Charlie Chaplin Ne Kaha Tha By Arun Arnav Khare

 

चार्ली चैप्लिन ने कहा था

द्वारा           : अरुण अर्णव  खरे

प्रकाशन : इण्डिया नेटबुक्स


शीर्षक :-

कोरोना की भयानक त्रासदी से बमुश्किल ही कोई शख्स अनछुआ  रहा हो, अमूमन  उस दौर की मुश्किलात से हर कोई दो चार हुआ किन्तु अरुण अर्णव खरे जी ने एक लेखक मन ने उसको और गहराई से जाकर देखा समझा, तो उन्हें कहीं इंसानियत नज़र आई,  कहीं सौहार्द और आपसी भाई चारा और मानवता ,पर  सबसे अहम् ये, कि   इस सबके बीच जिंदादिली भी हमेशा  बरक़रार रही ।  ऐसी ही जिंदादिली बरक़रार रखने की महान  हास्य सम्राट चार्ली चेपलिन की कही हुयी बात कि “हँस  लो तो सारा तनाव गायब हो जाता है सोचने समझने की शक्ति बढ़ जाती है”   याद रख खुश बने रहने वाले लोग भी थे । उसी प्रेरणा दायक सन्देश को पुस्तक के शीर्षक हेतु चुना है।


                       

क्यूँ पढ़ें:-

“चार्ली चैप्लिन ने कहा था” ख्यातिलब्ध लेखक एवं स्थापित व  मशहूर व्यंग्यकार अरुण अर्णव खरे जी की एक बेहतरीन कृति है, जो की कोरोना काल की विभीषिका के पश्चात मानव मन की भिन्न भिन्न दशाओं  को  कहानी के माध्यम से सहज व सरल तरीके से  सुंदर कथानक के साथ दर्शाती है और सहज ही कुछ सोचने को मजबूर करती है ।

न तो यह कोरोना की घटनाओं का चित्रण है न ही उस विभीषिका को याद दिलाने की कोशिश, यह तो  बस एक प्रयास है मानव मन को थोड़ा सा अंदर झांक के देखने का जिसमें वे बहुत बहुत ज्यादा कामयाब  भी हुए हैं और कहानियों के माध्यम से हमारे सामने कई ऐसे आयाम खुल कर सामने आये जिसे हमने विभीषिका के दौरान देखा तो था किन्तु शायद समझा नहीं था। 

कथाकार:-

अरुण अर्णव खरे ता-उम्र एक इंजीनियर के दायित्व निभाते हुए साहित्य सृजन में भी सक्रिय रहे हैं, आज विशेषतौर पर वे व्यंग्य के क्षेत्र में चिरपरिचित व सशक्त हस्ताक्षर हैं हालांकि उन्होंने साहित्य की हर विधा को अपने योगदान से समृद्ध किया है।   उनके विभिन्न कहानी संग्रह जैसे ‘पीले हाफ पेंट  वाली लड़की”, “उफ्फ ये एप्प के झमेले”, “कोचिंग@कोटा” एवं “मेरे प्रतिनिधि हास्य व्यंग्य”   बेहद चर्चित हुए व साहित्य प्रेमियों द्वारा बहुत सराहे गए।  “चार्ली चैप्लिन ने कहा था’ भी उनका कोरोना महामारी गुजरने के बाद  लिखा गया कहानी संग्रह है।        उनकी रचनाएँ देश की लगभग हर पत्रिका  में प्रकाशित होती  रहती हैं  व्यंग्य उपन्यास,  साझा संकलन,  लघुकथा संकलन इत्यादि जिनकी फेहरिस्त काफी लंबी है पर्याप्त चर्चित हुए हैं एवं उनकी पुरुस्कृत रचनाओं एवं विभिन्न पुरुस्कारों की फेहरिस्त भी खासी लम्बी है जो की उनके सक्रीय एवं सराहनीय योगदान को दर्शाती है।


 

भाव,  भाषा शैली :-

पुस्तक किसी विशिष्ठ भाव , शैली अथवा  रूप रेखा के दायरों में रखकर  लिखी गयी हो ऐसा तो प्रतीत नहीं होता।                       साधारण शब्दावली है, किन्तु कहीं कहीं चुनिन्दा वाक्यांश भी हैं जो कथ्य को और अधिक सुन्दरता प्रदान कर देते हैं।                         अधिकतर  कहानियां  सामान्य बोलचाल के लहजे में ही हैं मानो कोई आपके समक्ष किसी घटना का विवरण रख रहा हो। उस घटना  से जुड़ी कोई बात बता रहा हो।  न तो कठिन शब्दों का ज़खीरा खड़ा  किया है न ही सुन्दरता बढाने  के लिए विशेषणों का आयात । विषय से संबधित पूर्ण जानकारी रखने के बाद ही उस पर लिखा गया है जैसे ओलम्पिक खेलों की प्रतिभागिता से सम्बंधित कहानी “विश्वासघात” में खेलों के विषय में पूर्ण जानकारी उनके कथानक में  स्पष्ट होती है।                       

