Shabd-Shabd By Ram Pal Shrivastava
शब्द-शब्द
द्वारा
: राम पाल श्रीवास्तव “अनथक“
प्रकाशन:
समदर्शी प्रकाशन
“मेरी कविता आयास रचित नहीं
अनुभूत होती है
दुःख सुख वेदना और संवेदना की
प्रसूत होती है”
उक्त
पंक्तियों से अपनी पुस्तक “शब्द-शब्द” का
आरम्भ करने वाले, राम पाल श्रीवास्तव जी, साहित्य की विविध विधाओं में अपने उच्च
स्तरीय लेखन कार्य से निरंतर बहुमूल्य योगदान
दे रहे वरिष्ठ, तजुर्बेकार, लेखक, अनुवादक, पत्रकार एवं कवि जो की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से बतौर
संपादक जुड़कर अपनी साहित्य प्रतिभा से उन्हें गौरान्वित कर साहित्य के क्षेत्र में
अपना विशिष्ठ सहयोग दे रहे हैं, बतौर प्रधान संपादक एवं पत्रकारिता के अपने लम्बे तजुर्बों से बहुत कुछ
उन्होंने अर्जित किया एवं वह उनकी ओर से विभिन्न विधाओं में उनके द्वारा किये गए
सृजन से भेंट स्वरुप साहित्य को प्राप्त होता रहा है। उर्दू की विशिष्ट तालीम हासिल कर इस सुन्दर
भाषा पर भी अच्छा नियंत्रण रखते हैं एवं अपनी रचनाओं में खुलकर प्रयोग करने से भी
उन्हें कोई संकोच अथवा परहेज़ नहीं है, साथ ही कहना आप्रसंगिक न होगा की उनकी उर्दू
भाषा की निपुणता उनके काव्य एवं विभिन्न
रचनाओं को विशिष्ठ दर्ज़ा प्रदान करने में अहम् भूमिका निभाती है।
प्रस्तुत
पुस्तक “शब्द-शब्द” स्वयं उनके ही शब्दों में केवल संजोये हुए शब्द नहीं आत्म शोधन
का पड़ाव हैं। उनके स्तर पर पुस्तक को
प्रस्तुत करने में कहीं भी कोई उतावली नही बरती गयी है। बेहद शांत, शालीन एवं सौम्य, सुविचारित किन्तु
गंभीर प्रयास स्पष्ट लक्षित होता है। उनका
यह सधा हुआ प्रयास पुस्तक के प्रारंभ में ही ‘काव्य पीठिका’ अंश में विभिन्न
भाषाओँ के कविता में योगदान को दर्शाते उनके शोध एवं प्रस्तुतीकरण से स्पष्ट होता
है जहाँ उन्होंने विभिन्न भाषाओँ के उद्भव, विकास, मुख्य कवि, एवं रचनाओं का अत्यंत
सूक्ष्मता से सार्थक विश्लेषण प्रस्तुत करते
हुए कविता के विकास में उन भाषाओँ का योगदान विषय पर प्रकाश डाला है जो की उन सभी
भाषाओँ में कविता के क्षेत्र मे किये गए कार्य को दर्शाने का सफल प्रयास है। थोड़े में ही बहुत कुछ समेटते हुए गागर में सागर
प्रस्तुत कर दिया है। विभिन्न भाषाओँ के
प्रस्तुत उद्धरण अनूदित हैं जो की लेखन के प्रति उनके समर्पण एवं निष्ठां को दर्शाते
हैं एवं अपने आप में शोधार्थियों हेतु महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट खंड बन गया है। इस खंड को प्रस्तुत करने में किये गए उनके
प्रयास अवश्य ही उनके उपनाम ”अनथक” को सार्थक करते प्रतीत होते हैं।
'शब्द' ईश्वर की वाणी है बिना शब्द सिर्फ और सिर्फ शून्य ही है प्रस्तुत कविता संग्रह "शब्द - शब्द " में वरिष्ठ कवि राम पाल श्रीवास्तव 'अनथक' ने शब्दों के ज़रिए उसी सन्नाटे को दूर करने
की सफल कोशिश की है ।
“शब्द-शब्द”
एक वैचारिक क्रांति को जन्म देते कुछ गंभीर विचारों का संग्रह है जो कवि ह्रदय में
चल रहे बवंडर का शब्दांकन मात्र है कहीं न कहीं यह आत्म विश्लेषण की प्रक्रिया से
गुजरते हुए उत्पन्न भावों का शब्दांकन है।
गंभीर अनुभूति, संवेदना एवं वे अनुभव जो उनकी आत्मा ने किये आम अनुभवों के
एहसास से ऊपर उठ कर, इसे कविता कह देना
उन्मुक्त विचारों के मूल्यवान संग्रह को दायरे में बंधने जैसा होगा। किसी विषय या
