Aalochna Ka Janpaksh By Ramesh Khatri
आलोचना का जनपक्ष
द्वारा : रमेश खत्री
प्रकाशक : मंथन प्रकाशन, जयपुर
शीर्षक :
प्रस्तुत
पुस्तक हिंदी साहित्य जगत में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कुछ विशिष्ट साहित्यकारों
की रचनाओं की विस्तृत समालोचना करते हुए चंद आलोचनात्मक लेखों का संग्रह है । अतः
शीर्षक सर्वथा युक्तियुक्त एवं तर्कसंगत है।
रचनाकार :
रचनाकार रमेश खत्री जी के विषय में बताता चलूं, खत्री जी की विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है वह काफी लंबे समय से साहित्य से जुड़े हुए हैं एवं पूर्व में भी उन्होंने आकाशवाणी को अपनी सेवाएं दी जिसको हम साहित्य से जुड़ा हुआ होना ही मानते हैं
उनके विभिन्न कहानी संग्रह जैसे “साक्षात्कार” “देहरी के इधर-उधर” ‘”महायात्रा” ,”ढलान के उस तरफ”, “इक्कीस कहानियां” आदि प्रकाशित हुए हैं वही कहानी संग्रह “घर की तलाश” आलोचना ग्रंथ “आलोचना का अरण्य” व उपन्यास “इस मोड़ से आगे” और “यह रास्ता कहीं नहीं जाता” हैं वहीं नाटक ‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे” उनके प्रकाशित साहित्य है। साथ ही लोक कथाएं परी कथाएं संपादन इत्यादि के कार्य में भी वे निरंतर लगे हुए हैं तथा साहित्य की उनकी सेवाओं हेतु उन्हें पुरस्कार भी प्रदान किए जा चुके हैं
पुस्तक के विषय में:-
आगे चलने से पूर्व आलोचना के विषय में चंद
भ्रांतियां, जो की निंदा , आलोचना, एवं समीक्षा को लेकर है उनके विषय में स्पष्ट
करना उचित होगा, अधिकतर इन्हें समानार्थी समझ कर प्रयुक्त किया जाता है, यहाँ
आलोचना क्या है उस पर स्पष्ट करता चलूँ की शब्द ‘लोचन’, में जब ‘आ’
प्रत्यय हुआ तो वह आलोचन हो गया। लोचन का अर्थ है देखना। इसी से
आलोचना शब्द की उत्पत्ति होती है। आलोचना में गुण और अवगुण दोनों शामिल होते हैं।
जब एक व्यक्ति किसी
दूसरे व्यक्ति वस्तु अथवा विषय को तटस्थ हो करके लोचन करता अर्थात देखता है उसके
व्यक्तित्व को परखता है, परीक्षण
करता है, उसके गुण-अवगुण को एक तुला पर तोलता है ,तब वह आलोचक है और यह कृत्य उस अवस्था में आलोचना बन जाता है। इस
दृष्टिकोण से देखने वाला व्यक्ति आलोच्य के प्रति
सुधारक भाव रखता है। उसके हृदय में कुछ ऐसे भाव होते हैं कि यदि यह कार्य इस प्रकार हो तो बेहतर हो सकता है।
इस प्रकार आलोचना एक बेहतरीन परिणाम की ओर लेकर चलने के लिए प्रेरित करती है। यद्यपि समालोचना में ‘सम’ लग जाने का अभिप्राय सम्यक आलोचन है, अर्थात विचार पूर्वक आलोचना करना। अभिप्राय है कि समालोचना में ध्यान रहे कि जिस व्यक्ति विषय या वस्तु के बारे में कुछ लिख, पढ़ या बोला जा रहा है वह उसके गुण-अवगुण का सम्यक अवलोकन कराने में सहायक हो। ऐसा ना हो कि किसी की आलोचना को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत कर दिया जावे एवं ऐसा भी ना हो कि उसके गुणों का अपेक्षा से अधिक बखान हो। विधिक रुप से पूर्णतया नपी तुली बातों में जो जैसा है उसको वैसा ही प्रस्तुत करना समालोचना कहलाती है। आलोचना समालोचना को इसी दृष्टिकोण से समझना चाहिए।
समीक्षाधीन
पुस्तक ‘आलोचना का जनपक्ष” यूं तो विभिन्न उच्च कोटि के साहित्यकारों द्वारा रचित
उनकी श्रेष्ठ रचनाओं की समीक्षा प्रस्तुत करने वाले लेखों का संग्रह है, किंतु पुस्तक को किन्हीं विशेष
खंड अथवा विभागों इत्यादि में विभाजित नहीं किया गया है यथा कविताएं कहानियां
आलोचना इत्यादि। पुस्तक की शुरुआत
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी से होती है आगे जाकर केदारनाथ अग्रवाल, महादेवी