पुस्तक चर्चा :-

पहला पॉज़िटिव:-

जीवन शैली में अचानक आये आमूल चूल परिवर्तनों से अस्तव्यस्त हुयी सामान्य जिंदगियां,   उस वक्त एवं माहौल के परिप्रेक्ष्य में दैनन्दिनी में अनिक्षा से हुए  परिवर्तन, कुछ प्राथमिकतायें,  जो पीछे धकेल दी गयी बेशक वे अनिवार्य थी, और कई गैर ज़रूरी मशरूफियतें  जो वक्ती तौर  पर ज़रुरत बन कर उभरी । कुछ कार्य जोड़े गए तो   कुछ को एक अनिश्चितता के साए में  पीछे धकेल दिया गया साथ ही  मानवीय संवेदनाएं और  सामाजिक रिश्तों के कई भिन्न भिन्न रंग भी देखे गए। कोरोना की दहशत किस कदर हर शख़्स को परेशान कर गयी,दर्शाते हुए पुराने आपसी  रिश्तों को भी महामारी के साये में दरकते हुए देखा है।  सुंदर कथानक के साथ सहज शैली  में दर्स्य है कि  कैसे व्यकि स्वार्थ से वशीभूत हो  पुराने से पुराने रिश्ते भी भुला बैठता है  पर कोई देवदूत सामान प्रगट होता है जो हर संभव मदद कर जाता है और  उसके किये कार्य के पश्चात ग्लानि होती है। जिस महिला  के प्रति दिल में नफरत का भाव था उन्हीं ने प्यार का संदेश दे कर मानवता,  प्रेम व सद्भाव के साथ जीवन जीने का तरीका बतलाते हुए , स्वार्थ और संकुचित मानसिकता वाली सोच से उपर उठ कर सोचने की आवश्यकता पर बल दिया है।     विभीषिका का चित्रण और दहशत सांकेतिक रूप  से करने के बावजूद  वे यादें ही हिला देने को काफी हैं।                      

जॉटर  रिफिल पेन :-

कहानी की शुरुआत है स्कूल के दिनों की किसी घमंडी सी सहपाठी लड़की के रवैये को याद करते हुए की अब उसने ई-मेल क्यों भेजा , बचपन में  अपने साथ उस घमंडी लड़की द्वारा किये गए  भावनात्मक क्रूरता वाले व्यव्हार से उसके  खिलाफ उठते मन के ज़ज़्बातों का चित्रण  है वहीं  अंत में कैसे व्यकि की एक माफी भारी बात सारे गिले शिकवे दूर कर  देती है दिखलाया है। घटनाक्रम सहज रूप से बिना किसी विशिष्ठ विषय को केन्द्रित करते हुए मानसिक अवस्थाओं का चित्रण दिखलाता है।

चार्ली चैप्लिन ने कहा था :-

कहानी कोरोना काल के दौरान लॉक डाउन में सुदूर शहरों में पढ़ने गए बच्चों की  समस्या को दर्शाने  से शुरू होती है जहां बच्चे  एक दूसरे के लिए सहारा बन कर खड़े है व हर मुश्किल से साथ में निपटने का जज़्बा रखते हैं।  कहानी का अंत झकझोर जाता है जब मानवीयता पर स्वार्थपरकता और हावी हो जाती है तथा एक बच्ची  के पिता अकेले उसे ही लेकर चले जाते है जबकि वह सब के साथ ही जाना चाहती है बच्चों के निश्छल व्यवहार पर नेता पिता का यह व्यवहार व उस बच्ची की वही चार्ली चैप्लिन वाली हंसी जहां एक ओर कठिन से कठिन  मुश्किलों के दौर में भी जिंदादिली से  जीवन जीने का संदेश देती है वही मुश्किल घड़ी में स्वार्थी  समाज की पहचान भी बताती है।  खरे जी की यह कहानी एक साथ तमाम बिंदुओं पर सशक्त प्रहार करती है ।

