Dil Hai Chhota Sa by Ran Vijay
दिल है छोटा सा
लेखक : रणविजय
प्रकाशक : हिन्द युग्म
हिंदी साहित्य में रूचि रखने वाले तथा
स्तरीय पुस्तकों के शौकीन, प्रबुद्ध जनों हेतु रणविजय एक जानी पहचानी शख्शियत है, स्थापित नामचीन लेखकों में
उनका नाम शुमार है, उनकी पुस्तक “भोर उसके हिस्से की” सफलता के उत्तुंग शिखर पर है एवं आम जन द्वार इस पुस्तक में उन की भाव अभिव्यक्ति, सरल भाषा प्रवाह युक्त शैली, सहजगम्य वाक्य विन्यास एवं परिवेश को उसकी सम्पूर्ण
मौलिकता संग कलात्मक रूप से की गयी प्रस्तुति को अत्यंत पसंद किया गया है तथा मेरा
भी उस पुस्तक को पढने के बाद ही संभवतः रणविजय जी की अन्य रचनाये पढने का मानस बन गया
था, जो अब “दिल है छोटा सा“ पढ़ कर कुछ हद तक पूरा भी हुआ है हालाँकि अभी उनका पहला
कहानी संग्रह “दर्द मांजता है” भी पढना बाकी है एवं शीघ्र ही समय निकल कर उसे भी
पढ़ना अब तो प्राथमिकता सूची में है। निश्चय ही किसी भी कलाकार अथवा रचनाकार की आम
जन के समक्ष शुरूआती प्रस्तुतियां स्वयं के सर्वश्रेष्ठ प्रयास एवं सम्पूर्ण
आश्वस्तता पर्यंत भी, अत्यंत धडकते दिल से होती हैं, सफलता की आशा एवं कहीं अंतर्मन में असफल
होने का भय बहुत स्वाभाविक भी है, किन्तु कहना ही होगा की
रणविजय जी पर यह निष्कर्ष लागू नहीं होता क्यूकी जहाँ एक और उनकी कहानियों में आत्मविश्वास भरपूर झलकता है, वहीं शुरूआती कहानियों में भी कहीं से अपरिपक्वता की
मामूली सी भी झलक नहीं मिलती। लेखन में उच्च गुणवत्ता,
विचारों में स्पष्टता एवं स्थानीय भाषा को यथोचित मान देते हुए स्तरीय भाषा का प्रयोग,
कथानक पर लेखक की अच्छी पकड़ तथा उसकी हर छोटी से छोटी घटना एवं हर उतार चढाव पर
उनकी पैनी नज़र को दर्शाता है। दो कथा संग्रह एवं दो उपन्यास प्रकाशित होने एवं आम
जन द्वारा प्राप्त श्रेष्ठ प्रतिसाद की प्राप्ति के पश्चात वे उभरते हुए या नए की श्रेणी से बहुत ऊपर विशिष्ठ श्रेणी हासिल कर चुके हैं जहाँ वे युवा एवं
उभरते हुए लेखकों हेतु एक स्तर निर्धारित करते हुए उनके लिए आदर्श बन चुके हैं। मेरे
द्वारा उनकी पुस्तकें पढने की यात्रा उलट क्रम में या कहें की विपरीत दिशा में चल रही है एवं सबसे पहले सबसे
नयी रचना पढ़ी और अब उल्टे क्रम में चल रहा हूँ सो भी अच्छा ही हुआ क्यूंकि अब मैं परिवर्तन
स्पष्ट देख पा रहा हूँ, जो स्पष्तः लक्षित होते हैं एवं उनकी
उत्तरोत्तर प्रगति के परिचयक हैं। उनकी कहानियों को पढ़ कर सहज ही
स्पष्ट हो जाता है की वे अपनी रचनाशीलता का प्रयोग आम जन के लिए आम जन से
सम्बंधित समसामयिक विषयों पर अच्छे साफ
सुथरे सारगर्भित साहित्य को रचने में करते हैं, जहाँ एक और वे अपनी लेखनी द्वारा अपनी