घटना को केन्द्रित कर न लिखते हुए हर वह भाव विचार या संकेत चाहे प्रकृति का हो या
फिर मन के भावों का, उन्हें शब्द रूप में सम्मुख प्रस्तुत किया है। मूलतः भाव निहित है एवं शब्दों में निहित भावार्थ
अत्यंत गूढ़ एवं विशाल अर्थ समेटे हुए है जो की एक गंभीर वैचारिक आन्दोलन का स्पष्ट
आभास देते हैं।
यह
भाव प्रधान विचारों का प्रस्तुतीकरण विशिष्ठ ध्यानाकर्षण एवं सोच मांगता है अस्तु आम
जन हेतु या कहें हलकी फुलकी कविताओं से आनंदित होने वालों हेतु नहीं है। विशिष्ठ भाव
केन्द्रित है एवं सम्पूर्ण एकाग्रता तथा गंभीर चिंतन संग मनन करने हेतु विचार प्रस्तुत कर दिए हैं। न तो कहीं तुक-बंदी की फ़िक्र है न ही काफिया
मिलाने की चिंता, मन में विचार
जिस रूप में घुमड़ रहे हैं उसी रूप में अपने सम्पूर्ण प्रवाह में हमारे सम्मुख आ गए
हैं। किसी घटना विशेष अथवा विचार को ध्यान
में रख फिर उसके इर्द गिर्द कुछ लिखा जाना उनकी
शैली प्रतीत नहीं होती। विचार बिना किसी लाग-लपेट के जैसे उत्पन्न हो रहे हैं
बगैर किसी अलंकरण एवं प्रस्तुतीकरण हेतु किसी विशिष्ट सजावट के एवं पूर्णतः अपने
मूल स्वरुप में ही प्रस्तुत कर दिए गए हैं।
संग्रह
की पहली ही कविता प्रथम पंक्ति में ही प्रश्न करती है कि शब्द क्या है, और आगे शब्द
की विस्तृत व्याख्या करते हुए, शब्द को
कई विभिन्न रूपों में भिन्न भिन्न तरीकों से दर्शाया गया है। शब्द आत्मा का बंधन
है, शाश्वत है, ओंकार से वाहे गुरु तक भी शब्द ही है, दिलों तक पहुचने की राह है
शब्द, तो वहीं शब्द ह्रदय भेदी वाण भी हैं। “शब्द सत्य” में शब्दों के विषय में
कठोर सत्य से रूबरू कराते हुए कहते हैं कि
ये शब्द बड़े चतुर हैं बड़े विवेकी हैं वक्फे वक्फे (गरीबों एवं मानवता के लिए किये
गए दान, ज़कात) से जगी चेतना भी अपने अधीन रखते हैं ये
शब्द हैं ही ऐसे। पहले चुभते थे अब नहीं चुभते। रफ्ता रफ्ता (हौले-हौले) अलौकिक बन
जाते हैं, फिर बच जाता है एक ही सत्य, शाश्वत। वहीं “शब्द भर जीवन” में रीतने कि
प्रक्रिया में स्तानापन्न बनते हुए ये शब्द खो जाते हैं किसी अदृश्य जगत में:
सतत
प्रवाह है इनका
रीतते
/स्थानापन्न बनते
शांति
का पैगाम देते
स्थाई
वास है इनका
शब्द
कि व्याख्या करते हुए “मेरे शब्द जब सुनना” में बहुत सुन्दर आमंत्रण है कहते है की
जब मेरे शब्द सुनना चाहे जिस रूप में, ग़ज़ल हो या छंद, कविता हो या उपन्यास, तो ज़रूर
आना। चंद पंक्तियाँ देखें:
गूढ़ में लिखता नहीं कि कुछ न बन पाऊं
आकार
देता हूँ निराकार को,
फिर
निराकार निराकार लिखते लिखते
साकार
पुस्तक बन जाती है।
कितना
विश्वास और प्रेम भाव दिखलाती ये पंक्तियाँ रची गयी हैं की:
मुझे
पढने का वक्त निकलना, इसलिए,
हर
पन्ने खोल रखे हैं मैंने।
इस
आस में कि
यह
पुस्तक तुम पढ़ लोगी
उस
दिन मै धन्य हो जाऊंगा
अपने
आप से अपने प्रयास से
कविता
‘भाव-शब्द” में शब्द की एक व्याख्या और देखिये
यह
कैसा प्रछन्न भाव जो अब प्रणीत हुआ
कागज़
की नाव में अचानक संग्रहीत हुआ
ऐसे
आया भाव-शब्द जब बारम्बार अनुनीत हुआ
ऐसे
ही “मैं कभी नहीं लिख पाउँगा वह कविता” में वृक्ष के त्याग और महिमा का सुंदर
वर्णसं करते हुए एवं उसे ही साक्षात् ईश्वर मान
कहते हैं कि:
वह
कविता जो वृक्ष के सदृश है
जिसके
भूखे अधर लपलपा रहे
धरा
स्वेदन-पान को आतुर
वह
वृक्ष जिसके सब मोहताज़ हैं
ऐसे
वृक्ष को ईश्वर ही रच सकता है।
एवं
अंत देखिये कि
क्या
और कोई रच सकता है अपने आप को?