विश्वासघात:-

 कहानी है  सफलता की चाह में कुछ भी कर गुजरने को तैयार एक ऐसे कोच की जो ओलंपिक गेम्स में अपने शिष्य को ले जाने हेतु कैसे किसी दूसरे प्रतिभावान खिलाड़ी को गलत हथकंडे अपनाकर व खेलों के अंदरखाने राजनीति के चलते अपने कलुषित मंसूबों में कामयाब होता है किंतु कुदरत अपना  करिश्मा दिखाती हैक्योंकि उसके दरबार में अन्याय नहीं है देरभले हो। खेलों के विषय में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करते हुए सम्पूर्ण खुराफातों का बहुत अच्छा वर्णन किया है वहीं विपत्ति में अपने किये पर पछतावा और मुश्किल दौर में सच को स्वीकार लेने की मानसिकता दिखलाती है। सरल व सहज वाक्यांशों के साथ  सुंदर भाषा शैली है सामान्य घटनाक्रम का सरल प्रवाह  है घटनाएं स्वयं ही दृश्यों संग् प्रस्तुत हो जाती हैं ।

यात्रा:-

 कोरोना काल में प्रवासी मज़दूरों द्वारा हज़ारों किलोमीटर चल कर घर  पहुचने की दास्तान महामारी की विभीषिका को सबसे सटीक रूप से बयान करती है। हर किस्म की मुश्किलें व अभावों के बीच पीड़ा झेलते मजदूर परिवारों का वास्तविक से बेहतर चित्र प्रस्तुत किया है कुछ दृश्य तो इतने अधिक मार्मिक एवं वास्तविक बन पड़े है मानो लेखक ने आंखों देखा वर्णन लिख दिया हो।  उसी दौर में एक सत्य घटना पर आधारित कथानक है जहां एक किशोरी अपने पिता को साइकिल पर इस लंबे सफर से ले कर घर पहुचती है। यात्रा के दौरान कुछ आपसी सहयोग की तो कुछ अप्रिय घटनाएँ भी जोड़ी गयी हैं  । लेखन की दृष्टि से कुछ जोड़ घटाव किये है किंतु हनीफ नाम के बालक का चरित्र कहानी में बहुत सुंदर बन पड़ा है एवं वास्तविक ही प्रतीत होता है जब तक कि अंत हमें चौंका नहीं देता ।

साझा संस्कार :-

बेहद समसामयिक,  कठिन हालात के बीच भी  साम्प्रदायिकता फैलाने से बाज़ न आते वैमनस्य फ़ैलाना  चाहते कट्टरपंथी खुराफाती, कुछ असामाजिक तत्वों के मुंह पर तमाचा है।                         

जहाँ आपसी सौहार्द एवं भाईचारा इतना घनिष्ठ था की पीढ़ी दर पीढ़ी व ही प्रेम दोनों मित्र जो कि भिन्न समुदाय से सम्बंधित हैं , उनके  बीच चला  आ रहा था ।  जिसे कुछ तत्वों ने बिगाड़ने का प्रयास किया था किन्तु संस्कारों की डोर इतनी मज़बूत थी की वे उसे तोड़ न सके।                       

एक सकारात्मक सन्देश देती कहानी है।  प्रारंभ में ही मुंशी  प्रेमचंद का उल्लेख कहानी की दिशा दर्शा गया । सांप्रदायिकता को मुख्य विषय रूप में लेकर भी अत्यंत सधी,  मर्यादित भाषा का प्रयोग किया है।                         

उपकार:-

छोटी किन्तु सारगर्भित कहानी है “उपकार” जो की घर में काम करने वाली महिला के कठिन जीवन को दर्शाती है जिसका पति कोरोना के दौर में भी उसका सहयोग नहीं करता किन्तु फिर भी कहीं व्यर्थ के दुखड़ों भरी कहानी अथवा विलाप या सम्ब्वेदना पाने हेतु अधिरोपित प्रयास नहीं हैं ।  उपकार शब्द कब किस के लिए किस मायने से होता यह भी देखने का नजरिया ही है।

 काम वाली , उसकी बच्ची को महिला  के द्वारा अपने घर रखने को उनका उपकार मानती हैं जबकि वह तो उस महिला की आवश्यकता थी और उस बच्ची का वहां रहना उनके लिए  उपकार से कम तो नहीं है।  एक नजरिया प्रस्तुत किया है।                        

लॉकडाउन वरदान कथा   :-

एक  बहुत ही प्रेरक एवं सकारात्मक संदेश देती हुई कहानी जो काश वास्तविकता भी हो। मुख्यतः शराबखोरी की बुराई से घिरे परिवार के मुखिया के  कारण सम्पूर्ण परिवार का तनाव व तंगी से जूझना, और जब  वही व्यक्ति अपनी बेटी की प्रेरणा पर लॉकडाउन के दौरान शराब से विमुख हो घर परिवार के संग  समय बिताता है, कुछ नया व्  सकारात्मक करता है एवं परिवार के विषय में सोचने लगता है तो सारे परिवार को जैसे नया जीवन मिल जाता है। 