प्रतिभा से पाठक को परिचित करवाते हैं, वहीं उनके कथानक की सरलता एवं पात्र में कहीं आभासित
अपनापन,पात्रों का पाठक से जुड़ाव स्थापित करता है, और इसी
स्थल पर लेखक, पाठक का दिल जीत लेता है। विभिन्न स्थानों पर स्वतः ही “वाह” कह
उठने को बाध्य करती सुन्दर रचनाओं के गठन में माहिर कथाकार हैं। विचारों में
स्पष्टता रखते हुए सामान्य जन की भाषा का
प्रयोग करते हैं, और व्यर्थ के अलंकारिक शब्द अथवा अबूझ से विषय
को बीच में अनावश्यक तौर पर डालकर शैली को
गरिष्ठ बनाने एवं दीर्घता प्रदत्त करने से परहेज़ करते हैं जो विषय के प्रति लेखक की निष्ठा व् पाठकों के
प्रति उनकी ईमानदारी को दर्शाता है ।
व्यर्थ ही अलंकृत शब्दों के मकड़ जाल बुनना या फिर क्लिष्ट मुहावरे इत्यादि डाल कर
विशिष्टता का आडंबर खड़ा करना उनकी शैली में स्थान नहीं पाते। कथानक के बीच में जो सुन्दर भाव लेखक ने रचे हैं,
कहीं बतौर पूरक तो कहीं उद्दरण के रूप
में उल्लेख किए गए है वह भी बहुत ही सरल भाषा में मात्र कथन को और प्रभावी बनाने
हेतु प्रयुक्त हुए हैं एवं सहज ग्राह्य हैं। यथा: यादों
का वज़न रूई पर पड़े पानी की तरह है जो पूरा सरोबार कर, उसको भारी कर देती है।
संग्रह की शुरुआत होती है एक प्रेम कहानी “तेरी दीवानी से”, यूं तो सामान्य तौर पर यह कहा जा सकता है कि एक प्रेम त्रिकोण की कहानी है, किंतु बात खास तब हो जाती है, जब वह त्रिकोण रणविजय जी की कलम द्वारा रेखांकित किया गया हो। सर्व प्रथम तो कॉलेज की ज़िंदगी का वास्तविक एवं रोचक चित्रण थोड़े समय के लिए कॉलेज केंटीन में ही ले जाता है। फिर बिल्कुल असल वाली प्रेम कहानियां जैसे शुरू होती है उसकी बांध देने वाली प्रस्तुति और फिर प्यार या कैरियर या दोनों की कश्मकश। एक निश्छल प्रेम कथा जो शुरू तो हुई महज़ आकर्षण से किन्तु समय के साथ साथ प्रेम पनपता गया आकर्षण कब प्यार और फिर प्यार की अनंत गहराई तक पहुँच गया पता ही न चला। किन्तु क्या वह दोनों तरफ बराबर था, शायद नहीं, क्यूंकि नारी का प्रेम तो अथाह है, उसके प्रेम में समर्पण है व्यापार नहीं, कोई खोने पाने का हिसाब नही । उसने प्यार किया तो बस प्यार किया किया। कहानी में बहुत ही सुंदर वाक्य बीच में रच-बस जाते हैं जो उसे विशिष्ट बनाने के संग संग एक विशेष आकर्षण भी प्रदान करते हैं। जैसे “आज झाड़ियों की हरी फुनगियों में कोमल जीवन दिख रहा था। फूलों में नए रंग दिख रहे थे और उनमें मोहक खुशबू मिल रही थी। हर तरफ एक नया सौंदर्य बोध हो रहा था। जीवन में रंग आने से अपने हर तरफ वस्तुएं भी रंगीन और खुशगवार दिखने लगती हैं”।
“जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी” चरितार्थ हो रही थी। वहीं प्रेम की पराकाष्ठा दर्शाती ये सुन्दर पंक्तियाँ देखिये :“जो मेरा है वो किसी और का हो नहीं सकता और जो किसी और का है वो मेरा नहीं हो सकता। मेरा प्यार तुम्हारे लिए सम्पूर्ण ह्रदय तन मन से है और यही मेरा है”। रोचकता के साथ शालीनता एवं कथन पर पकड़ बनाये रखते हैं । पात्र अपने आप में सम्पूर्ण है अर्थात जो चरित्र है उसका प्रस्तुतिकरण वास्तविकता के इतना करीब है मनो वास्तविक ही हो और वह उस पात्र की दशा दिशा एवं परिवेश से पूरी तरह मेल खाता है। कथा एक दोराहे पर समाप्त हुई है न ही सुखांत है न वियोग. बहुत सुंदर वाक्यांशों से प्रेम कथा बुनी है - प्रेम समर्पण मांगता है आत्मा का, न की शरीर का, नारी के प्रेम में भोग संपूर्णता का एहसास है जबकि पुरुष के लिए प्रेम की परिणीति।
और ये सुन्दर
अंतिम पंक्तियाँ “आज तुमने मुझे पूर्णता दे दी है। ये क्षण अमृत की
तरह मुझे सदैव तुमसे जोड़ कर रखेंगे” वहीं नायक की अपराध बोध युक्त स्वीकारोक्ति
एवं आत्म ग्लानी पूर्ण भाव दर्शाती हैं ये
पंक्तियाँ :"
"किसी के स्वयं को
मिटा देने वाले प्यार का बोझ कोई किन कन्धों पर संभल सकता है? इतने मज़बूत कंधे तो
आज तक नहीं बने।
बात परिचय से प्रेम तक कैसे पहुचती है, वर्णन सिलसिलेवार सुन्दर तरीके से दिया है लगभग वैसा ही जैसा अमूमन हर युवा के साथ अक्सर उम्र के उस दौर में होता है। “नारी सिर्फ एक बार ही प्रेम करती है” इस उक्ति को चरितार्थ करता चरित्र गढ़ा है नायिका का। उसकी भावनाओं को बेहद गहराई से समझा है, लम्बे अन्तराल पश्चात मुलाकात पर जहाँ नारी ह्रदय का अगाध बहु प्रतीक्षित प्रेम उभर कर सम्मुख आया वहीं पुरुष का अतृप्त वासना तुष्टि का मंतव्य । नारी ह्रदय के प्रेम की भावना को सुन्दर शब्दों में बयां करने में वे पूर्णतः सफल हुए है उन्होंने बहुत ही गहराई से समझा और विश्लेषित कर तब अपने शब्दों में सजा कर प्रस्तुत किया है।
इसी कहानी संग्रह की एक दूसरी कहानी “ज़िंदगी धूप छांव”, - “कभी
वह बहुत करीब आ गया था पर आज बहुत दूर है।
करीबी किसी मिसाल लायक नहीं वल्कि
परिस्थितिजन्य है”। इन शब्दों से शुरू
होते हुए एक आभास दे जाती है मिलने बिछुड़ने के बीच के रिश्ते का और उन रिश्तों के
बीच बची हुयी आंच का भी। बचपन से शुरू हो
युवा अवस्था तक की जीवन यात्रा में कितने परिवर्तन दिख जाते हैं एक ही व्यक्ति के
अन्दर। क्यों होता है जिंदगी में ऐसा कि अक्सर जो प्रत्याशित होता
है चाहे वह किसी पूर्वानुमान से हो या विगत का तज़ुर्बा, परिणाम उसके ठीक उलट ही हो जाता है, और कभी सफलता का एहसास तो कभी सब कुछ होने का
दर्प फिर सब कुछ छिन जाने के बाद इंसानी फितरत के परिवर्तन दर्शाती
है। कभी तरुणाई के सहज प्रभावित हो जाने वाली वय के अनुभव और