इस कविता में अमेरिकी कवि Joyce Kilmer की कविता Trees
के आंशिक भाव का समावेश है। जो की 1914 में
कवि के काव्य – संग्रह Trees and other
Poems में प्रकाशित हुई थी। साथ ही वरिष्ठ हिन्दी कवि ज्ञान सिंह
मान की कविता ” राम ! तुम्हारा नाम ” से
अनुप्राणित है, जिसमें वे कहते हैं – ” राम !/ कभी तुम्हारा/ नाम/ स्वयं काव्य था।”
वृक्ष
को ईश्वर सदृश मान कर शीर्ष पर विराजमान कर दिया है। फिर बात जब आई अस्तित्व कि तब अस्तित्व में आती
है रचना “मेरा अस्तित्व’ और तब स्मरण हुआ
कि जीवन भर जिस के पाने की, जिसे संजोने कि चेष्ठा में प्रयास किये अंततः वही बिखर गया किन्तु कोशिश
फिर भी है अपने टूटते बिखरते अस्तित्व को समेटे रखने की तब तक, जब तक है
अस्तित्त्व।
आध्त्मिकता
का बोध कराती है कविता “चलते जाइये जहाँ ले जाएँ ये हवाएं” जहाँ स्वयं को शाख से
बिछुड़े सूखे पत्ते के सदृश मान हवाओं के संग बढ़ते रहने को ही सार मानते हैं
क्यूंकि उसके पीछे सोच है की हवाएं परमार्थ की और ले जाती है सत्य का मार्ग बताती
हैं। कहते हैं की मैं सूखा पत्ता हूँ, मैं पत्ता हूँ ज्ञान लोक का जो हवाओं के संग चलता है यही खोज है मेरे
सत्य की, यथार्थ है मेरे जीवन का वहीं अपने राम का बखान और राम राज्य कि चाहत अपनी
भी और बापू की भी लिए हुए रचना है। उनका
अपने प्रभु के प्रति सहज प्रेम विभिन्न कविताओं में दीखता है चाहे वह हे राम हो
जिसमें वह कहते हैं कि हम भी हैं मुन्तजिर(प्रतीक्षित)
भारत देश में तेरे राज्य के, कब आएगा वह जब साकार होंगे सपने। आगे राम राज्य के अनेकों खुशनुमा बिन्दुओं को
याद करते हैं कि वैसा राज्य कब आएगा। “राम
प्रेम” में राम के प्रति अपनी श्रद्धा एवं आसक्ति का वर्णन करते हैं।
वहीं
रोष, उन्माद ऐतिहासिक घटना क्रम एवं मार्मिकता संजोये विभिन्न देश काल एवं
परिस्थितियों पर उठते ज़ज्बातों को और उभरे
भावों को प्रदर्शित करती है कविता ‘गीत जो मर्सिया बन जाता है”। सम्पूर्ण विश्व शांति के प्रति उनकी चिंता
दर्शाती हुयी रचना है विशेषकर कुछ प्रान्तों यथा दक्षिणी कोरिया या फिर चीन में
मानवता के प्रति हो रहे अपराध को लेकर वे व्यथित हैं। इस सब से एकदम विलग होते हुए अगली कविता में जा
पहुँचते है अपने गाँव मेनडीह जहाँ वर्तमान की मुलाकात होती है विगत से, उभरती है कुछ स्मृतियाँ और उन्हीं विगत
स्मृतियों से रच दी “मेनडीह का स्मृति
गवाक्ष” सूख चुकी है नदी और जो रेतीले तट बचे जिन्हें वे नदी नहीं नदी का कंकाल
निरुपित करते हैं। वहीं न बाग़ बचे न जंगल
बस कल्पना करें या ख्वाब देखें की सब होगा पहले जैसा सुन्दर, आल्हादकारी,
शताब्दियों बाद पुनर्जन्म शस्य सलिला का। एक
तीक्ष्ण कटाक्ष एवं सांकेतिक व्यंग्य करती कविता है “सम्बन्ध”। जहाँ वे कहते हैं की :
ये
कैसे कौए हैं ?
जो
कौए होकर भी
कौए
न होने का ढोंग रचते हैं।
तो
“नेतृत्व”भी उनकी आलोचक दृष्टि से बच नहीं सका है।
की
कैसा हो गया उनका चेहरा
पल
पल की मक्कारी में पगे हैं वे।
वहीं
वर्तमान में तेज़ी से बढ़ते कंक्रीट के जंगल को लेकर विस्तृत भाव व्यक्त करे है
“पूंजीवादी शहर” में। जहाँ सब परेशां हैं।
गंभीर
लेखन एवं भावपूर्ण सोच जो प्रत्येक बार पढने के उपरांत चिंतन एवं मनन हेतु कुछ नया
ही विचार दे जाती है ऐसी ही है पुस्तक
“शब्द शब्द”
सादर,
अतुल्य
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