Ganga Se Kaveri By Shailendra Chauhan

 

गंगा से कावेरी

द्वारा      : शैलेन्द्र चौहान
प्रकाशक : मंथन प्रकाशन

शीर्षक:-

शैलेन्द्र चौहान जी की प्रस्तुति “गंगा से कावेरी” उनकी   चुनिन्दा कहानियों का संग्रह है, जो शैलेन्द्र जी की भावनाओं की अभिव्यक्ति की उनकी बेलौस एवं  निराली शैली से, बहुत करीब से मिलवाती है। कथा संग्रह में एक खूबसूरत,  विचारों के झंझावत से गुजरती,  समान नाम की कहानी भी है एवं उसे ही प्रमुखता देते हुए संग्रह के शीर्षक हेतु चयन करा गया है।


क्यों पढ़ें :-

         यदि विषय के चयन हेतु बाध्यता न हो,न ही    कुछ विशिष्ठ पूर्वाग्रह ग्रसित सोच , किन्तु कुछ अच्छा पढ़ने का विचार भी हो , तो अपने आस पास की, बिना विशिष्ठ विषय के भी  कुछ विषय अपने आप में ही समेटे हुए , कुछ बातें , कुछ स्तरीय कृतियाँ , बाद में भले ही उन्हें  कहानी कह दीजियेगा, बस वही शैलेन्द्र जी की यह पुस्तक है।

कथाकार :-

             जीवन पर्यंत आजीविका के सिलसिले में यायावर बन इंजीनियरिंग सेवा के चलते देश के तमाम हिस्सों से तजुर्बों का सागर समेट  कर अब मात्र लेखन एवं पत्रकारिता को समर्पित, वरिष्ठ साहित्यकार शैलेन्द्र चौहान, साहित्य जगत में अपनी स्पष्टोक्तियों एवं मुखरता के कारण बखूबी पहचाना जाने वाला नाम है। साहित्य जगत में उनकी सशक्त उपस्थिति काफी अरसे से है  उन्होंने श्रेष्ठ गद्य एवं उच्च कोटि की  पद्य रचनाएं दे कर साहित्य जगत में अमूल्य योगदान दिया है।



              उनकी विभिन्न रचनाएं समय समय पर विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रतिष्ठित पत्र  पत्रिकाओं में  ससम्मान प्रकाशित की गयीं एवं अपनी विशेष लेखन शैली तथा यथार्थ एवं कटु सत्य    कहने कि विलक्षण शैली  के कारण उन रचनाओं को पाठक वर्ग द्वारा  सराहा गया । कविता संग्रह, कहानी संग्रह उपन्यास के आलावा  आलोचना व सम्पादन का कार्य भी आपने किया है।

              साहित्यिक पत्रिका धरती के त्रिलोचन अंक, ग़ज़ल अंक, समकालीन कविता अंक, शील अंक, शलभ अंक इत्यादि का आपने संपादन भी किया जो की बेहद चर्चित रहे। अन्य विभिन्न पत्रिकाओं में भी आपने समय समय पर संपादन कार्य किया जो काफी सराहा गया। आप निरंतर ही सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रीय रूप से संलग्न बने रहे हैं।  

भाव :-

समीक्ष्य कथा संग्रह “गंगा से कावेरी” यूं तो कहानियों का संग्रह है किन्तु अपने विशिष्ठ भाव के कारण  उन्हें कहानियां कहना  उचित प्रतीत नहीं होता। क्यूंकि इन रचनाओं में यथार्थ ही परिलक्षित होता है जिसे अनुभव करने हेतु वही  संवेदनशीलता भी चाहिए जिसके साथ वह लिखी गयी है। ये उनके अपने जीवन के अनुभव है व कहीं कोई  बंधी लीक अथवा दायरों से घिरे शब्दों का संग्रह नहीं है।