फिर प्रौढ़ होते हुए आये परिवर्तन, इंसान को कैसे वक्त के
अनुसार बदलते हैं बहुत ही सामान्य से घटनाक्रम के द्वारा दर्शाया है। ज़िंदगी उठाती है फिर गिराती है बार बार यही
सिलसिला चलता रहता है, जब तक कि व्यक्ति को ज़िंदगी अपना फलसफा न समझा दे। हर बार कुछ
सिखा कर जाती है, अपनी, समय की हर चीज की अहमियत शायद रिश्तों और इंसानों की भी। तरुणाई से कुछ
दृश्य सुंदर बयान किये है उस दौर की बेफिक्र जिंदगी बयां करती ये चाँद पंक्तियाँ
देखिये: “कमरे के बीचों बीच लाल काले रस्सी की तरह तारों से 100 वाट का बल्ब छत पर
लगी लकड़ी की बल्ली से झूल रहा था। उसकी
पीली रौशनी में कमरे में हर तरफ बेतरतीब फेंके हुए कॉपी-किताब, कपड़े दिख रहे थे। एक अलगनी पर घर भर के तमाम प्रयोग की चादरें,
बिस्तरे, कथारियां फेंके हुए थे। यहाँ
सहेज कर रखने का रिवाज़ नहीं था”।
भाषा का मौके के
मुताबिक एवं पात्र के मुताबिक अच्छा चयन करते है व पात्र की मनोभावना का उसके मन
की उथल पुथल का भी आंकलन कर शब्दों में ढाल देते है । कथानक सामान्य चरित्रों पर जन
जीवन का ही है कही कपोल कल्पना आधरित विषय नहीं लिए है, हम आप ही पात्र हैं । लेखक
स्वयं शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही परिवेश से जुड़े है एवं ग्रामीण पृष्टभूमि से उनका
होना उनकी सरलता को स्वाभाविक रूप देता है। यही कारण है की शहरी हो या ग्रामीण, दोनों की शैली,
कथावस्तु पर अच्छी पकड़ रखते हैं ।
इस कथानक के द्वारा वे पारस्परिक संबंधों को लेकर दिए जा रहे अपने सन्देश में बखूबी कामयाब हुए हैं। एवं यह स्पष्ट लक्षित हुआ है कि परस्पर संबंधों की ऊर्जा, आवश्यकता के समानुपाती होती है एवं समय तथा परिस्थिति के अनुसार घटती बढ़ती रहती है
“माटी महादेव” ईट भट्टा
मज़दूरों की जाती जिंदगी को, उनके रोजमर्रा
के हालत को बखूबी बयां करती है, कथा के नायक द्वारा, आय के सीमित या कहें
अत्यल्प साधन होने के बावजूद पारिवारिक ज़िम्मेवारी समझने एवं ओढ़ लेने की भावना
सर्व संपन्न होने के बावजूद एक अदद बूढी माँ को न पाल पाने वाले तथाकथित बड़े लोगों
के मुंह पर तगड़ा तमाचा है। वहीं एक दिलासा या उम्मीद की छोटी सी किरण भी उनके जीवन में कितना उत्साह भर देती है
वाकई अनुकरणीय एवं सराहनीय है किन्तु वहीं आसरा छूट जाना या उम्मीद का टूटना उन को
कैसे बिखरा देता है और यह अरमानो का खंडित
होना भगवान पर उनकी आस्था को भी डिगा देता है। अत्यंत हृदयस्पर्शी,मार्मिक
एवं सुंदर विस्तृत वर्णन है।
“तिरस्कृत”, नारी की आंतरिक शक्ति को दर्शाती कहानी है जहाँ
सहज ही दृष्टव्य है कि यूं तो प्रेम में
वह सब कुछ हारने को तैयार है, अपना सर्वस्व, अपने सपने, अपना जीवन, किन्तु उसी
