Kavita Ka Janpaksh By Shailendr Chuhan
कविता का जनपक्ष
द्वारा : शैलेन्द्र चौहान
प्रकाशक : मोनिका प्रकाशन
शीर्षक:-
शैलेंद्र चौहान कृत “कविता का जनपक्ष” आलोचनात्मक आलेखों और निबंधों का संकलन है जिसमें पुस्तकों की समीक्षा भी शामिल है एवं पुस्तक के
शीर्षक को सार्थक करती पुस्तक में कवि कविता और उसके जनपक्ष पर चर्चा है, जो कि “यथा नाम तथा
भाव” वाली युक्ति को चरितार्थ करती कृति है ।
रचनाकार
वरिष्ठ कवि ,
उपन्यासकार , आलोचक एवं संपादक शैलेन्द्र चौहान , साहित्य जगत में एक प्रतिष्ठित
एवं स्थापित नाम है तथा विगत ४० वर्षों से
भी अधिक की उनकी गरिमामयी उपस्थिति से साहित्य जगत गौरवान्वित हुआ है। साहित्य जगत
को श्रेष्ठ गद्य एवं उच्च कोटि कि पद्य
रचनाएं दे कर जहाँ एक और उन्होंने अपनी सशक्त उपस्थिति का सर्व कालीन प्रमाण
प्रस्तुत किया वहीं उच्च कोटि के आलोचनात्मक साहित्य का सृजन कर एवं संपादन के क्षेत्र
में स्तरीय कार्य कर साहित्य को तो समृद्ध
किया ही, वर्तमान साहित्य प्रेमियों को भी अपने साहित्यिक योगदान से कृतार्थ किया
है। उनकी विभिन्न रचनाएं समय समय पर विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रतिष्ठित पत्र
पत्रिकाओं में ससम्मान प्रकाशित की गयीं
एवं अपनी विशेष लेखन शैली तथा यथार्थ एवं कटु कथ्य या कहें कि बेबाकी से खरी बात
कहने कि विलक्षण शैली के कारण उन रचनाओं
को प्रबुद्ध पाठक वर्ग द्वारा बेतरहा सराहा गया एवं साहित्य जगत में भी उत्तम प्रतिसाद प्राप्त हुआ।
शैलेंद्र चौहान पेशे से इंजिनियर एवं मन से कवि
है किन्तु उन्होंने साहित्य की अमूमन हर विधा में स्तरीय साहित्य का सृजन कर अपना
योगदान दिया है। उन्होंने अनेकों कहानियों और एक संस्मरणात्मक उपन्यास “पाँव जमीन
पर” लिखा एवं अनियतकालिक साहित्यिक पत्रिका “धरती” का संपादन बहुत समय तक किया। आलोचनात्मक आलेख , किताबों की बेबाक समीक्षा के
साथ साथ अन्य कई पत्रिकाओं के संपादन में
भी सहयोग , साहित्य सेवा में उल्लेखनीय
योगदान हैं।
शैली :-
शैलेन्द्र चौहान के लेखन की विशेषता है की उनकी
लेखनी देश, काल, परिस्थिति, राजनीती आदि के दबाब या प्रभाव से मुक्त होते हुए
निष्पक्ष एवं निर्दुन्द है वे साहित्य के स्थापित तथाकथित स्वयंभू मुखियों द्वारा बताये
गए नीति नियमों को मान कर साहित्य सृजन करने वाले अनुगामी साहित्यकार नहीं है वरन
वे सिर्फ वही लिखते है जो उन्हें उचित लगे या जिसके लिए उनकी आत्मा गवाही दे वे सिर्फ दिखावे का लेखन नहीं करते , उनकी लेखनी
तभी चलती है जब उनके अंतर्मन की तीव्र
आवाज़ उन्हें लिखने हेतु विवश कर दे एवं
विचारों का तीव्र शोर या उनके अन्दर घुमड़ता हुआ विचारों का बवंडर बाहर आने को बेताब हो जाये। संभवतः यही कारण है कि इतना लम्बा समय साहित्य जगत में बिताने
के बावजूद उनकी रचनाओं की संख्या सीमित ही है।
पुस्तक चर्चा :-
हिंदी साहित्य में जब कविता के जनपक्ष की बात आती है खासतौर पर वर्तमान आधुनिक युग में तो जिन साहित्यकारों के नाम प्रमुखता से उभर कर आते हैं वे सभी प्रगतिशील जनवादी धारा से जुड़े रचनाकार रहे हैं फिर वे निराला जी हों या मुक्तिबोध अथवा नागार्जुन। प्रस्तुत पुस्तक में इन मूर्धन्य रचनाकारों की रचनाओं पर विविध पहलुओं पर आलोचनात्मक विस्तृत टिप्पणी प्रस्तुत की गयी है.
