क्रम का सृजन एवं प्रस्तुतीकरण करती हैं एवं वे उन्हें वास्तविकता के समकक्ष ही
खड़ा कर देती हैं।
पूनम जी की कहानियां इस मामले में औरों से भिन्न कही जा सकती हैं की वे कहीं भी उपदेशात्मक नहीं होती तथा कहानी के सरल प्रवाह को भी यथा स्थिति रहने दिया गया है एवं विशिष्ठ दर्शाने हेतु क्लिष्ट भाषाई सौंदर्य अथवा कठिन शब्द जो की आम आदमी हेतु अप्रचलित जैसे ही हैं उन शब्दों का प्रयोग भी नहीं है . कथानक उद्देश्य परक प्रतीत होते हैं एवं भाव संग ख़ूबसूरती से पिरोये हुए तो हैं किन्तु अपनी ओर से कोई सन्देश देने का अतिरिक्त प्रयास लक्षित नहीं होता।
संग्रह की पहली कहानी
तितलियां
:- प्रस्तुत कहानी में अपने अत्यंत चिर परिचित, बहुत ही प्यारे, एवं मन लुभावन
अंदाज़ में, घर में दो प्यारे बेटे और हंसता खेलता परिवार होने के बाद भी बेटी न
होने की जो एक खलिश सी माँ के दिल में कहीं भीतर छुपी होती है जो कभी कभी कंही
चुभती सी है पर
सामाजिक विकृतियों के चलते खुल कर कभी बाहर नहीं आ पाती , उस का हाल सुना गयी हैं पूनम
जी ,
साथ
ही एक सोच भी दे गई की क्यों बेटी होने की तमन्ना करना समाज में एक अशुभ कामना
करने
जैसा समझा
जाता
है वह भी औरत के ही द्वारा , यह कैसी
विडंबना है ।
अगली कहानी बारिशें ,
चित्रण
करती है एक ऐसी अबूझ सी परत का जो समय के साथ साथ मन
पर
चढ़ती चली जाती है या फिर जिसे हम स्वयं
ओढ़ लेते हैं ,उसे
उम्र का प्रभाव कहें अथवा लोग क्या कहेंगे
की चिंता . जो बारिश बचपन और युवावस्था
में अपने सारे रंगों में इतनी हसीन लगती थी जिसमे जीवन का पहला प्यार मिला वही अब बेमज़ा लगती है ,
पहले
उस में ही सारी ख़ुशी नज़र आती थी पर अब समय के साथ साथ उसी पर झुंझलाहट आने लगी है , खुद को सोच के रास्ते
में थमने न देना व समय के साथ आगे चलते रहना और इस सोच को एक नया ही नाम दिया है
पूनम जी ने “मन की रिपेयरिंग” , तो यह कहानी मन की रिपेयरिंग
की ही बात करती है । “मन के हारे हार है मन के जीते जीत” वाली उक्ति को चरितार्थ करती
है । बात बारिश के परिप्रेक्ष्य में अवश्य है किन्तु कहीं न कहीं मन को चिर युवा
रहने देने अथवा बनाये रखने की और इंगित करती है.