संरचना, विषयवस्तु, शैली, भाषा, पात्र और संवाद में निरंतर परिवर्तन दीखता है। सब भिन्न भिन्न भाव हैं, जब जिस हालत में जो चरित्र जैसे मिले उन्हें बिना किसी लाग लपेट के ज्यो का त्यों प्रस्तुत कर दिया है, किसी मान्य विधा के नपे तुले पैमानों पर उनकी रचनाये कतई युक्तिसंगत नहीं बैठती। वे बिलकुल अलग ढंग की हैं। अपने परिवेश, मित्र, सहकर्मी, परिजन एवं सामाजिक परिवेश में उनके संपर्क में आये व्यक्ति ही उनके पात्र हैं          

उनके कथन की शैली, प्रवाह सहज एवं सरल, साहित्य मनीषियों द्वारा कहानी के लिए सुझाये गए आवश्यक अंगों के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है,  वे पल जो स्वयं ने जिये है उनका जीवंत परिचय कहानियों से मिलता है। कोई आयातित पात्र नहीं है, सामान्य घटना या रोज़मर्रा की ज़िंदगी ही कथानक बन गयी फिर उसी के इर्द गिर्द सारा किस्सा  बुना जाता है वह भी यथार्थ ही प्रतीत होता है।

पाठक से, शीघ्र ही करीबी संपर्क बना लेते हैं। पूर्व में उनके कविता संग्रह “सीने में फांस की तरह’  की शैली से बिल्कुल भिन्न शैली में सृजित कहानियां है। कविताओं में जहां अंदर की आग, तीक्ष्ण प्रतिक्रियाएं थी वहीं कहानियां सामान्य आम आदमी की ज़िंदगी से जुड़ी हैंकही सुपरमैन  अथवा बेचारगी की बात नहीं है। भावनाएं एवं विचार प्रमुखता से उभरते हैं लेखन की एक बानगी दर्शाती  इसी पुस्तक से यह चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं  :

“न ही भावनात्मक आकर्षण कोई क्रांति कर सकता है। एक क्षणिक विद्रोह वह अवश्य कर सकता है। शारीरिक आकर्षण ख़त्म हो जाने के बाद विद्रोह आत्म विद्रोह  का रूप ले लेता है। शादी और तलाक, क्रांति के बीज बस इन्हीं घटनाओं में तो निहित नहीं हैं। बल्कि क्रांति के बीज तो सामाजिक स्थितियों के दबाव के कारण  वैज्ञानिक समझ के विकास में बद्धमूल होते हैं। प्रेम इन स्थितियों को तेज या मंदा कर सकता है।“   


कुछ पुस्तक से:-

“हम भीख नहीं मांगते” :-

पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के उपरांत उपजी अराजक स्थितियों के बीच एक ओर मानवता की मिसाल पेश करते दृश्य हैं तो वहीं विकृत मानसिकता का परिचय  देते और भीड़ का कोई धर्म नहीं होता कि उक्ति को चरितार्थ करते कुछ वाक्यात भी पेश किए गए हैं। एक बुरा दौर था जो जैसे तैसे निपट गया किन्तु कहानी के अंत मे जहां  बलविंदर जी की खुद्दारी प्रभावित करती है वही उनकी  पत्नी की प्रतिक्रिया बहुत कुछ कह गयी। सामान्य किस्सागो की  सधी हुई भाषा  शैली  में घटना विवरण प्रस्तुत कर  दिया है।

कृष्नोत्सर्ग:-

मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों की सत्तर के दशक की स्थितियां  दर्शाती रचना है जहाँ छात्र जीवन से शुरू हो,  बेरोजगार होने से पहले ही, बेरोजगार रह  जाने की दहशत झेलता  युवा, जहाँ एक और उसकी मानसिकता है वहीं उसकी महत्वाकांक्षाएं, पारिवारिक स्थितियों की   फिक्र दर्शाती है। व्यक्ति केन्द्रित भावपूर्ण रचना है एवं उस दौर में शिक्षित होने के बावजूद बेरोजगार बने रहना अथवा योग्यतानुसार काम न मिलने की समस्या को प्रमुखता से उभारते हुए व्यवस्था पर तंज तो है ही वही युवा की जुझारू प्रवृत्ती भी कैसे शनैः शनैः कैसे दम तोड़ती है, व ही चित्र सामने रखा गया है।