बहुत ही मर्मस्पर्शी कथन है उस व्यक्ति की बेटी के जो कहती है कि “लॉकडाउन न  खुले,  आज तो मुझे अपना बापू मिला है”। लॉकडाउन तो हर किसी के लिए नकारत्मकता ही लेकर आया।   लेखक ने सकारात्मक दृष्टि से इस पक्ष  को देखा  व प्रस्तुत किया है जो कि निश्चय ही सराहनीय है ।

 

उदास क्यों रहती है जोजो :-

अत्यंत   भावनात्मक,  युवती की  मानसिक अवस्थाओं का, मन में चल रही आंधियों  का अच्छा विश्लेषण करने में कामयाब हुए है। कहानी एक चर्च में पलकर बड़ी हुई अनाथ लड़की की है जो नही जानती की वह अनाथ है अथवा किसी बलात्कारी के कृत्य की सज़ा और इन्हीं  विचारों से जूझती रहती है सदा । किंतु टूट  जाती है जब उसका मित्र, जिसे वह अपना बेहद करीबी समझती है , उसकी भावनाओं से हटकर उसके शरीर को भोगने की इक्षा दर्शाते हुए  अपना मर्द  वाला चेहरा उसके सामने रखता है जिस से वह बिखर जाती है किन्तु उसका इस बिखराव से बाहर आना व मदर का उसे संभलने में बहुत सावधानी पूर्वक मानसिक रूप से परेशान युवती को संभाल लेने का बेहद सधे हुए अंदाज़ में विस्तृत चित्रण प्रस्तुत किया है।

 

सद्गति :-

आज भी समाज में विजातीय विवाह को अलग ही माना  जाता है व इसे सामान्य विवाह के जैसी मान्यता नहीं मिल सकी हैं । उच्च पदस्थ होने के बावजूद भी समाज से,  परिवार से,  तिरिस्कृत होना पड़ा किन्तु दम्पति सदा  अच्छे इंसान बने रहे और अंततः सबका हृदय परिवर्तन करने में सफल रहे है कुछ हद तक कोरोना पॉजिटिव होने का भी  प्रभाव  रहा। बहुत प्रभावित तो नही करती कहानी। कैसे अचानक नायक की सासू माँ का  पत्नी के देहांत के कई सालों बाद  हृदय परिवर्तन हुआ और गांव में नायक के बड़े भाई का भीम, यह स्पष्ट नही किया । हाँ सद्गति शब्द का अच्छा अर्थ प्रस्तुत कर सके हैं।

 

ऋण :-

विजातीय प्रेम विवाह को मुद्दा बनाकर  ज़मीदारी अहम के चलते सगी बहन का त्याग कर, यहाँ  तक कि उसकी भेजी राखी भी  न स्वीकार करने वाले, तथा  बालपन में ही अपनी ठाकुरायसी के चलते नोकर को मार मार कर अपाहिज बना देने वाले बड़े ठाकुर,  जब स्वयं कोरोना ग्रसित हुए और उस गंभीर हालत में उनके अपने ही काम आए उनकी मानवता,  सहृदयता दर्शाती है व  मानवता का रंग बिखेरती है नौकर  का स्वयं को उनका ऋणी मानना कहीं न कहीं मानसिक दासता  भी दर्शाता है जो अब के समाज में हमारी लघुतर व कुंठित सोच को दर्शाता है ।

 

समीक्षित टिप्पणी कोरोना की विभीषिका, एवं उसके आम जन जीवन पर पड़े ऋणात्मक प्रभाव को लेखक ने बहुत ही सारगर्भित,  सरल वाक्यांशों में बयां किया है।                

·         अधिकांश कहानीयां न चाहते हुए भी मन मस्तिष्क को उस दौर में ले जाती हैं ,जहाँ शायद कोई भी  दोबारा न तो जाना चाहेगा न ही अनुभव करना चाहेगा। पूरा चित्र सामने आ जाता है जैसे की कहानी “यात्रा’ में। पाठक  को सम्बद्ध करने में पूर्ण सफल रहे हैं                     

·         कहानियों में कहीं भी  अनर्गल प्रलाप या विभीषिका को दर्शाती टिप्पणियाँ या बेवज़ह  कथानक को विस्तार देने के प्रयास लक्षित नहीं होते                     

·         प्रत्येक  कहानी हमें बुरे दौर से बहार निकल कर सोचने की  दिशा तो  देती ही है कुछ सन्देश भी दे जाती है।                 

·         सुन्दर,  पठनीय, सारगर्भित  पुस्तक।                 

·         क्षेत्रीय भाषा का अत्यंत ख़ूबसूरती से प्रयोग किया है जो कथानक को और भी जीवंत एवं वास्तविकता के बेहद करीब  ले जाता है।                        

सविनय

अतुल्य  

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