वहीं कहानी समर्पण में उन हालात का वर्णन है जो आम तौर पर तब पैदा
होते हैं जब , दो भिन्न रुचियों के
व्यक्ति दाम्पत्य जीवन बिताने संग आ जाते है , और यदि समझदारी से
मामले न सुलझाये जाएं तो बात किस कदर बिगड़
सकती है , एक तार्किक अंत की
अपेक्षा करते हुए कहानी के अंत की प्रतीक्षा थी किन्तु मसला कुछ सुलझता सा नहीं
लगा तथा अस्पष्ट सा ही रहा जो भावनात्मक अधिक प्रतीत हुआ जिसमें यह स्पष्ट नही किया गया कि
क्या सदा की तरह नारी ने ही
समझौता किया । चूंकि अंतिम चंद पंक्तियां तो कुछ ऐसा ही दर्शा रहीं हैं ।
अलग अलग विषय पर कहानियां हैं जो अपने आकार के
हिसाब से वाकई कहानियां ही हैं ना कि लघु उपन्यास या फिर लघु कथा , हाँ चंद कहानियों में
मुझे , कथानक को समेट कर छोटा
करने का आभास हुआ यानी वहां कुछ और आगे लिखा जाता तो संभवतः अधिक सुखद होता ।
“उनके अपने” एक ऐसी कहानी है जिसने कोरोना की विभीषिका को
भुला देनें की कोशिशों में बरबस दबा कर रखी गयी डरावनी घटनाओं की यादों को फिर कुरेद दिया । कोरोना
के प्रकोप से अपने माँ एवं पिता को खो चुके दो अनाथ बच्चों के डर एवं तकलीफों को न समझते हुए कैसे
रिश्तेदारों की सिर्फ घर की धन दौलत पर नज़र रहती है व उस हाल में कैसे वे लोग
जिन्हें अपने जीवन रहते इंसान पराया समझता है , निःस्वार्थ ही सारे
दायित्व लेने हेतु तैयार हो जाते है ,सुन्दर भावपूर्ण एवं मार्मिक चित्रण है . कहानी
में सहृदय महिला रेखा के पात्र का और अधिक विस्तार अपेक्षित था । फ़िर भी लेखिका
अपने मकसद में बखूबी सफल हुई.
आंगन का वो पेड़ , जहां विजातीय विवाह पर
पुत्री को त्याग देने जैसे कठोर पुरातनपंथी निर्णयों के बारे में है वहीं
पुत्र के समलैंगिक पृकृति से शर्मिंदा होते हुए, उसे भी त्याग देने जैसे
कठोर निर्णयों के बीच , आंगन के पेड़ की महती भूमिका का सुंदर एवं भाव नात्मक चित्रण प्रस्तुत किया है । कथानक
विभिन्न भावनात्मक बिंदुओं पर बहुत विस्तृत हो सकता था। हालाँकि एक कथानक में दो दो ज्वलंत
विषय उठाना और एक सुखांत पर पहुचना सराहनीय है ।
ऐसी ही एक प्यारी सी कहानी है “डर”
जहां बदलते हुए समाज में परिदृश्य में कट्टरता और असहिष्णुता के डर से इतनी अधिक नकारात्मकता
आ गयी है कि अब आपस में तो विश्वास रहा नहीं
और सिर्फ एक शक है जो दिन रात दिलों में बैठा हुआ सब संबंध, रिश्ते तबाह कर रहा है
और लोग बिना बात के ही परेशान है, कुछ ऐसा ही है इस कहानी के नायक का हा ल जो सिर्फ मुस्लिम होने के कारण बेहद डरा हुआ है सब को शक की नज़रों से देखता है । कहानी
अपने भाव से आपसी भाई चारे का संदेश देती है । पत्नी का
निश्चिन्त, बेलौस रवैया व सहयात्रियों के दोस्ताना व्यवहार सामान्य है व कथानक में
इस पात्र के द्वारा सब कुछ ठीक है का संदेश देने का भी प्रयास किया गया है.
"उस के जाने के बाद
" गंभीर विचारण हेतु चंद प्रश्न सामने रखती हुई एक मार्मिक कहानी है
जिसमें यूं तो एक लेखिका को प्रमुख पात्र बनाया गया है किन्तु वह कोई भी हो सकता है जिसके कार्य को उसके रहते
न सराहा जाए, हमारी अपनी व्यस्तताओं
के बीच हम उसे उपेक्षित करें, उसे अकेलापन ही हासिल हो और वह शनैः शनैः कहीं
अन्दर से टूटता चला जाये इस सब का एहसास अगर हम उसके जाने के बाद कर पाए तो फिर
हासिल क्या होगा, सिर्फ पछतावे के। परिवार
का मतलब सिर्फ घर में एक साथ होना नहीं है अपितु भावनात्मक निकटता अधिक आवश्यक है।
दोनों ही अलग अलग हैं . “मै हूँ न” का एहसास कई मुश्किलों को आसान कर जाता है।
भावनात्मक नजदीकियां का न होना रिश्तों को समाप्त कर देने हेतु पर्याप्त है और यही
मूल है इस कथानक का भी । मार्मिक होने के साथ वचारों के झंझावत में
मन के हर कोने को उद्वेलित करती कहानी है ।
वहीं विजातीय प्रेम विवाह में परिवारों की असहमति , अस्वीकार्यता एवं अपनी
खीझ को नव विवाहित युगल के
बीच विवाद उत्त्पन्न कराकर आत्मिक संतुष्टि को एक पालतू जानवर के ज़रिए दिखलाती
कहानी है “बॉबी” । बॉबी दोनों के बीच झगड़े को भी समझती है व
उनके प्यार को भी किन्तु बेजुबान है पर फिर भी टूटते घर को बचा ही लेती है और पुनः
साथ हो जाने पर शायद युगल से भी अधिक
खुश बॉबी थी । वर्णन बहुत वास्तविक
है , जहां झगड़ों की कोई वजह नहीं होती , वहीं टोकटाकी की भी। रिश्ते तो होते ही
हैं बेहद नाज़ुक , उन्हें बिखरने हेतु हलकी सी ठोकर भी पर्याप्त होती है.