संप्रति  अपौरुषेय:-

भ्रष्टाचार पर तीक्ष्ण कटाक्ष के साथ साथ मानवीय जीवन की विभिन्न मानसिक अवस्थाओं का, उल्लास, तनाव एवं अवसाद की स्थितियों का अच्छा विश्लेषणात्मक  वर्णन है। व्यक्ति विशेष के गुण अवगुण,  फिसलते हुए कदमों का बहकते जाना एवं उसके चलते  पारिवारिक जीवन का समाप्त हो जाना, भ्रष्टाचरण  से अर्जित अवैध कमाई के दुरूपयोग से जन्मी कुत्सित मनोवृत्तियां  फलस्वरूप, वैयक्तिक कुंठा का उत्त्पन्न होना, दाम्पत्य जीवन की खीझ, व्यक्तिगत असफलताओं की खीझ और असंतुष्टि को अन्यों को प्रताड़ित कर संतुष्टि का अनुभव करना जैसे तमाम विषयों को खूबसूरती से घटना क्रम में बांधा है।

  अंत रोचक है। यूं तो कहानी है किन्तु लिखने की विशेष शैली के चलते,  मात्र अपने अनुभव की अभिव्यक्ति ही नज़र आती है वर्णन ऐसा है  मानो सब कुछ उनके सामने घटित हो रहा हो। हालांकि कहानी बेहद सामान्य से कथानक एवं सरल सहज घटनाक्रम को लेकर बुनी गयी है किंतु कहानी अंत तक बांध  के रखती है

सामने वाला:-

आम माध्यम वर्गीय समाज की सामान्य से  जीवन में चल रही छोटी छोटी रोज़मर्रा की बातें, वहीं किसी व्यक्ति को  लेकर अपनी सुविधा एवं दृष्टिकोण  के हिसाब से उस के विषय में बदलती राय, पर आधारित कथानक है।

पड़ौसी पर  केंद्रित उसके जीवन के  दैनिक घटनाक्रम कैसे अनजाने ही  पड़ोसियों के लिए उत्सुकता का विषय हो जाते है बहुत सहज एवं रोचक प्रस्तुति है। आम आदमी की मानसिकता , थोड़ी ईर्ष्या थोड़ा परनिंदा सुख सभी कुछ है। संतुलित शब्दावली एवं व्यवस्थित वाक्य संयोजन है। क्लिष्ट शब्द विहीन सहज प्रवाह में रचित कृति है ।

बड़े भैया :-

50 के दशक को यादों के झरोखे से निकली कुछ यादों के बुलबुले से है जिनमें कहीं फिर से बचपन खोजती ज़िंदगी है तो कहीं मानवता एवं आपसी  सौहार्द के किस्सों की आज के कलुषित भेदभाव एवं मात्र स्वार्थोन्मुखी संबंधों से अनकही सी तुलना। यह न तो कहानी है न ही संस्मरण। किन्तु जैसा कि उन्होंने स्वयं भी कहा है कि पाठक अगर उस में स्वयं को खोजता है या खोज पाता है तो उस बिंदु तक पहुच जाना ही उनकी सफलता है।

दादी और जनवादी कहानी शिविर:-

कथा नायक को सम्मेलन में सहभागिता हेतु आने जाने के भाड़े का इंतज़ाम करने के लिए दादी को ले जाना पड़ता है चश्मा बनवाने के  बहाने, यथार्थ की स्पष्ट स्वीकारोक्ति है।

संक्षिप्त कथानक के साथ कुछ भी स्पष्ट रूप से न कहते हुए कहानी के अंत की पंक्ति में बुजुर्ग दादी का कथन की “तुम भी चाहते हो की डॉक्टर की तरह रहो, सबके साथ तुम भी तो वहां बाबु जी बन गए थे। अब काहे को  चिढ़ते हो”। कहीं न कहीं प्रगति एवं वैभ्वोंमुखी आंतरिक इक्षाओं को दर्शा जाता है।