प्रारंभ के कुछ अध्यायों में जनपक्षीय आलोचना ,
भाषा , काव्य एवं स्वतंत्रता पश्चात हिंदी आलोचना की बात करते हुए वे कहते हैं की
हिंदी की प्रगतिशील काव्य धारा अपने आरम्भ से ही बहुत बड़े अनिर्णय एवं भ्रम की
शिकार हुयी क्यूंकि उस वक्त छायावादोत्तर रूमानी तथा व्यक्तिवादी चेतना हिंदी
कवियों को बड़े पैमाने पर अपने प्रभाव में लिए हुए थी। और स्पष्तः कोई बहुत बड़ा
प्रगतिशील आलोचक उस परिदृश्य में मौजूद
नहीं था। हिंदी साहित्य में आज़ादी के आसपास का समय भी साहित्य की दृष्टि से बेहद
महत्वपूर्ण था। बीसवी सदी में आलोचना की अनेकों धारणाओं का विकास हुआ है जिनमें
भाषागत और शैलीगत आलोचना, अस्तित्ववादी आलोचना, रूपवादी आलोचना मिथकीय आलोचना आदि
का उल्लेख किया गया है।साथ ही पांचवां दशक
हिंदी कविता हेतु संक्रमण काल था। रचनाकारों की मूल सम्बध्हता या
प्रतिबद्धता की कहीं कोई स्पष्ट पहचान या विभाजन रेखा नहीं थी। शमशेर जी की शैली
के विषय में कहते हैं की वे शहरी स्वाभाव के कवि हैं नगरबोध के त्रासद अनुभव उनकी कविता में अक्सर पाए जाते
हैं। चाहें तो उन्हें रूमानी और विम्ब्वादी कवि भी कह सकते हैं। वे जहाँ एक और
मार्क्स्वादी थे तो दूसरी और प्रेम प्रकृति, और काव्यभाषा के प्रखर प्रयोग शिल्पी।
उन्होंने प्रगतिशील कविता को भाषा एवं अस्भिव्यक्ति के स्तर पर सहस एवं मुखरता
प्रदान की। वहीं भाषा लोक एवं काव्य पर कहते हैं की छायावाद के प्रादुर्भाव के साथ हिंदी काव्य जहाँ एक और रहस्य की जकड में फसता
है वहीं वह क्लिष्टता एवं गूढता की चपेट में भी आता है।
आगे निराला जी की कविता के अंतर्तत्व पर चर्चा करते हुए कहते
हैं की निराला मूलतः बांगला में लिखते थे पश्चात हिंदी लेखन प्रारंभ किया। वे
प्रारंभ से ही विद्रोही कवि के रूप में पहचाने गए। उनके आरंभिक प्रयोग छंद के
बंधनों से मुक्ति पाने के प्रयास हैं। छंद के बंधनों के प्रति विद्रोह कर उन्होंने
उस मध्ययुगीन मनोवृत्ति पर पहला आघात किया था जो छंद एवं कविता को प्रायः
समानार्थक समझते थे। वे कहते हैं की
निराला की रचना में एकरसता नहीं है व वे कभी बंध कर नहीं लिख सके। उनकी प्रवृत्ति
ही फक्कड़ थी। उनकी मौलिकता प्रबल भावोद्वेग, जीवंत एवं प्रभावी शैली अद्भुत वाक्य
विन्यास एवं उसमें अन्तर्निहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं।
आगे केदारनाथ अग्रवाल जी के विषय में वे लिखते
हैं की सामान्यतया समकालीन कविता अपने पाठक को साथ लेकर नहीं चल पाती। वह पाठक संग
दिल से कम दिमाग से अधिक रिश्ता बनाती थी , किन्तु केदार जी कविता को पाठक के
ह्रदय के करीब लाये। वे ग्रामीण परिवेश एवं लोक संवेदना के कवि है। और उनकी रचना
का केंद्र बिंदु सर्वहारा किसान और मजदूर है। उस के इर्द गिर्द ही उनका लेखन है। राजनैतिक
दूरदर्शिता भी उनकी कविताओं में मिलती है, उनकी भाषा सीधी एवं सहज है साथ ही कम
शब्दों में बड़ी बात कह देते है। उनकी कविताओं में एक एहसास है जो पलों को जीने से