“बोरियत” कहानी समय के साथ होते
बदलाव के बीच घेरता अकेलापन और उस हालात में थोड़ी सी देर की किसी से मुलाकात और
बातचीत दिल को कैसा सुकून दे जाती है दर्शाती है, साथ ही इस अकेलेपन से बाहर आने हेतु कैसे कैसे प्रयास होते हैं वह जानना भी
रोचक है. कहानी मात्र बोरियत हटाने की नहीं है बल्कि आपसी संबंधों में बढ़ते फ़ासलों को बहुत
गंभीरता एवं नज़दीक से अवलोकन करती है , फिर वे घरों में हों अथवा समाज में . परस्पर बहुत अधिक
घनिष्ठता न सही तनिक नज़दीकियों की पक्षधर लगती है जो कम से कम इंसान को महज़ थोड़ी
देर बात करने के लिए किसी को ढूंढने को मजबूर न कर दे ।
वही “ विदेशी धरती पर मेरे
अपने” कहानी, विदेशों में
बसे हिंदुस्तानियों को देश की हर छोटी बड़ी बातों की यादें , खान पान किस बेतरह आती
हैं और जब कोई अपना वहां मिल जाये तब होने वाली खुशी तो अवर्णनीय ही होती है।
सामान्य कथानक है .
तो “काकी का टिफिन” फिर एक
बार “दीवार” कहानी का ही अगला हिस्सा जैसा लगती है वैसे ही
भाव हैं जहां युवा पीढ़ी द्वारा अपने ही माँ बाप से किये जा रहे वर्ताव को रेखांकित
किया है . आज ऐसे किस्से बहुत आम हो चुके हैं । समाज को ऐसे बच्चों के संग क्या
व्यवहार करना है सोचने का समय शायद अब कगार पर है.
कहानी “बड़ा घर”
प्रारंभ में पात्र को जहां अपने बड़े घर के
दम्भ को दर्शाती है व मुंबई के छोटे घरों की निंदा ही करती है किंतु समय के साथ
उम्रदराज़ होने पर जब बड़े घर की साज संभाल कठिन
हो जाती है तब स्वयं ही छोटे घर की वकालत करने लगती है। कहानी बेहद सहजता से सरल
एवं विनम्र बने रहने व गुरूर को परे रखने का विचार रखती प्रतीत होती है क्यूंकि इन्सान नहीं वक्त ही निर्णायक है .
“कहीं किसी रोज़” एक ऐसी महिला जोया की कहानी है जो बिंदास है अपनी
ज़िन्दगी अपने तरीके से जी रही है वहीं कथा
का नायक धर्म भीरु , व लीक से बांध कर चलने वालों का प्रतिनिधित्व करता है . कहानी
हमें दोनों से मिलवाती है व कहा जाए तो दो विपरीत ध्रुवों के मिल न को दर्शाती है जो
शायद एकाकीपन के चलते करीब आ जाते है और शारीरिक नजदीकियों के साथ साथ रूढ़िवादिता , एवं जातिभेद जैसे अन्य विषय धीरे धीरे दरकिनार हो जाते हैं . समय
की नजाकत , विषय की तरजीह व जीवन जीने की कला जैसे विभिन्न बिन्दुओं पर विचारण
हेतु विषय प्रस्तुत करती है.
सविनय ,
अतुल्य
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