वर्मा, चंद्रकांत देवताले, इत्यादि और भी अन्य प्रमुख साहित्यकारों की रचनाओं की समीक्षा पुस्तक में
विस्तृत रूप से की गई है । आगे हम रचनाकारों
के विषय में एवं उनकी रचनाओं की रमेश जी द्वारा
की गई समीक्षा की प्रस्तुति देखेंगे ।
पुस्तक को जैसा मैंने समझा :-
किसी पुस्तक की समीक्षा तो विभिन्न समीक्षकों द्वारा की जा सकती
है, एवं ऐसा किया जाना उचित भी है क्योंकि प्रत्येक समीक्षक पुस्तक को अपने नजरिए
से देख कर उस पर अपने विचार रखता है, किंतु समीक्षा जो किसी समीक्षक अथवा वरिष्ठ
साहित्यकार द्वारा प्रस्तुत की जा चुकी हो
उस समीक्षा की समीक्षा करना उस समीक्षक की क्षमताओं को निचले स्तर का आंकना अथवा कहीं ना कहीं प्रतिभा
का अपमान करने जैसा प्रतीत होता है जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि समीक्षा की समीक्षा
करना मैं उचित नहीं मानता साथ ही अति वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा की गई समीक्षा की
पुनर्समीक्षा करने की धृष्टता मैं नही कर सकता, जो कि उनके स्तर एवं ज्ञान की
तौहीन करने सामान होगा। इसकी अपेक्षा मैं पुस्तक की समीक्षा से सम्बंधित चंद
विशेष बाते जो उन्होंने अपनी समीक्षा में चिन्हित करी हैं एवं चंद खासियतें जो
मैंने अनुभव करीं आपसे साझा करता हूँ :
पुस्तक की शुरुआत सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जी से करी गयी है । उन्हें करुणा को अमृत
में बदलने वाला कवि निरूपित करते हुए उनकी रचनाओं पर , उनके
समकालीन अन्य साहित्यकारों द्वारा उन की रचनाओं पर, लेखन
शैली पर की गई टिप्पणियां भी प्रस्तुत की हैं । वे लिखते हैं कि तुलसीदास के बाद
हिंदी साहित्य में निराला ही एक ऐसे कवि है, जिन्होंने भारतीय काव्य मनीषा को ठीक
से समझकर उसे युग अनुरूप प्रेरणादायी बनाया था। वे विभिन्न साहित्यकारों जैसे
आचार्य शुक्ल ,पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी , हजारी प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा निराला जी की कटु आलोचना को भी प्रस्तुत
करते हैं तो साथ ही उन्होंने अशोक वाजपेयी , अरुण कमल ,
प्रभाकर माचवे , डॉक्टर राम विलास शर्मा
इत्यादि द्वारा की गई सकारात्मक टिप्पणियों पर भी अपना अवलोकन रखा है ।
निराला
जी की शैली , उनकी
रचनाओं जैसे “कुकुरमुत्ता” पर भी विस्तार से चर्चा की है ।
वहीं नागार्जुन जी के लगभग 12 कविता
संग्रहों में से उन्होंने अपनी समीक्षा के लिए “खिचड़ी विप्लव देखा हमने” को
चुना है। इसमें वे समकालीन राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों के ऊपर भी नज़र रखते
हुए नागार्जुन जी की कविताओं की शैली का विस्तृत
विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे है नागार्जुन पर विस्तृत जानकारी चाहने वालों को बेहद सटीक एवं प्रमाणिक जानकारी इस लेख के द्वारा
उपलब्ध हो सकती है।
केदारनाथ अग्रवाल जी, हिंदी कविता में जिनका
योगदान अविस्मरणीय है उन्हें रमेश जी ने अपनी आलोचना हेतु चुना है, छायावाद के भंवर से निकलने के
बाद आधुनिकता का जो जामा हिंदी कविता ने पहना उसके कशीद-कारों में केदारनाथ जी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है । केदार जी वस्तुतः प्रेम के कवि हैं । उन्होंने पहला कविता संग्रह 1947
में “युग की गंगा” के नाम से लिखा था, शनै: शनै; नई कविता
के अग्रगण्य कवियों में स्थान पाते गए ।