“घिरे हैं हम सवाल से”:-

 ठेकेदारी प्रथा, मजदूरों का शोषण, यूनियन लीडर की दोगली नीतियां, छोटे छोटे हक़ के लिए बड़े बड़े संघर्ष करने को तैयार मजदूर, वहीं अनकहे प्रेम की परिणीति आदि विषयों को प्रमुखता से उठाया है, हालांकि किसी  समस्या का निस्तारण प्रस्तुत नहीं किया है किन्तु  चिंगारी ज़रूर जागृत  कर दी है

गंगा से कावेरी:-

यूँ तो यह एक लम्बी रेल यात्रा के दौरान मानसिक द्वंद से गुजरते हुए, मन में आते  भांति भांति के विचार, कुछ सम्बद्ध तो कुछ बिल्कुल ही अलग थलग निस्पृह से, सारे जतन करने के बावजूद मन अपनी सोचने की प्रक्रिया से बाहर नहीं आना चाह  रहा। कभी पत्नी व संभावित प्रेयसी की तुलना होती है तो कभी व्यवस्था पर तंज। विचारों की इस भीड़ से बाहर आने को जो उपन्यास खरीद किया जाता है हंसराज रहबर का “दिशाहीन”, वह भी उसे विचारों के झंझावत से निकलने के बजाए और अधिक उलझा  देते हैं।  रेलयात्रा के साथ साथ मन के विचारों की यात्रा सतत जारी रहती है। वे स्वयं ही लिखते हैं की न तो यह कोई घटना है न ही कहानी, बस एक ट्रेन है जो निरंतर चली जा रही है दाम्पत्य जीवन से कहीं कुछ असंतुष्ठी व् प्रेम की आस बार बार उभर कर आती है 

पोथी लिख लिख जग मुआ:-, खासा व्यंग्य है, सब कुछ जानते समझते निज स्वार्थ साधने एक दूसरे को छला जा रहा है और अंततः कितनी खूबसूरती से सच बना कर झूठ पेश कर दिए जाते है, कहीं न कहीं साहित्य जगत में भीतर खाने चल रही सामंजस्य बैठा कर अपनी स्थिति पुख्ता करने की रणनीतियों व् राजनितिक चालों  को उजागर भी कर ही देती है।

"लोक सेवक":- सहकारी बैंक के अध्य्क्ष पद  के चुनाव का दृश्य दिखलाने की आड़ में समाज में राजनीति के साथ फैली जोड़ तोड़ की भ्रष्ट राजनीतिक चालें  चलते रसूखदार और उस सब के बीच बर्दाश्त करता आम आदमी। अंत में दृश्य किस तरह से पलट जाते हैं उसका भी यथार्थ चित्रण प्रस्तुत कर दिया है

 

समीक्षात्मक टिप्पणी:

·    सीधी सरल बातें हैं जहां यह स्पष्ट ही दिखता है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास एवं विशिष्ठ आग्रह के  विचारों को शब्द दिए गए हैं

·    फ़ॉन्ट का अत्यंत बारीक एवं छोटा होना पढ़ने की सहज प्रक्रिया को किंचित  कष्टसाध्य कर देता है। आगामी संस्करण में ध्यान देने हेतु अपेक्षा है।

·    आसान सुन्दर सहज शब्दावली एवं वाक्य विन्यास कहानियों को रोचक एवं पठनीय बनाता है।

·    पाठक की कहानी के प्रति उत्सुकता बनाने में  पूर्ण सफल रहे हैं।

·    कहानियां अपने यथेष्ठ आकार की हैं। एक बैठक  में सहजता से पढ़ी जाने योग्य। 

·    अपने आस पास के परिवेश के चित्रण है।

·    पठनीय कथा संग्रह है।

सविनय,

अतुल्य 

 

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