Hone Se Na Hone Tak By Sumati Saxena Lal
होने से न होने तक
द्वारा : सुमति
सक्सेना लाल
सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
गंभीर , सामान्य-तौर पर पारिवारिक अथवा अपने बेहद करीब से चुने गए विषय को कथानक का आधार बना कर अत्यंत सुरुचिपूर्ण , गरिमामयी , स्वस्थ हिंदी रचनाएँ गढ़ने में वरिष्ट लेखिका सुमति सक्सेना लाल का कोई सानी दूर दूर तक दृष्टिगोचर नहीं होता। साहित्य के गलियारों में वरिष्ट लेखिका सुमति सक्सेना लाल का नाम बहुत ही आदर एवं विशेष उल्लेख के साथ लिया जाता है, काफी लम्बे अंतराल के पश्चात अपनी दूसरी पारी में उन्होंने साहित्य को कई सुन्दर रचनाएँ दी हैं । उनके कहानी संग्रह एवं उपन्यास “अलग अलग दीवारें” ,” दूसरी शुरुआत” ,“फिर ... और फिर”, “ वे लोग “ भी काफी सराहे गए एवं पाठको से भरपूर प्यार बटोर कर अपनी अमित छाप छोड़ गए ।
लेखिका द्वारा रचित प्रस्तुत कृति में नायिका
द्वारा अपने कालेज के शिक्षण के कैरियर में आये विभिन्न उतर चढ़ाव तजुर्बे एवं कुछ
खट्टे मीठे वाक्यात बेहद ख़ूबसूरती से साझा
किये गए हैं एवं बाज़ दफा तो यह लेखिका का आत्मकथ्य ही जान पड़ता है। युवा अवस्था एवं कालेज जीवन की पृष्ट भूमि में रचित इस कथानक के ज़रिए लेखिका ने हमें कॉलेज जीवन की शिक्षकों की ओर की झलक दिखला दी जो आम तौर
पर छात्रों को सुलभ नहीं होती ।
आज के शहरी जीवन, कॉलेज की नौकरी , पारिवारिक
रिश्ते , कुछ मज़बूती से बंधे हुए तो कुछ मात्र दिखावे के
मज़बूत किन्तु भीतर से खोखले, एवं नारी शिक्षा जैसे विभिन्न
विषयों के इर्द गिर्द सारे कथानक का
तानाबाना बुना गया है । सामान्य भाषा शैली
है जो कि आम जन पढ़े , गुने और
बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही समझ सके। कथानक में भाव स्पष्टीकरण एवं कथ्य की
अंतरात्मा तक पहुचने हेतु कही कही सुंदर वाक्यांशों का भी प्रयोग देखने में आता है
।
परिचय
कहानी एक ऐसी युवती की जो अपने मां पिता को बचपन में ही खो चुकी है और अब अविभावकों के नाम पर एक बुआ है व दूसरी माँ की सहेली जिसे माँ ही उसका अभिभावक नियुक्त कर गयी है और जिसने पूरी शिद्दत से उसे पढ़ाया लिखाया व ख्याल रखा । माँ की सहेली उन्ही आंटी का एक बेटा भी है जो कि युवती के दिल के बेहद करीब है । कोई ज़ाहिर इज़हार ए इश्क़ नहीं है पर बचपन की मित्रता है , एवं शायद मोहब्बत भी जो एक दूसरे की फ़िक्र में नज़र तो आती है किन्तु कभी भी जतलाई नहीं गयी । बुआ का स्वभाव व आंटी का डोमिनेटिंग रवैया युवती को कई बार उलझनों के बीच खड़ा कर देता है । मानसिक उहापोह की स्थिति अक्सर बनती है ।