समकालीन कवि शमशेर बहादुर सिंह उनके काव्य कर्म पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि केदार जिस खोज की तरफ बढ़ा है वह है समाज का सत्य और प्रकृति का खुला नैसर्गिक सौंदर्य । अन्याय के खिलाफ और मेहनत के पक्ष में बेझिझक बोलता है। उसके व्यंग्य में दोहरी तिहरी नहीं सीधे एक धार है मगर वही बहुत काफी है वह प्रकृति के सौंदर्य का रसपान करते चलते हैं, उनकी कविताओं में श्रृंगार और सौंदर्य के संस्कार परिवार से ही मिले थे जो उनकी रगों में समाकर अंत तक बने रहे।
कहना न होगा कि केदारनाथ अग्रवाल प्रेम को जीवन
मूल्य मानते थे तभी तो यह कहने की हिम्मत रखते थे गया विवाह में युवती लाने प्रेम व्याह
कर संग में लाया, क्योंकि यही एक ऐसी निधि है जो कभी सूखती नहीं , कभी चुकती नहीं, जितना इसे लुटाओ दिन रात चौगुनी
बढ़ती जाती है इसकी अकूत संपदा। तभी तो वे कहते हैं मैं प्रेम को जीवन का मूल्य
मानता हूं प्रेम मानवीय चेतना की परम उपलब्धि है इसे प्राप्त कर मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है प्रेम की
ऐसी विराटता जो मृत्यु को जीत ले ।
अगले चरण में आपने “हरी घास पर क्षण भर”
को लिया है जिसकी रचना की गई है सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय” के द्वारा।
हरी घास पर क्षण भर अज्ञेय जी का प्रयोगवादी कविताओं का ऐसा संकलन है जो समय
को फलांगता आज भी हमारे सम्मुख शरणार्थी
की भांति खड़ा दिखलाई देता है। वास्तव में
देखा जाए तो अज्ञेय की कविता में शिल्प की गुंजाईश तब और बढ़ जाती है जब उनके पास कहने को बहुत कम बचा
रहता है।
संग्रह की कविताओं में अभी अपनी व्यक्तिवादी सोच
के दायरे को विस्तार देते नजर आते हैं । देखा जाए तो प्रयोगवाद और नई कविता एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं यदि इस संदर्भ को ले तो अज्ञेय की कविता में प्रयोग का आशय उसके
लिए नई जमीन की तलाश करना था इसलिए उनकी रचनाएं अपने स्वरूप में विलक्षण नजर आती
है ।
अज्ञेय
पर यौन के प्रतीकों पर उलझने वाले
कवि होने का भी आक्षेप लगता रहा है वे कविता
को मनोविज्ञान के निकट ले गए और उसे उन्होंने संगीत और रस की चारदीवारी से बाहर
निकाला अज्ञेय अपनी कविताओं में शिल्प की नवीनता की खोज करते हैं । समग्र रूप से
देखा जाए तो कवि का यह संग्रह स्मृतियों
का चलचित्र है ।
नारी मन की कोमलता और गोपनता को गीतों में गूढता
से उतारने वाली महादेवी वर्मा जी पर अगली आलोचना लिखी गई है वे कहते हैं कि उनकी कविताओं का
काव्य फलक मानव मन के संस्कारों और नारी मन
के समर्पण का अद्भुत संयोग है।
महादेवी वर्मा जी का काल वह था जब की छायावाद अपने अवसान पर था और उसमें पसरा रहस्यवाद आधुनिकता का जामा पहन कर समय की तनी हुई रस्सी पर लगातार नृत्य कर रहा था । यह छायावाद का ही एक सोपान था जो महादेवी जी की कविताओं में छायावादी रहस्यवाद की तरह व्याप्त हो गया था।
जब हम आधुनिक हिंदी कविता की पड़ताल करते हैं तो
पाते हैं कि महादेवी जी के काव्य में वेदना
के जो विरल दृश्य हैं वे अद्भुत हैं उनके
काव्य में केवल वेदना या पीढ़ा ही नहीं है अपितु वे इसे विशेषण के साथ लेकर उपस्थित
हुयी। महादेवी जी की कविता का मूल स्वर
अन्तः स्थल की गतिविधियों का चित्रांकन है ।
महादेवी जी का अभाव भरा सा लगता है रोने की इच्छा होते
हुए भी मन में पुलक आलोड़ित होता रहता है ।
कविता दर्शन और चित्रकला का एक समवेत रूप उभरकर हमारे सामने आता है और इन भावों के सागर में हम डूब जाते हैं हमारे हाथ में जो मनके आते
हैं उनको जब हम टटोलते हैं तो पता चलता है
उनके काव्य में रस के सभी प्रमुख अवयव तो
विद्यमान हैं ही किन्तु फिर भी उनका वेदना
भाव अद्भुत है।
