Moongate By Poonam Ahmed

 

मून गेट

द्वारा: पूनम अहमद
                    प्रकाशक : साहित्य विमर्श प्रकाशन

 


सामाजिक ताने बाने के बीच बेबुनियादी मान्यताओं, पुरुष प्रधान समाज द्वारा बनायीं गयी दमनकारी नीतियों एवं गुलामी या कहें की  दासता के  बन्धनों की गिरफ्त में, घर की चार दीवारी में कैद रखने वाली सदियों पुरानी  सोची समझी साजिशों से जकड़ी नारी को आज़ाद करती, उसे ज़माने की परवाह किये बगैर अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेते हुए दिखलाती, ये चारों कहानियां जो पूनम जी की नारी स्वातंत्र्य, उसकी बेड़ियों को तोड़ने की यात्रा, बंधनों एवं वर्जनाओं से जूझने एवं उन्हें परास्त करने की हर संभव कोशिश दिखलाती श्रेष्ट रचना हैं ।

 जो अनछुए विषय उन्होंने इन कहानियों के नारी पात्रों के माध्यम से उठाये  हैं, उन्हें जिस तरह कुंठित मान्यताओं एवं वर्जनाओं से बाहर  आते दिखलाया है, निश्चय ही कुछ रूढ़िवादियों को असहज करेगा एवं अन्य जन हेतु एक नयी सोच को विकसित करने का विषय प्रदान करता है।  प्रश्न वही है की नारी आज भी क्यों परतंत्र है, क्यों वह अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकती, क्यों आज भी उसकी अस्तित्व की लडाई जारी है आखिर अपने शरीर की अपने मन की और इक्षाओं की मालिक वह स्वयं क्यों नहीं है।  क्यों आज भी उसे अपने जीवन से जुड़े हर छोटे बड़े  निर्णय के लिए  अपने जीवन के विभिन्न काल एवं अवस्थाओं में में क्रमशः पहले पिता या भाई  फिर पति फिर पुत्र की सहमति  की आवश्यकता होती है।  

बहुधा यह पाया जाता है की लेखक के पात्र एवं घटनाएँ सम्पूर्ण रूप से कपोल कल्पित न होकर किन्हीं वास्तविक घटनाओं एवं पात्रों से  प्रभावित होते हैं।  पूनम जी के इन पात्रों एवं घटना क्रम के  विषय में यह संभावित तो है किन्तु लेखिका ने जिस ख़ूबसूरती से पात्रों एवं घटना क्रम का सृजन एवं प्रस्तुतीकरण किया है वह बेशक बेमिसाल है। बहुत सम्भावना यह भी है की किसी सच्ची घटना से इनका कोई लेना देना ही न हो  किन्तु फिर भी पात्रों को इतनी सुन्दरता से गढ़ा गया है की वे सजीव हो उठे हैं। भाषा क्लिष्ट कहीं भी नहीं हुयी है, कहानियां कहीं न कहीं समाज के सुन्दर चेहरों के पीछे  छुपी वास्तिवकता की और इंगित करती हुयी सचेत करती हैं।  कहीं कोई सन्देश देने का प्रयास नहीं किया है और  प्रत्येक कहानी अपने  साधारण प्रवाह से आगे बढती हैं  एवं रोचक मोड़ पर अंत से मिलती है।  

“मोही” : मासूम एवं खूबसूरत चेहरों के पीछे छुपे असली कुटिल चेहरों की कहानी है।  बेहद रोमांचक प्रस्तुतीकरण के संग चेहरे पर लगे हुए नकाबों को हटा कर उनका सच बयां करती एक बहुत वास्तविक सी प्रतीत होती हुयी कहानी।  किस चेहरे के पीछे क्या छुपा है यह जानने की आज तक न तो कोई विधा है न ही विद्या, आज की तेज़ भागती जिंदगी में एक दूसरे को कैसे योजनाबद्ध तरीके से अपने जाल में फंसाया जा रहा है, बहुत ही रोचक एवं सिलसिलेवार वर्णन प्रस्तुत किया है।  महानगरीय, संभ्रांत आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य  में रचा गया कथानक है।  