बहुत से अंतर्द्वंद चलते रहते हैं उनके इर्द गिर्द अपने है, किंतु उन्हें कोई कितना अपना समझे और जो अपने नहीं है जैसे बुआ के खानसामा अथवा कॉलेज़ की प्राचार्य या फिर चंद सहकर्मी , उनका अपनत्व अधिक वास्तविक लगता है एवं प्रभावित कर जाता है । सुमति जी की लेखनी रिश्तों के आपसी विरोध के बीच सामन्जस्य के समीकरण बनाती नज़र आती है उनकी कहानी में मानो उनके आस पास की परिवार की और अपनी चर्चा ही रहती है ।
कहानी कहीं कहीं इतनी
सच के करीब आ जाती है मालूम होता है आत्मकथ्य पढ़ा जा रहा हो । वैसे भी जहां या तो
पाठक पात्र में स्वयं को देखने लगे अथवा पाठक व पात्र एकाकार हो जाएं तो मेरी
दृष्टि में यह लेखनी की अपूर्व सफलता का द्योतक है । इस दृष्टि से यह निसंदेह एक
सफलतम प्रस्तुति है ।
दृश्य
इतने वास्तविक बन पड़ते है कि कहीं अंतर्मन से जुड़ कर स्वतः ही पाठक को कथानक का एक
भाग बना लेते हैं। जैसे कि बुआ की सास का दर्द, बेटे के प्रति अपनी बहू अर्थात बुआ
के व्यवहार का दर्द, वहीं
कालेज जॉइन करने के समय प्राचार्य का व्यवहार, प्रभावित कर
जाता है उनके कथ्य की सहजता अपने से बांध लेती है साथ
ही कथानक में रोचकता बनी रहती है ।
कहानी की नायिका को एक विद्यालय में कार्य मिल
जाने पर वह स्वयं होस्टल से अपनी मां के
बनाये घर में रहने आ जाती है जो कि बुआ को कहीं न कहीं नागवार गुज़रता है , कालेज
में सभी सहकर्मी अच्छे एवं सहयोगी है ,
सबकी अपनी अपनी कहानियां है , आंटी के बेटे यश
का अच्छा सहयोग है वहीं बुआ का उनके सास ससुर के प्रति व्यवहार उचित नहीं लगता या फिर
वह अर्थात नायिका उनका किसी के प्रति व्यवहार समझ ही नही पाती। प्रस्तुत कथानक में
इंसानी रिश्तों की अहमियत भी स्पष्ट दिखलायी पड़ती है।
पारस्परिक रिश्तों का विश्लेषण एवं सूक्ष्म अन्वेषण विद्यमान है। बुआ द्वारा 7 साल पुराने घरेलू सेवक का भला न सोच जब वे अपना स्वार्थ देखती हैं तब नायिका का कथन की “जो लोग अपने माँ बाप का न सोच सके वे घरेलू नौकर का क्या सोचेंगे “। बुआ के विषय में कहे गए शब्द , उनके गंभीर अवलोकन के साथ साथ उनकी इंसानियत के ज़ज्बे को भी दर्शाती है।
बुआ का पात्र अत्यंत स्वार्थी एवं असंवेदनशील हैं उनका कथानक भी अत्यंत रोचकता बनाये रखता है। विशेष तौर पर जब बुआ माँ के लिए अस्पष्ट रूप में उन पर एक लांक्षन जैसा लगाती है तब नायिका डॉ. नेगी से जोड़कर उसे देखती है एवं अचंभित होने के साथ साथ बुआ से कुछ नफरत भी करने लगती है।
कथानक शहरी परिवेश में प्रस्तुत किया गया है एवं
सम्पूर्ण कथानक के दो हिस्से हैं व दोनों ही भाग, लखनऊ शहर में ही रचे गए हैं फिर
वह नौकरी लगने के पूर्व शैक्षणिक काल की बात हो अथवा कॉलेज में शैक्षणिक कार्य
करते हुए बीतता हुआ जीवन का दूसरा बड़ा हिस्सा।
प्रस्तुत पुस्तक में हर
पात्र को उसके अंदाज़ से जिया है उसकी खुशी उसके दर्द उसके ज़ज़्बातों को खुलकर साझा
किया है, और इस तरह से नारी विमर्श के लगभग हर आयाम, कुछ छुए
कुछ अन- छुए ,सभी को विस्तार से सामने लाने में सफल रहीं हैं ।
उनकी एक सहकर्मी एवं