प्रेम को ठुकराए जाने पर वह कैसे अपनी शक्ति से उन्ही कारणों पर विजय प्राप्त करती
है जिन्हें लेकर उसे अनदेखा किया गया था या कहें उसे अपमानित होना पड़ा था। प्रशानिक सेवा की तैयारी के दौरान पनपी एक तरफ़ा प्रेम
बेल का अंततः क्या हश्र होता है और स्वयं को श्रेष्ट मानते हुए अन्य का तिरस्कार करने
वालों को सीख देती हुयी, कि समय के साथ कैसे परिस्थिति पलट जाती है और
तिरिस्कृत उस स्थिति में पहुच जाता है जहां वह दाता है शक्तिशाली है समर्थ है एवं जिसने
परित्याग किया था वह याचक की भूमिका में आ खड़ा हुआ है। अपराधबोध से ग्रसित होते
हुए भी मानसिकता को तो देखें कि नायिका द्वारा यह कहने पर की मैं शादी कर रही हूँ उसे अघात महसूस होता
है की जो मेरा था मेरा नहीं रहा और निम्न स्तरीय सोच का परिचय देती पंक्ति की
मुझसे एक बार पूछना तो चाहिए था। सम्पूर्ण उत्तरदायित्व, नैतिकता के पाठ सिर्फ
नारी के हिस्से में ही क्यूँ। नायक को वह
बात याद आती है कि मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगी, किन्तु फिर भी एक अपराधबोध से
मुक्त होने का सुकून बहुत स्पष्टतः दर्शाती
हैं ये पंक्तियाँ “जो उसको खोने का डर था वो खो चुका था तथा जिस व्यवहार का डर था उसका अब कोई अर्थ नहीं था । बेहतर ने कमतर का साथ छोड़ दिया था वह निर्विकार
बना रहा क्योंकि ये चोट और भी गहरी थी। तिरस्कार की चोट थी जो अहिस्ता से शूल की तरह
चुभी थी”।
एक ने तिरस्कार किया था और एक तिरिस्कृत हो गया
था ।
कहानी “दहलीज़” अत्यंत रोचक कथानक पर बुनी
गयी कहानी है जिसके विषय में लिखने से पूर्व यही कहूँगा की बहुत
बार ऐसा होता है कि शब्द विचारों का साथ नही देते या तो शब्द मिलते नही और यदि मिल
भी गए तो स्वयं को ही उपयुक्त नही लगते। वैसा ही कुछ इस कहानी के साथ है। यह कथानक दो परिपक्व व्यक्तियों की प्रेम कथा है
जिसमें एक उच्च माध्यम वर्गीय, वरिष्ठ एवं उच्च पदासीन शासकीय
अधिकारी उम्र पकने की शुरुआती कगार पर या कहें की खत्म हो चुकी युवा अवस्था और शुरू
होती प्रौढ़ता की दहलीज पर एक ऐसी मोहतरमा के प्रेम में पड़ गए हैं जो उन्हीं की वय में हैं। तो मोर्निंग वाक से शुरू होती है यह प्रेम कहानी जिसका कथानक नया है एवं
रोमांचक है और यह जानना बेहद रोमांचित करता रहता है की
मॉर्निंग वॉक का आकर्षण कैसे प्रेम डगर पर बढ़ चला यह उस सम्पूर्ण भाग की
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है। किन्तु ऐसा क्या घटित हुआ कि अचानक ही
दहलीज़ और सीमाएं पैरों में ज़ंज़ीर बन गए । गेजेट्स और सोशल मीडिया का प्रेम कहानी
बनने और बढ़ने में सक्रिय योगदान भी बखूबी दर्शाया है । उत्सुकता अंत तक चरम पर है
।
“कटी पतंग”