विषय गंभीर है साथ ही चिंताजनक भी, किन्तु जिस रुचिकर तरीके से रोमांच के साथ  प्रस्तुत किया है वह सराहनीय है, चेहरों के पीछे छुपी असलियत  यूं तो नज़र नहीं आती किन्तु वहीं  इंसानी फितरत को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। तथाकथित एडवांस युवा पीढ़ी अपनी ख्वाहिशों को बिना किसी विशेष प्रयास के पूरा करने के लिए  लिए किसी अमीर  मर्द अथवा संपन्न महिला को अपने जाल में उलझा कर अपना मंतव्य पूरा करते हैं अथवा करने हेतु प्रयत्नशील रहते हैं। बेहद रोमांचक प्रस्तुति है। अंत तक रोमांच बना रहता है।  मोहि और देव के किरदार को इतने सुन्दर तरीके से कथानक में उतारा गया है  मानो साक्षात् हों।

 नायिका मोहि एक  सामान्य सी नौकरी पेशा लड़की है जो महानगर में रहकर अपना जीवन यापन कर रही है।  किसी को भी भ्रमित करने एवं उसकी सहानुभूति प्राप्त करने हेतु इतना विवरण ही पर्याप्त है, किन्तु उसका असल चेहरा इस भोले मासूम चेहरे के पीछे है जो की एक बेहद चालबाज़, पुरुषों को अपने मोह जाल में फांस कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने वाली युवती का है।  स्वयं आत्म निर्भर है हर दृष्टि से सक्षम है, अच्छा खासा कमाती है प्रभावशाली पद पर है, किन्तु उसे किसी प्रकार के बंधन स्वीकार नहीं है अतः महानगर में अकेली रहती है।  मन में बहुत कुछ पाने की आकांक्षा है जिसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है ओर उसे कुछ भी अनुचित नहीं लगता।  अपना जीवन अपने तरीके से जी भर के जी लेना चाहती है।   जो सोच लिया उसे  पाने के लिए उसके पास उचित, अनुचित जैसे कोई पैमाने नहीं हैं एवं मात्र उद्देश्य इक्षित को हासिल करना ही है।

  भाई और नाना ने बचपन में ही उसके साथ शोषण किया है और संभवतः वहीं  से परिवार के प्रति  नफरत का बीज अन्कुरित  होना शुरू हुआ होगा जो अब सम्पूर्ण परिवार के लिए उसके मन में समायी  कडुवाहट में बदल चुका है।   अब पुरुष प्रधान समाज में कैसे जीना है वह समझ चुकी है।  अब वह पुरुष को अपनी उँगलियों पर नचा कर अधिक  सुख पाती है।  नैतिकता, संस्कार जैसी आदर्श बातों का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं है। पूनम जी सुन्दर सामान्य जन जीवन में प्रयुक्त हो रही भाषा का प्रयोग करती हैं,किन्तु कहीं कहीं कुछ कुछ चुनिन्दा शब्द भी प्रयोग कर लेती हैं जो वाक्यों की सुन्दरता बढ़ा  देते हैं जैसे अरुण कपोल, धर्म के विशवास की प्रतिमूर्ति आदि।  

वहीं कहानी के नायक के लिए नारी सिर्फ भोग्या  है।  स्वयं सुन्दर है संपन्न एवं आकर्षक है किन्तु दोहरी जिंदगी जीता है जहाँ एक और पत्नी के सामने उसकी छवि अत्यंत  पत्निव्रता एवं घर परिवार को समर्पित व्यक्ति की है, वहीं उसका मनचला रसिया मिजाज़ एवं विभिन्न लड़कियों से सम्बन्ध रखना ही उसका उसका वास्तविक चरित्र एवं चेहरा है| देव जो इस कथा का नायक है, वह  ऑफिस  में बेहद मिलनसार अधिकारी है अपने काम से काम रखता है किन्तु ऑफिस के बहार उसका असल चरित्र नज़र आता है।  जहाँ वह एक शातिर लेडी किलर के रूप में लड़कियों को फ़साने हेतु चालें चलता है।  किन्तु कभी न कभी तो हर बुराई का स्वयं बुरा समय आता ही है, वैसा ही कुछ नायक के संग भी घटित हो रहा है। उस के क्या परिणाम है कैसे उस से निबटा जा रहा है देखने योग्य है, ऐसी परिस्थति में उलझे हुए व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण अच्छा है ।

 विस्तार में जाकर कहानी में  उसकी चिंताएं  दिखलाना शायद उनका उद्देश्य नहीं था, जो कि उनके द्वारा चयनित कथानक से सामंजस्य भी संभवतः न बैठा पता तथा कहीं न कहीं मूल भाव से भटकाव सा प्रतीत होता ।  किस कदर साजिशें होती है या हो  सकती हैं उस का बहुत विस्तृत एवं सटीक वर्णन है।  