मित्र का एक वरिष्ठ प्राध्यापक की ओर झुकाव वाला भाग बेहद महत्वपूर्ण है जो उस अन-छुए
पहलू को दर्शाता है जहां स्त्री की प्रेम हेतु
पहल पुरुष द्वारा विवेक पूर्ण युक्तियुक्त ढंग से नकार दी जाती है अन्यथा तो पुरुष
की नारी के प्रति गिद्द दृष्टि से कौन अनभिज्ञ है । इसी क्रम में एक अन्य
प्राध्यापिका मित्र नीता का भी अपने पड़ौसी डॉ. की ओर झुकाव होना व उसकी ही दत्तक
पुत्री द्वारा नकारात्मक रवैया दर्शाए जाने पर अपने अरमानों को दबाते हुए दर्शाया
है जो कहीं न कहीं मर्यादा को एवं संस्कारों को भी प्रमुखता से स्थान देता हुआ नज़र
आता है। हर पात्र के जरिये बहुत गहरे संदेश देने का प्रयास किया गया है
कहानी में हर छोटे बड़े मुद्दे को उसके अनुरूप उपयुक्त जगह मिली है फिर चाहे बात मां की कैंसर के इलाज को जाने से लेकर एवं उनके निधन के पश्चात स्वयं की बिखरती ज़िंदगी, हॉस्टलों के , आंटी के व बुआ के घरों के बीच सामंजस्य बिठलाती ज़िंदगी, जैसे हर विषय में इतनी सहजता से लिखा गया है , ऐसे खुलकर बात करती हैं मानो किसी बेहद करीबी के सामने कोई दिल की बाते कह रहा हो , वहीं बुआ की सास के आने पर उस घर में अपने अनुभव व दादी वगैरह के पति बुआ का व्यवहार वास्तविकता के बेहद करीब खड़ा करता है एवं अपनी समग्रता में मन को उद्वेलित करता है ।
कालेज के सबके प्रिय
एवं सहयोगी स्वभाव वाले मैनेजर को जब मैनेजमेंट द्वारा अचानक हटा दिया गया तो वह
सभी के लिए एक चौंकाने वाली खबर थी, किन्तु पश्चातवर्ती मैनेजर के द्वारा सभी का
दिल जीत कर सबके सहयोग से काम किया गया, वहीं मीनाक्षी का प्रो.उदय से प्रेम और
विवाह एक विस्फोट कर देता है उसी तारतम्य में जब मीनाक्षी का भाई मीनाक्षी की सभी
सहेलियों को घर बुलाते है उस खंड विशेष में विभिन्न पात्रों के माध्यम से इस स्थान
पर नारी मन की उहापोह को बहुत अच्छे से दर्शाया गया है ।
जहां मीनाक्षी की
सहेलियों पर अप्रत्यक्ष रूप से उसको सहयोग का लांक्षन आरोपित है तो वहीं मीनाक्षी
की स्वयं की मनोदशा जो एक ओर बहुत खुश है तो वहीं परिवार के आसन्न विरोध
को देखते हुए कुछ सशंकित भी। नारी विमर्श के इस खंड को देखें तो नारी स्वातंत्र्य
की बातें बहुत खोखली एवं समाज की सोच का स्तर बहुत संकुचित प्रतीत होता है ।
इस बात की ओट लेना कि
उदय जी विवाहित हैं (भले ही वास्तविकता में उनका वैवाहिक जीवन अपने सभी मायने खो
चुका हो एवं मृतप्राय ही हो ) अतः यह विवाह मान्य नहीं है , एक कारण पाठक के सोचने
हेतु छोड़ दिया गया है कि क्या सिर्फ रस्में पूरी कर देने को ही विवाह का दर्जा दे दिया
जाए जिसमें कोई भी एक पक्ष सिर्फ इसी लिये बन्धनों में जकड़ा रहे क्योंकि रस्में तो
हुई है एवं रस्मी तौर पर विवाहित होना अपनी जिंदगी को जी लेने हेतु एक अभिशाप समान
है।
कालेज की नई मैनेजमेंट कमेटी की अध्यक्ष का सम्पूर्ण स्टाफ के प्रति सदैव