ख़ूबसूरती से बयां की गयी कालेज की वैसी ही प्रेम कहानी है जैसी लगभग हर कॉलेज में
प्रतिवर्ष थोक में बनती हैं बिगडती हैं और यह सिलसिला चलता रहता है बस इक्का दुक्का ही आगे बढ़ पाती हैं अन्यथा बाकि तो
कॉलेज केम्पस के अन्दर ही दम तोड़ सदा के लिए समाप्त हो जाती हैं . हालाँकि “कटी
पतंग” का कथानक थोड़ा सा भिन्नता लिए हुए है क्यूंकि यहाँ प्रेम त्रिकोण में
छात्रों के बीच एक अध्यापक भी हैं. सुन्दर एवं रोमांचक प्रस्तुति है किन्तु चंद पंक्तियाँ
बेशक अत्यंत सुन्दर कही गयी हैं उल्लेख
करना चाहूँगा:
“कुछ कीलें
इतनी अन्दर तक घुस जाती हैं कि शायद उन्हें वहां से निकल देने से ज़िन्दगी ख़त्म हो
जाये. इन्सान उस कील के दर्द के साथ जीने को ही ज़िन्दगी मान लेता है”.
वहीं “रोटी
की खातिर” मज़दूर की ज़िंदगी या ज्यादा उचित होगा अगर कहें मजबूर की ज़िंदगी का बहुत
ही सटीक चित्रण है। उनकी कठिन जिंदगी कैसे
कैसे मोड़ों से गुजरती है, कितनी मुश्किलों से झूझते हुए जीवन बसर करते हैं
और वहीं अपने तुच्छ अहसानों का बदला लेते कुटिल और घाघ लोग और थोड़ा कुछ पाने के
बदले नारी अपना सर्वस्व लुटा कर अदा करती
मजदूर, उनकी हर रोज़ की की परेशानी,उस पर कमर तोड़ मेहनत के
साथ रोटी की खातिर कितने ही समझौते और वहीं अपने घर की इज्ज़त अपने सामने लुटते देख
भी नज़र फेर लेने की मजबूरी यहाँ उल्लिखित कर दूँ की पत्नी की पति की ओर से
असंतुष्टि जो स्पष्ट अभिव्यक्त नही है किन्तु वह एक प्रमुख कारण है। कहानी हर मुद्दे पर बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती है
अंत में बहुत स्पष्ट कहा है कि :
“गलत सही
क्या है? हर चीज के पहलू हैं और सब परिस्थितियों के अनुरूप स्थान बदल लेते हैं। पेट भरा है तो जूठा अस्पृश्य है, पेट खाली है तो
वही पकवान है। पानी में डूबता व्यक्ति
कोढ़ी का भी हाथ पकड कर बाहर निकल आएगा पर साधारण तौर पर उससे दूर दुत्कार कर चलेगा”।
“आवरण” ग्रामीण
परिवेश में रचित अन्य कहानी है जहाँ नायक प्रतीक है शोषित ग्रामीण युवाओं का, जिन्हें
चालबाजी से अथवा विभिन्न प्रकार के छलावों से लूट लिया जाता है, महज़ उनके भोलेपन के चलते। उनकी शैली की विशेषता है कहानी का अंत
तक बना रहने वाला रोमांच एवं सम्पूर्ण कथानक में सहज सरल संवादों के ज़रिए बानी
रहने वाली रोचकता जो पाठक को निरंतर कथानक से जोड़ के रखती है।
संग्रह की सभी कहानियां बेहद ख़ूबसूरती से रोमांचकता बनाये रखते हुए
लिपिबद्ध की गयी हैं एवं कुछ अच्छा पढने का संतोष इन्हें पढ़ कर मिल जाता है जो की
मेरी नज़र में एक आम पाठक को किसी पुस्तक से प्राप्त होने वाली सबसे बड़ी संतुष्ठी
है ।
सादर,
अतुल्य
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