विषय वस्तु यूँ तो नारी प्रधान है किन्तु पाठक की सहानुभूति पीड़ित अर्थात देव के साथ होती है जबकि उसने भी कुछ सही तो नहीं किया था।  यूं तो कहा जाता है की प्यार नादाँ होता है मासूम होता है किन्तु पूनम जी ने दर्शाया है की प्यार के नाम पर कैसे कैसे खेल और साजिशें होती  है।  

सुन्दर वाक्य बीच बीच में हैं, सीमित पात्र हैं वाक्य रचना बेहद सुन्दर है।  शब्द संयोजन भावनाओं के मुताबिक स्थिति संप्रेषित करने में पूर्ण सक्षम है।  

“वो झूटी”, वर्तमान में, किस तरह एक चतुर लड़की द्वारा  भावनात्मक रूप से भ्रमित कर किसी सीधे सादे सरल युवक  को मात्र समय गुजारने हेतु इस्तेमाल  जाता है इसका चित्रण विस्तार से है। मात्र टाइम पास हेतु कोई इतना झूठ का बाजार फैलाएगा, बात सहजता से मन आत्मसात नहीं कर पाता। न कोई धोखा, न लूट, न ब्लैकमेलिंग, आखिर उसका अंत उद्देश्य क्या मात्र समय गुजरना ही था। क्या समय गुजरने के लिए इतना इन्वॉल्वमेंट आवश्यक  था।  कहानी में स्पष्ट नहीं होता।   

बच्चों की खुशी के लिए अविभावकों की मजबूरी उनके कथ्य से प्रकट होती है। प्रेम अंधा होता है युवक के माध्यम से सहज ही प्रस्तुत कर दिया है।  नायक जो कि   प्रेम में ऐसा  अँधा हुआ है  की उसे लड़की के कोई भी झूठ नज़र नही आते वह मात्र वही देख रहा है जो वह लड़की दिखलाना चाह रही है और वह भावनाओं से वशीभूत हो उस लड़की की बेचारगी की, उसकी तन्हाई की, एवं ऐसी ही तमाम बातों   पर आंख मूंद कर भरोसा कर ले रहा है। बाद में उसका सारा छल सामने आना व भेद खुलने का दृश्य  सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है ।

“मून गेट”, एक युवा लड़की के गुम हो जाने से लेकर उसके मिलने तक के घटनाक्रम का सुंदर वाक्य विन्यास के संग रचित बहुत रोमांचक एवं सधा हुआ वर्णन है, पुलिस  की विवेचना हो या फिर मित्रों के बीच परस्पर जानकारी का आदान प्रदान, हर स्तर पर परिवेश एवं पात्रोचित शब्दावली का प्रयोग हुआ है, पाठक को कथानक के मध्य में कोई विचलन या भटकाव महसूस नही होता, सामान्य रूप से कथानक अपने सधे हुए क्रम से आगे बढ़ता है। सीमित पात्रों के साथ भी कथानक को बहुत रोचकता से गढ़ दिया गया है।

कलकत्ता के वैभव शाली निवास एवं संपन्नता  का वर्णन हो, अथवा शहरी भागमभाग के बीच पुलिसिया सवाल जबाब या फिर वर्तमान में समाज में फैलता जा रहा पाखंड, और महात्माओं के नाम पर अपनी दुकान एवं व्यभिचार के अड्डे चलाते धूर्त, तथाकथित महात्मा का  कार्यालयीन  काम काज और उन सब के बीच कहीं हौले हौले आकार लेती एक प्रेम कहानी, सभी का बहुत ही रुचिकर तरीके से वर्णन किया गया है। सम्पन्न परिवार की युवती  प्रेम की तलाश में भटकते हुए या शायद स्वयं ही इस आध्यात्म अपनाने के पश्चिमी फैशन को अपनाने की सनक में  आधुनिकता के इस  बहलावे में आकर  गलत संगत में पहुच जाती है।

आमोदिनी,

नारी केंद्रित कथानक है एवं इस कथानक के माध्यम से  बेहद गंभीर प्रश्न सामने रखा गया है।  जब महिलाओं की बात हो जहाँ नारी सामान्य सी भी वर्जनाओं का उल्लघन करे अथवा किसी  रीति रिवाज़ को न माने तो नारी को तो सहज ही दोषारोपित कर दिया जाता है या उसके चरित्र पर आक्षेप हो जाते हैं वैसा ही कुछ इस कथानक द्वारा भी सम्मुख लाने का प्रयास किया गया है  किन्तु उसके मूल में तो अपरिपक्व उम्र में ड्योढ़े उम्र के पुरुष से विवाह, वयस्क होने के भी बहुत पूर्व  संतान को  जन्म है, जिन्हें नज़रन्दाज़ करना सहज नहीं है।                