ही कटु उपेक्षापूर्ण एवं अपमानजनक व्यवहार और उस पर सभी पुराने प्राध्यापकों
प्राचार्य इत्यादि की घुटन नारी विमर्श के एक और पहलू से परिचित करवाता है। जहां
एक ओर, स्टाफ को कालेज अपना घर जैसा ही लगता है जिससे वे शुरू से जुड़े रहे वहीं नई मैनेजमेंट कमेटी की तानाशाही नीतियां उन सभी को व्यथित करती हैं।
नायिका का यश से रिश्ता
एक नाम पाने के लिए सदा मोहताज़ रहा, संभवतः नायिका व यश दोनों ही आंटी अर्थात यश
की मां के तीव्र आभा मंडल में उलझ गए अथवा खुलकर किसी के भी द्वारा पहल न होना इस
रिश्ते का बनने के पहले ही खत्म हो जाना, एक कारण प्रतीत होता है।
यश के व्यवहार में भी अम्बिका
को लेकर कुछ स्पष्टता नज़र नहीं आई , सदैव एक अबूझ पहेली बनी रही । उसने कभी भी अपने प्रेम का न तो सन्देश दिया न
ही कोयो इशारा ज़ाहिर किया । कभी तो यूँ भी
लगा की कहीं यह सिर्फ नायिका का एक तरफ़ा
आकर्षण ही तो नहीं जिसे वह प्रेम मान कर यश के इंतज़ार में है। यश का कहीं न कहीं मात्र अम्बिका के मुंह से
अपने को शादी कहीं और कर लेने के अनुरोध को इतनी सहजता से मान जाना ऐसा प्रतीत
होता है मानो उसे सिर्फ इसी बात का इंतज़ार था, ताकि वह किसी भी अपराध
बोध से मुक्त रहे। बचपन का प्यार तो शायद था ही नहीं जबकि अम्बिका सदैव उसे मुट्ठी
में बंद रेत सी समेटती व सहेजती रही,जो फिसलती ही रही , एक भीनी खुशबू के अहसास सी, जो शनैः शनैः कब विलीन हो गयी पता ही नही चल
पाया ।
कृति किसी विशिष्ट
कथावस्तु को लेकर रचित प्रतीत नहीं होती, किन्तु शैली को देखते हुए आत्मकथ्य की
संभावनाओं को नकारना असंभव न सही तनिक कठिन अवश्य है। विभिन्न तरह से नारी मन की
चर्चा है, हर नारी पात्र को लेकर ।
शादी के बाद उदय जी से
संभवतः अपेक्षाएं पूरीं न होती देख मीनाक्षी का डिप्रेशन, या फिर नीता दी का चंदर
भाई को छोड़ जाना, या स्वयं को ही, यश की मां द्वारा एक बेहतरीन
चाल चलते हुए किसी और लड़की से शादी के लिए यश को राज़ी करने के लिए समझाने को कहना,
वही प्रबंधन की अध्यक्षा मिसेज़ चौधरी के द्वारा भी लेखिका ने नारी के एक अलग ही रूप और मानसिकता से परिचय करवाया
है। वहीं उदय जी व मीनाक्षी का उम्र का फर्क व उदय जी के बड़े भाई का वह घिनोना सच ,
एक समूह की मानसिकता, उत्पीड़न व तानाशाही रवैये के प्रति भीतर ही भीतर पनपता विरोध, छोटी
संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि अनेक विषय इस कथानक में उठाये गए हैं ।
नारी विमर्श अपनी पूरी शिद्ददत से उपस्थित है उसका
हर आयाम मौजूद है। शायद ही कोई पहलू छूटा हो जहां की नारी की भावनाओं को उकेरा न गया हो ।
साथ ही कालेज की गतिविधियों को भी अत्यंत विस्तार से रोमांचकता बनाये रखते हुए प्रस्तुत
किया गया है ।
सविनय
अतुल्य
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