ही प्राप्त हुआ है। उन्होंने इस बात को माना कि वे दूसरों की कवितायेँ पढ़ते हुए
उनसे सीख कर अपनी मंजिल तक पहुंचे हैं।
उन्होंने ग्रामीण जीवन , ग्रामीणों की संवेदना के साथ साथ प्राकृतिक सौन्दर्य को
अपनी कविताओं में प्रमुख स्थान दिया है।
नागार्जुन की कविताओं को व्यंजना और यथार्थ की
धारदार कवितायेँ निरुपित करते हुए कहते हैं की नागार्जुन के काव्य में सम्पूर्ण काव्य
परंपरा जीवंत रूप में उपस्थित देखि जा सकती है। वे अपने जीवन और सृजन के लम्बे
कालखंड में सभी राजनितिक एवं साहित्यिक वादों के साक्षी रहे, किन्तु आबद्ध किसी से
भी नहीं हुए। वे जनता की राजनीतिक आकांक्षा से जुड़े कवि रहे, उनका सम्पूर्ण काव्य
प्रमाण है की उनकी प्रतिबद्धता हमेशा स्थिर एवं अक्षुण्ण रही। उनकी कवितायेँ उस
काल के समग्र परिद्रश्य की जीवंत एवं प्रमाणित दस्तावेज़ हैं। उनकी प्रेम और प्रकृति सम्बन्धी कवितायेँ उसी
तरह भारतीय जनचेतना से जुडती है जिस तरह उनकी राजनितिक कवितायेँ। आज कविता के
सन्दर्भ में सम्प्रेषण की जिस समस्या पर व्यापक चिंता है वैसी उनकी कविताओं में
व्याप्ति ही नहीं।
वहीं मुक्तिबोध के सम्बन्ध में वे कहते हैं की वे
मध्य वर्ग के कवि हैं। मध्वार्गीय संघर्ष और विषमताओं को वे अपनी ताकत बताते हैं।
जनपक्षीय आलोचना का विचलन में उन्होंने नामवर सिंह
जी की प्रसिद्द पुस्तक कविता के नए प्रतिमान पर
आलोचनात्मक प्रतिक्रिया दी है एवं उनकी मान्यताओं तथा स्थापनाओं को अस्थिर
बताते हुए पक्षपाती बता दिया है जो किसी के प्रति नरम रहे तो किसी अन्य पर कठोर और
मुहावरे ,हाथी के दांत... तक का प्रयोग उनके लिए कर दिया। वे कहते हैं की यही कारण
थे की नेमिचंद्र जैन ने कविता के नए
प्रतिमाण पर टिप्पणी देते हुए कहा की
मार्क्सवादी नामवर सिंह का सर्वथा रूपवादी आलोचना दृष्टि की ओर झुकाव। एवं यह भी की नामवर सिंह का विश्लेषण उस प्रवृत्ति को
समर्थन देता जान पड़ता है जो कहता है की कविता की दुनित्य एक स्वायत्त दुनिया है।
जिसका मूल्यों से किसी सामाजिक सार्थकता से कोई सम्बन्ध नहीं।
आगे कविता की वर्तमान स्थिति पर चिंतन करते हुए
इस बात को समझने का प्रयास किया गया है कि क्या है जो कविता से विलुप्त हो रहा है,।
वे उल्लिखित करते है की आनंद और रस की अनुभूति वह पहली चीज है जो विलुप्त हो रही
है। किन्तु कविता ख़त्म नहीं हो रही हाँ उसे समाप्त करने की एक सोची समझी साजिश
जरूर है। जिससे प्रत्येक कवि को सतर्क रहना ही होगा।
समीक्षात्मक टिप्पणी -
·
पुस्तक में लेखक की तीव्र एवं स्पष्ट
प्रतिक्रियायें किसी की भी अप्रसन्नता की
परवाह से इतर, बेबाक है जो कहीं तीखे नश्तर सदृश चुभती है तो सोच की एक दिशा भी
दिखलाती है।
·
प्रत्येक प्रतिक्रिया गंभीर चिंतन पश्चात व्यक्त
की गयी है एवं पाठक की सोच और एक नयी दिशा
देती है तथा सोच के दायरे में कुछ इजाफा
करती है।
·
वरिष्टतम कवि एवं आलोचक भी उनके तीक्ष्ण
प्रतिक्रिया युक्त कथन से अछूते नहीं रहे हैं।
सविनय
,
अतुल्य
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