जब तक वह कुछ समझने योग्य हुई स्वयं के अरमान जागृत  होना प्रारंभ हुए तो पति के अरमान समाप्त प्राय थे वह उम्र के चढाव पर थी किन्तु पति का उम्र की ढलान पर उतरने का  समय आ गया था।  जब वांक्षित  उमंग और जोश जो वह तलाश रही थी  उसे  घर में नही मिला तब  उसे यदि वाही सुख बाहर मिला और उसने बिना किसी की परवाह किये जी भर कर अपना समय भोग लिया तो सवाल क्यों ? इसे नारी की उन्मुक्तता नहीं उसकी दमित इक्षाओं का प्रति फल कहना अधिक उचित प्रतीत होता है जहाँ वह वही कर रही है जो सामान परिस्थितियों में एक आम पुरुष ने किया होता किन्तु यहाँ अंगुली उसके चरित्र पर उठती है न की पुरुष की कमजोरी पर।  

दूसरे संबंध में भी बेशक युवक उस से उम्र में छोटा था किन्तु उसकी शारीरिक एवं मानसिक ज़रूरतें पूरी करने में सक्षम था। दोनों ही   मांग एवं आपूर्ति  के सिद्धांत पर चल रहे थे। उम्र का शरीर की इक्षाओं  से क्या सम्बंध, वह सिर्फ शारीरिक संतुष्ठी हेतु नही अपितु जो घाव उसे बचपन में ही मन पर मिल गए उनको  ही ज़िंदगी भर भोगती है एवं जब कहीं उसे प्रेम करने वाला मिल जाता है वह उसकी हो जाती है। एकल पुरुष हेतु तो समाज स्वयं व्यवस्था कर देता है उसके सभी नियम पुरुषों के पक्ष  में हैं जबकि यही सब नियम ठीक उलट हो जाते हैं जब बात महिला की स्वतंत्रता की या उसकी अपनी शारीरिक ज़रूरतें पूरी करने की होती है।

कामनाएं उम्र से बंधी हुई तो नही। वे तो स्वतंत्र हैं। अपनी संतुष्टि के मार्ग ढूंढने के लिए भी। रिटायरमेंट होने के बाद भी यदि वह अपने लिए मित्र तलाशती है और संतुष्ट है तो  उसमें समाज को दिक्कत क्यों होनी चाहिए। समाज का ढांचा ही ऐसा बनाया गया है कि स्त्री यदि अपनी मर्ज़ी से चले तो कुलटा या अन्य भी ओछे शब्दों से नवाज़ी जायेगी किन्तु उन्ही परिस्थितियों में किसी पुरुष के  होने पर वही समाज क्या रूख अख्तियार करता है कभी वास्तविक हालत में गौर कीजियेगा। कथानक का सबसे अहम् पहलू यह है की  शारीरिक एवं कुछ स्तर  पर मानसिक सहयोग को छोड़ उसने पति के हर कार्य में पूरा सहयोग दिया उसके चरित्र, कृत्य एवं कथन को पूर्णतः स्पष्ट कर देता है ।

            निश्चित ही एक सोच को जन्म देती रचना है नारी शक्ति के साथ नारी मुक्ति भी आवश्यक है। उसे बंधी हुई कड़ियों, बेड़ियों से मुक्त करना होगा। उसे अपने निर्णय स्वयं लेने का हक़ देना ही होगा। उसके शरीर की वह स्वतः मालिक है, एवं अपने शरीर की इक्षाएँ पूरी करने का उसे हक़ मिलना ही चाहिए। पत्नी की मृत्यु हो जाने पर पति  पर तो   कोई प्रतिबन्ध नहीं है अपितु समाज खुद उस का विवाह करवा कर उसके शारीरिक सुख का इंतज़ाम कर देता है फिर स्त्री के साथ पक्षपात क्यों कि पति के निधन पश्चात वह सब कुछ त्याग दे, पुरुष की दया का पात्र बन कर रहे, साध्वी जैसा जीवन यापन कर ले तो समाज के ठेकेदार  अति प्रसन्न। नारी को प्रताड़ित कर उसका दमन कर कहीं न कहीं आत्मिक सुख पाने वालों को अपनी विचार धारा में बदलाव ले आना ही होगा।

            एक श्रेष्ठ रचना जो पाठन के साथ साथ, उल्लिखित विषयों पर गंभीर चिंतन हेतु विवश करती है। 

सादर,
अतुल्य  

 

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