अमृतलाल नागर जी के प्रसिद्ध उपन्यास ”मानस का हंस” की विवेचना करते हुए उन्होंने लिखा है कि उपन्यास, हमें आनंद हमारे जीवन से ही ले कर देता है यह उपन्यास 1972 में प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के जीवन के विभिन्न पक्षों का असली चित्र प्रस्तुत किया था यह नागर जी का प्रौढ़ एवं परिष्कृत उपन्यास है । नागर जी के इस उपन्यास में अनेक सरस रोचक , मार्मिक, तथा अछूते प्रसंगों को समाहित कर तुलसी के जीवन के उदात्त विम्ब को खंडित होने से बचाया है। तुलसी के जीवन के अन्तः संघर्ष और बाह्य संघर्षों को चित्रित करने के लिए नागरजी ने तुलसीदास जी के पूर्ण तेजस्व और वर्चस्व पूर्ण जीवन की स्मृतियों का सहारा लिया और उनके लोक धर्मी रूप के* पक्ष को अपनी कल्पनाशीलता से उभारकर सर्व स्वीकार रूप में ढाल दिया।
अपने अगले लेख में लघु कथा की विधागत शास्त्रीयता के सम्मुख चुनौतियों के विषय में बात करते हुए वे कहते हैं कि मानव सभ्यता के विकास यानी कि आदि काल से ही कहानी कहने की परंपरा किसी ना किसी रूप में रही है लघु कथा, साहित्य की महत्वपूर्ण विधा है या कथा का अति उत्तम स्वरूप है जो त्वरित ही अपना असर दिखा देता है
आधुनिक कहानी का आरंभ 19वीं
सदी में हुआ था तथा हमें इसके जो व्यापक कालखंड नजर आते हैं स्वतंत्रता के पहले का
काल दूसरा स्वतंत्रता के पश्चातके हैं। आज
हिंदी साहित्य में लघुकथा स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है किन्तु
इसके मूल्यांकन हेतु कसौटियां अभी भी उपलब्ध नहीं
हैं।
पत्रकारिता की नई राह
रिपोतार्ज के विषय में बात करते हुए कहते हैं रिपोर्ताज एक प्रचलित विधा है जब हम साहित्य शब्द की
उत्पत्ति पर विचार करते हैं तो इसके इतिहास की ओर देखना भी जरूरी हो जाता है जब हम साहित्य रूपि सागर में डूबकी लगाते हैं तो इसके लक्षणों की व्याख्या करते हुए हमें यह ज्ञात होता है कि जिस प्रकार
से ईश्वर के अनेक रूप और अनेक नाम है उसी
प्रकार से यह भी अनेक नामों रूपों और संज्ञाओं
से विभूषित है। यूं तो रिपोर्ताज
पत्रकारिता की ही एक विधा है और इसे हम गद्य की सबसे नयी विधा भी कह सकते हैं। जब रिपोर्ताज के उद्देश्य पर विचार करते है तो ज्ञात होता है की जीवन सम्बन्धी
सूचनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए ही इस विधा का ज़न्म हुआ है
आगे उपेक्षित और वंचितों को संबोधित करती
कविताओं की पड़ताल करते हुए वे लीलाधर मंडलोई जी की कविता संग्रह “कवि ने कहा” का
जिक्र करते हैं जिसमें आदिवासी पीढ़ा , औद्योगिक मजदूर की उपस्थिति में कविता बनती संवरती
नज़र आती है । वे कहते हैं की कवि की अभिव्यक्ति का केन्द्रीय
भाव यथार्थ को विकराल रूप में प्रस्तुत काना मात्र नहीं है व इस संकलन में कवि की कुछ कवितायेँ सांप्रदायिक और वामपंथी सोच की और इशारा करती हुयी जान पड़ती हैं।
हिंदी के वरिष्ठ कवि ऋतुराज के कविता संग्रा
“आशा नाम नदी” उनकी आलोचना हेतु चुनी गयी अगली पुस्तक है जहाँ वे कहते है की कवि
के पास अपर अनुभव है जिसका वे भर पूर दोहन करते हैं और कुछ मानकों के रूप में
कवितायेँ निथरकर आती हैं । घोर निराशावाद एवं विकल्पहीन समय में भी कवि आशा का दमन
नहीं छोड़ते यही कारण है की उनके कविता
संग्रह में हम कविताओं का स्वर आशावादी पाते है।
अपनी आलोचना के क्रम में आगे भी उन्होंने
विभिन्न कवियों की श्रेष्ठ एवं चर्चित पुस्तकों का सूक्ष्म अवलोकन प्रस्तुत किया
है जी की निश्चय ही पठनीय एवं संग्रहणीय है साथ ही शोध कार्य में अत्यंत मददगार
साबित होगा।
सविनय
अतुल्य
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